सामाजिक >> गुण्ठन गुण्ठनगुरुदत्त
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भारतीय संस्कृति का सरल एवं बोधगम्य विवेचन
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
8 दिसम्बर 1894 को लाहौर (अब पाकिस्तान) में
जन्मे श्री गुरुदत्त हिन्दी
साहित्य के एक देदीप्यमान नक्षत्र थे। वह उपन्यास-जगत् के बेताज बादशाह
थे। अपनी अनूठी साधना के बल पर उन्होंने लगभग दो सौ से अधिक उपन्यासों की
रचना की और भारतीय संस्कृति का सरल एवं बोधगम्य भाषा में विवेचन किया।
साहित्य के माध्मय से वेद-ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने का उनका प्रयास
निस्सन्देह सराहनीय रहा है।
श्री गुरुदत्त के साहित्य को पढ़कर भारत की कोटि-कोटि जनता ने सम्मान का जीवन जीना सीखा है।
उनके सभी उपन्यासों के कथानक अत्यन्त रोचक, भाषा अत्यन्त सरल और उद्देश्य केवल मनोरंजन ही नहीं, अपितु जन-शिक्षा भी है। राष्ट्रसंघ के साहित्य-संस्कृति संगठन ‘यूनेस्को’ के अनुसार श्री गुरुदत्त हिन्दी भाषा के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखक थे।
प्रस्तुत उपन्यास उनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसका आधार संयुक्त हिन्दू परिवार है, जिसके सहारे ही सम्पूर्ण समाजवादी होना सम्भव है। लेखक का मत है कि राष्ट्र के समाजवादी ढांचे में संयुक्त परिवार ईंटों का कार्य कर सकते हैं।
प्रस्तुत है, उनकी प्रतिनिध रचना ‘गुण्ठन’ का शुद्ध एवं प्रामाणिक संस्करण, जिसे अधिकारी सम्पादकों के कुशल निर्देशन में तैयार किया गया है।
श्री गुरुदत्त के साहित्य को पढ़कर भारत की कोटि-कोटि जनता ने सम्मान का जीवन जीना सीखा है।
उनके सभी उपन्यासों के कथानक अत्यन्त रोचक, भाषा अत्यन्त सरल और उद्देश्य केवल मनोरंजन ही नहीं, अपितु जन-शिक्षा भी है। राष्ट्रसंघ के साहित्य-संस्कृति संगठन ‘यूनेस्को’ के अनुसार श्री गुरुदत्त हिन्दी भाषा के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखक थे।
प्रस्तुत उपन्यास उनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसका आधार संयुक्त हिन्दू परिवार है, जिसके सहारे ही सम्पूर्ण समाजवादी होना सम्भव है। लेखक का मत है कि राष्ट्र के समाजवादी ढांचे में संयुक्त परिवार ईंटों का कार्य कर सकते हैं।
प्रस्तुत है, उनकी प्रतिनिध रचना ‘गुण्ठन’ का शुद्ध एवं प्रामाणिक संस्करण, जिसे अधिकारी सम्पादकों के कुशल निर्देशन में तैयार किया गया है।
1
किसी माता-पिता के लिए जीवन की सबसे अधिक
आनन्दप्रिय घड़ी वह होती है, जब
वे अपनी संतान को साफ़-सुथरा, स्वस्थ, सुखी और सब प्रकार से सम्मानित
देखते हैं। किसी सम्राट की भांति—जो प्रजा को धन-धान्य से
सम्पन्न, सुख-सुविधा से युक्त और निर्भय देखता है—वे भी अपनी
सन्तान को वैसा ही देखकर सुख का अनुभव करते हैं। वे जानते है कि यह उनके
जीवन-भर के परीश्रम का फल है। ये हैं, जो वे निर्माण करने में सफल हुए
हैं। ये सुन्दर हैं, सबल हैं, स्वस्थ हैं, सुखी हैं और लोक में
सम्मानित हैं। यह विचार ही उनको आनन्दित करने के लिए पर्याप्त
होता है।
भगवतस्वरूप के मन की भी यही अवस्था होती थी, जब वह अपने काम से सायंकाल घर आता और सब बाल-बच्चों को अपने चारों ओर एकत्रित कर उनसे बातचीत, हंसी-ठट्टा और विनोद करता था। उसने एक नियम-सा बना लिया था कि रात को वह परिवार में बैठकर ही भोजन करता था और इस प्रकार, जहां उसका चित्त प्रसन्न होता था, वहां बच्चे भी इतने समय पिता की संगत में रहते थे।
गृहिणी सुशीलादेवी अपने पति के सुख-दुःख की भागीदार थी। वह निश्चित समय पर भोजन तैयार कर, अपने पति की न केवल स्वयं प्रतीक्षा करती थी, अपितु सब बच्चों को साफ़-सुथरे कपड़े पहनाकर इस अवसर के लिए तैयार रखती थी।
भगवतस्वरूप अब अड़तालीस वर्ष की आयु का था और यह कार्यक्रम तेईस वर्षों से—जब से उसका विवाह हुआ था—चल रहा था। उस समय भगवतस्वरूप के माता-पिता जीवित थे। आरम्भ में तो उन्हें अपने लड़के का यह कार्य कुछ लज्जाहीन प्रतीत हुआ था। उसकी मां ने कहा था-‘‘भगवती, बहू को क्या कहते हो ? इस प्रकार तुम्हारे लिए सज-धज कर बैठने पर उसे लाज लगती है।’’
पुत्र हंस पड़ा था। उसने कहा था, ‘‘लज्जा की क्या बात है, मां ? उसके पास अच्छे-अच्छे कपड़े हैं। वे पहनने के लिए ही तो हैं। फिर, जब मैं आता हूं, तो उनके पहनने का इससे अच्छा अवसर और कब हो सकता है ?’’
‘‘इससे क्या लोभ होगा ? कभी महल्ले-टोले में जाना हो, किसी के घर ख़ुशी में अथवा मां के घर जाना हो, तब तो ऐसे कपड़े पहनने ही होते हैं। इस समय उनको पहनकर ख़राब करने से क्या लाभ है ?’’
‘‘यह बात तो मेरी समझ में नही आयी, मां ! कपड़े लाकर दूं मैं और पहनकर दिखाये महल्ले-टोले में ! नहीं मां ! यह नहीं होगा। मां के घर जायेगी, तो वे कपड़े पहनकर जायेगी, जो इसकी मां ने इसे दिए हैं। उनको यह संभालकर रख छोड़े। मैं तो इसे उन कपड़ों में देखना चाहता हूँ, जो मैंने लाकर दिये हैं और उनमें से वह, जो सबसे बढ़िया हैं।’’
भगवतस्वरूप का पिता साधु-स्वभाव का व्यक्ति था। वह घर की बातों में हस्तक्षेप नहीं करता था। जब भगवतस्वरूप की मां उत्तर नहीं दे सकी, तो यह प्रथा ही बन गयी थी। जिस समय भगवतस्वरूप काम से आकर कपड़े बदलकर खाने के लिए आता, तब उसकी स्त्री सुशीलादेवी अपने सबसे बढ़िया कपड़ों में और आभूषणों से अलंकृत होकर उसके लिए भोजन लाती। कभी-कभी उसकी मां भी समीप आ बैठती और सब इकट्ठे भोजन करते। इस समय वे कभी घर के सम्बन्ध में, कभी देश-विदेश की और कभी इतिहास की बातें करते।
एक दिन, जब सब रात के विश्राम के लिए जाने वाले थे, सुशीला ने कहा, ‘‘मांजी, अभी तक आपके इकट्ठे भोजन करने के व्यवहार पर प्रसन्न नहीं हुईं।’’
‘‘शील !’’-वह इसी प्रकार अपनी स्त्री को बुलाया करता था—‘‘क्या तुम भी प्रसन्न नहीं हो ?’’
‘‘मुझे तो कोई कष्ट नहीं होता। मेरा तो अब स्वभाव बन गया है। सायंकाल का भोजन तैयार कर मुंह-हाथ धो कंघी करने बैठ जाती हूं। ठीक साढ़े आठ बजे कपड़े पहनकर तैयार हो जाती हूं और आपके लिए खाना ले आती हूं।’’
‘‘मैं कष्ट की बात नहीं पूछ रहा। मैं तो यह जानना चाहता हूं कि क्या तुम्हें मेरे पास आकर बैठने में प्रसन्नता नहीं होती ?’’
‘‘जब आप मुझे देखकर सन्तोष अनुभव करते हैं, तो मेरा मन आनन्द से भर जाता है। भला अप्रसन्न होने की बात इसमें कैसे आ सकती है ?’’
‘‘तो मां की बात छोड़ो। वह अब बड़ी आयु की हो गयी हैं। कोई भी नवीन विचार अब सुगमता से उनकी समझ में नहीं आ सकता।’’
इस प्रकार यह प्रथा चली थी और अब इसे तेईस वर्ष हो गये थे। सायंकाल के भोजन का समय घर में किसी मेले पर जाने के समान होता था। भोजन के लिए सब ऐसे तैयार होते थे, मानो वे किसी के विवाहोत्सव पर जाने वाले हों।
भगवतस्वरूप की नौकरी विवाह के पूर्व ही लग चुकी थी। उस समय घर के चौके में ही पीढ़े पर बैठकर रोटी खायी जाती थी। चौका छोटा-सा था और एक समय एक व्यक्ति ही वहां बैठकर खा सकता था। यदि भोजन के समय के अतिरिक्त कुछ खाना होता था, तो हाथ में लेकर वह बाहर के कमरे में खाया जा सकता था।
नौकरी लगने पर, पहली बात, जो उसने की, वह चौकी के बाहर बैठकर रोटी खाने की थी। चौके के बग़ल में एक कमरा था, जो रात को सोने के लिए प्रयोग में लाया जाता था। उसने इसे भोजन करने का कमरा बना लिया। बाज़ार से एक चटाई ले आया और उस पर बैठकर भोजन करने लगा। मां ने कहा, ‘‘बेटा ! रोटी चौके से बाहर जाते-जाते ठण्डी हो जाती है।’’
‘‘आधी मिनट में क्या ठण्डी होगी मां ?’’
‘‘चौके के बाहर खाने में तुम्हें क्या मिलता है ?’’
भीतर जगह बहुत तंग है।’’
‘‘तो यहां कौन बीस प्राणी खाने वाले हैं ? एक तुम ही तो हो। तुम्हारे पिता तो प्रातःकाल सात बजे दुकान पर जाते हैं और रात को दस बजे दुकान से लौटते हैं।’’
‘‘पर मां ! और प्राणी भी तो आयेंगे।’’
‘‘जब आयेंगे, तब विचार कर लेंगे।’’
‘‘उनके लिए स्थान बनवाऊंगा, तभी तो आयेंगे।’’
मां चुप हो रही। बाहर का कमरा ‘डाइनिंगहाल’ बन गया। उसमें धीरे-धीरे उन्नती होने लगी। भगवतस्वरूप मैट्रिक पास था और एक अंगरेजी फ़र्म में साधारण क्लर्क की नौकरी पा गया था। वेतन पचास रुपये मासिक ही था, इसलिए मकान में परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे ही हो सकते थे। इस पर भी, जब उसका विवाह हुआ, तब उसके घर में पीतल के बर्तनों के अतिरिक्त कुछ ‘क्राकरी’ भी आ चुकी थी। इसी समय सुशीलादेवी आयी। भाग्य की बात थी कि उसके आने के साथ ही भगवतस्वरूप के वेतन में उन्नती होने लगी। वह फ़र्म में अकाउण्टेन्ट नियुक्त हो गया।
उसे प्रातः नौ बजे काम पर जाना होता था, इसलिए प्रातः काल का खाना बहुत थोड़ा होता था और जल्दी-जल्दी में खाया जाता था। मध्याह्न का आहार वह कार्यालय में कर लिया करता था। सायंकाल का भोजन वह अपने घर पर, परिवार के साथ ही करने का हठ करता था।
आवश्यकता के अनुसार आय बढ़ती गयी और उसके साथ धीरे-धीरे घर का प्रबन्ध भी सुधरता गया। सुशीला आयी और उसके बच्चे भी आने लगे। अब तक पांच बच्चे हो चुके थे भगवतस्वरूप के माता-पिता का देहान्त हो चुका था। वह अपनी कमाई का बहुत-सा भाग नक़द रुपयों के रूप में छोड़ गये थे, जिनसे भगवतस्वरूप अपने पुराने मकान का नव-निर्माण करा सका था।
भगवतस्वरूप अभी तक उसी फ़र्म में नौकर था और अब वहां मैनेजर के रूप में काम करता था। अब उसे छह सौ रुपया मासिक वेतन मिलता था। मालिक उसकी ईमानदारी और मेहनत से काम करने पर बहुत प्रसन्न रहते थे और उसे सदैव अपनी उन्नति की आशा बनी रहती थी। घर सब प्रकार से सुखदायक, फ़र्नीचर और धन-धान्य से युक्त था।
सबसे बड़ा लड़का विनोद एम.ए. में और उससे छोटा भूषण इन्टरमीडिएट में पढ़ता था। उससे छोटी तीन लड़कियां थीं। कान्ता नवमी श्रेणी में और कला पांचवीं में पढ़ती थीं। शोभा अभी स्कूल में भर्ती हुई थी। बच्चों के अतिरिक्त घर में एक नौकरानी भी थी। नाम था मेलो, जो घर में सफ़ाई, कपड़े धोने और लोहा करने इत्यादि का काम करती थी। रसोईघर का काम सुशीला स्वयं करती थी।
जब से भगवतस्वरूप की नौकरी लगी, सब से ही वह आय और व्यय के संतुलन को अपने जीवन की सफलता का आधार समझता था। वह अपनी आय का चालीस प्रतिशत भोजन पर, पन्द्रह प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई और अन्य मिश्रित खर्चों पर, पन्द्रह प्रतिशत कपड़ों पर, पन्द्रह प्रतिशत जेबख़र्च पर, दस प्रतिशत बैंक में और पांच प्रतिशत मकान की मरम्मत और सजावट के लिए ख़र्च करता था। जब वेतन पचास रुपया था, तब भी और अब भी, जब यह छह सौ रुपया था, वह इसी अनुपात में ख़र्च चला रहा था। इस प्रकार काम बहुत आनन्दपूर्वक चल रहा था।
भगवतस्वरूप के मन की भी यही अवस्था होती थी, जब वह अपने काम से सायंकाल घर आता और सब बाल-बच्चों को अपने चारों ओर एकत्रित कर उनसे बातचीत, हंसी-ठट्टा और विनोद करता था। उसने एक नियम-सा बना लिया था कि रात को वह परिवार में बैठकर ही भोजन करता था और इस प्रकार, जहां उसका चित्त प्रसन्न होता था, वहां बच्चे भी इतने समय पिता की संगत में रहते थे।
गृहिणी सुशीलादेवी अपने पति के सुख-दुःख की भागीदार थी। वह निश्चित समय पर भोजन तैयार कर, अपने पति की न केवल स्वयं प्रतीक्षा करती थी, अपितु सब बच्चों को साफ़-सुथरे कपड़े पहनाकर इस अवसर के लिए तैयार रखती थी।
भगवतस्वरूप अब अड़तालीस वर्ष की आयु का था और यह कार्यक्रम तेईस वर्षों से—जब से उसका विवाह हुआ था—चल रहा था। उस समय भगवतस्वरूप के माता-पिता जीवित थे। आरम्भ में तो उन्हें अपने लड़के का यह कार्य कुछ लज्जाहीन प्रतीत हुआ था। उसकी मां ने कहा था-‘‘भगवती, बहू को क्या कहते हो ? इस प्रकार तुम्हारे लिए सज-धज कर बैठने पर उसे लाज लगती है।’’
पुत्र हंस पड़ा था। उसने कहा था, ‘‘लज्जा की क्या बात है, मां ? उसके पास अच्छे-अच्छे कपड़े हैं। वे पहनने के लिए ही तो हैं। फिर, जब मैं आता हूं, तो उनके पहनने का इससे अच्छा अवसर और कब हो सकता है ?’’
‘‘इससे क्या लोभ होगा ? कभी महल्ले-टोले में जाना हो, किसी के घर ख़ुशी में अथवा मां के घर जाना हो, तब तो ऐसे कपड़े पहनने ही होते हैं। इस समय उनको पहनकर ख़राब करने से क्या लाभ है ?’’
‘‘यह बात तो मेरी समझ में नही आयी, मां ! कपड़े लाकर दूं मैं और पहनकर दिखाये महल्ले-टोले में ! नहीं मां ! यह नहीं होगा। मां के घर जायेगी, तो वे कपड़े पहनकर जायेगी, जो इसकी मां ने इसे दिए हैं। उनको यह संभालकर रख छोड़े। मैं तो इसे उन कपड़ों में देखना चाहता हूँ, जो मैंने लाकर दिये हैं और उनमें से वह, जो सबसे बढ़िया हैं।’’
भगवतस्वरूप का पिता साधु-स्वभाव का व्यक्ति था। वह घर की बातों में हस्तक्षेप नहीं करता था। जब भगवतस्वरूप की मां उत्तर नहीं दे सकी, तो यह प्रथा ही बन गयी थी। जिस समय भगवतस्वरूप काम से आकर कपड़े बदलकर खाने के लिए आता, तब उसकी स्त्री सुशीलादेवी अपने सबसे बढ़िया कपड़ों में और आभूषणों से अलंकृत होकर उसके लिए भोजन लाती। कभी-कभी उसकी मां भी समीप आ बैठती और सब इकट्ठे भोजन करते। इस समय वे कभी घर के सम्बन्ध में, कभी देश-विदेश की और कभी इतिहास की बातें करते।
एक दिन, जब सब रात के विश्राम के लिए जाने वाले थे, सुशीला ने कहा, ‘‘मांजी, अभी तक आपके इकट्ठे भोजन करने के व्यवहार पर प्रसन्न नहीं हुईं।’’
‘‘शील !’’-वह इसी प्रकार अपनी स्त्री को बुलाया करता था—‘‘क्या तुम भी प्रसन्न नहीं हो ?’’
‘‘मुझे तो कोई कष्ट नहीं होता। मेरा तो अब स्वभाव बन गया है। सायंकाल का भोजन तैयार कर मुंह-हाथ धो कंघी करने बैठ जाती हूं। ठीक साढ़े आठ बजे कपड़े पहनकर तैयार हो जाती हूं और आपके लिए खाना ले आती हूं।’’
‘‘मैं कष्ट की बात नहीं पूछ रहा। मैं तो यह जानना चाहता हूं कि क्या तुम्हें मेरे पास आकर बैठने में प्रसन्नता नहीं होती ?’’
‘‘जब आप मुझे देखकर सन्तोष अनुभव करते हैं, तो मेरा मन आनन्द से भर जाता है। भला अप्रसन्न होने की बात इसमें कैसे आ सकती है ?’’
‘‘तो मां की बात छोड़ो। वह अब बड़ी आयु की हो गयी हैं। कोई भी नवीन विचार अब सुगमता से उनकी समझ में नहीं आ सकता।’’
इस प्रकार यह प्रथा चली थी और अब इसे तेईस वर्ष हो गये थे। सायंकाल के भोजन का समय घर में किसी मेले पर जाने के समान होता था। भोजन के लिए सब ऐसे तैयार होते थे, मानो वे किसी के विवाहोत्सव पर जाने वाले हों।
भगवतस्वरूप की नौकरी विवाह के पूर्व ही लग चुकी थी। उस समय घर के चौके में ही पीढ़े पर बैठकर रोटी खायी जाती थी। चौका छोटा-सा था और एक समय एक व्यक्ति ही वहां बैठकर खा सकता था। यदि भोजन के समय के अतिरिक्त कुछ खाना होता था, तो हाथ में लेकर वह बाहर के कमरे में खाया जा सकता था।
नौकरी लगने पर, पहली बात, जो उसने की, वह चौकी के बाहर बैठकर रोटी खाने की थी। चौके के बग़ल में एक कमरा था, जो रात को सोने के लिए प्रयोग में लाया जाता था। उसने इसे भोजन करने का कमरा बना लिया। बाज़ार से एक चटाई ले आया और उस पर बैठकर भोजन करने लगा। मां ने कहा, ‘‘बेटा ! रोटी चौके से बाहर जाते-जाते ठण्डी हो जाती है।’’
‘‘आधी मिनट में क्या ठण्डी होगी मां ?’’
‘‘चौके के बाहर खाने में तुम्हें क्या मिलता है ?’’
भीतर जगह बहुत तंग है।’’
‘‘तो यहां कौन बीस प्राणी खाने वाले हैं ? एक तुम ही तो हो। तुम्हारे पिता तो प्रातःकाल सात बजे दुकान पर जाते हैं और रात को दस बजे दुकान से लौटते हैं।’’
‘‘पर मां ! और प्राणी भी तो आयेंगे।’’
‘‘जब आयेंगे, तब विचार कर लेंगे।’’
‘‘उनके लिए स्थान बनवाऊंगा, तभी तो आयेंगे।’’
मां चुप हो रही। बाहर का कमरा ‘डाइनिंगहाल’ बन गया। उसमें धीरे-धीरे उन्नती होने लगी। भगवतस्वरूप मैट्रिक पास था और एक अंगरेजी फ़र्म में साधारण क्लर्क की नौकरी पा गया था। वेतन पचास रुपये मासिक ही था, इसलिए मकान में परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे ही हो सकते थे। इस पर भी, जब उसका विवाह हुआ, तब उसके घर में पीतल के बर्तनों के अतिरिक्त कुछ ‘क्राकरी’ भी आ चुकी थी। इसी समय सुशीलादेवी आयी। भाग्य की बात थी कि उसके आने के साथ ही भगवतस्वरूप के वेतन में उन्नती होने लगी। वह फ़र्म में अकाउण्टेन्ट नियुक्त हो गया।
उसे प्रातः नौ बजे काम पर जाना होता था, इसलिए प्रातः काल का खाना बहुत थोड़ा होता था और जल्दी-जल्दी में खाया जाता था। मध्याह्न का आहार वह कार्यालय में कर लिया करता था। सायंकाल का भोजन वह अपने घर पर, परिवार के साथ ही करने का हठ करता था।
आवश्यकता के अनुसार आय बढ़ती गयी और उसके साथ धीरे-धीरे घर का प्रबन्ध भी सुधरता गया। सुशीला आयी और उसके बच्चे भी आने लगे। अब तक पांच बच्चे हो चुके थे भगवतस्वरूप के माता-पिता का देहान्त हो चुका था। वह अपनी कमाई का बहुत-सा भाग नक़द रुपयों के रूप में छोड़ गये थे, जिनसे भगवतस्वरूप अपने पुराने मकान का नव-निर्माण करा सका था।
भगवतस्वरूप अभी तक उसी फ़र्म में नौकर था और अब वहां मैनेजर के रूप में काम करता था। अब उसे छह सौ रुपया मासिक वेतन मिलता था। मालिक उसकी ईमानदारी और मेहनत से काम करने पर बहुत प्रसन्न रहते थे और उसे सदैव अपनी उन्नति की आशा बनी रहती थी। घर सब प्रकार से सुखदायक, फ़र्नीचर और धन-धान्य से युक्त था।
सबसे बड़ा लड़का विनोद एम.ए. में और उससे छोटा भूषण इन्टरमीडिएट में पढ़ता था। उससे छोटी तीन लड़कियां थीं। कान्ता नवमी श्रेणी में और कला पांचवीं में पढ़ती थीं। शोभा अभी स्कूल में भर्ती हुई थी। बच्चों के अतिरिक्त घर में एक नौकरानी भी थी। नाम था मेलो, जो घर में सफ़ाई, कपड़े धोने और लोहा करने इत्यादि का काम करती थी। रसोईघर का काम सुशीला स्वयं करती थी।
जब से भगवतस्वरूप की नौकरी लगी, सब से ही वह आय और व्यय के संतुलन को अपने जीवन की सफलता का आधार समझता था। वह अपनी आय का चालीस प्रतिशत भोजन पर, पन्द्रह प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई और अन्य मिश्रित खर्चों पर, पन्द्रह प्रतिशत कपड़ों पर, पन्द्रह प्रतिशत जेबख़र्च पर, दस प्रतिशत बैंक में और पांच प्रतिशत मकान की मरम्मत और सजावट के लिए ख़र्च करता था। जब वेतन पचास रुपया था, तब भी और अब भी, जब यह छह सौ रुपया था, वह इसी अनुपात में ख़र्च चला रहा था। इस प्रकार काम बहुत आनन्दपूर्वक चल रहा था।
2
परन्तु सब दिन एक समान नहीं होते। निर्जीव
वस्तुओं को जहां भी उठाकर रख
दिया जाये, वे वहीं रखी जायेंगी। सजीव प्राणियों का व्यवहार इस प्रकार
नहीं चल सकता। नियन्त्रण में बंधे रहना उनके स्वभाव के प्रतिकूल है। कितना
भी लाभदायक प्रबन्ध क्यों न हो, सजीव प्राणी हर समय उसे अपना नहीं सकता।
भगवतस्वरूप के परिवार में भी परिवर्तन आया। जिस स्मृतिकार ने यह नियम बनाया था कि लड़की दूसरे घर में ब्याही जाये, उसने परिवार भंग करने का बीजारोपण कर दिया था। यह बीज भगवतस्वरूप के घर में भी बोया गया।
विनोद ने एम.ए. पास किया और स्थानीय कॉलेज में प्रोफ़ेसर लग गया। वह लड़कों को अर्थशास्त्र पढ़ाता था। हिन्दू समाज में लड़का काम में लगा कि सगाइयां आने लगीं। यही विनोद के साथ भी होने लगा।
स्त्रियां सुशीला के पास आने लगीं, पुरुष भगवतस्वरूप के पास आने लगे और लड़कियों ने विनोद पर डोरे डालने आरम्भ कर दिये। बात घर की ‘कौंसिल’ में उपस्थित हुई, तो सुशीला ने रात के भोजन के समय बात चला दी। विनोद वार्तालाप में अपना नाम सुनकर सतर्क हो गया—‘‘मधु की मां कई दिन से आ रही हैं। वह विनोद के विषय में कहती थी।’’
‘‘क्या कहती थी ?’’ भगवतस्वरूप ने पूछा।
‘‘कहती थी कि विनोद अच्छा लड़का है और मधु भी अब सयानी हो गयी है। वह दसवीं कक्षा पास कर चुकी है और घर के काम-काज में भी बहुत निपुण है।’’
‘‘और इधर लाला सुखदेवराज अपनी लड़की के लिए कह रहे हैं।’’
‘‘कौन सुखदेव ?’’
‘‘उकाउण्टेण्ट जनरल के दफ़्तर में सुपरिण्टेंडेंण्ट हैं। विनोद के पिछले जन्म-दिवस पर आये थे और वह जिस लड़की के विषय में कहते हैं, वह उस दिन उनके साथ ही थी।’’
‘‘ओह, जयन्ती ? उसकी मां भी तो आती रहती है।’’
‘‘क्यों विनोद ! क्या इच्छा है ?’’
सायंकाल परिवार के एकत्रित होने पर, सबको परस्पर निस्संकोच बात करने का अभ्यास-सा हो गया था। इसलिए विनोद ने कह दिया, ‘‘पिताजी ! प्रोफ़ेसर रैड्डी की लड़की को मैं भली-भाँति जानता हूं और वह बहुत अच्छी है।’’
इस प्रकार बात यह समाप्त हो गयी। भगवतस्वरूप ने कहा, ‘‘विनोद ! विवाह तुम्हें करना है, इस कारण मुख्य सम्मति तुम्हारी ही होगी। इस पर भी कई बातें विचारणीय हैं, जिन पर हमारी राय लेनी आवश्यक है।’’
‘‘कौन-सी बात विचारणीय है पिताजी ?’’
‘‘लड़की दक्षिण भारतीय परिवार में पली है। वह पंजाबी परिवार को स्वीकार कर लेगी या नहीं ?’’
‘‘विवाह होते ही हम पृथक् परिवार की नींव डालेंगे।’’
‘‘तब तो मेरे और तुम्हारी माता के विचार करने को कुछ रह ही नहीं गया। केवल एक ही बात शेष है।’’
‘‘क्या पिताजी ?’
‘‘जब तुम दोनों ने यह पहले ही निश्चय कर लिया है, तो यह भी तो विचार किया होगा कि एक माह में कितनी बार हमसे मिलने आया करोगे ?’’
‘‘जितनी बार मां उसके पास जाया करेंगी।’’
‘‘देखो विनोद !’’ सुशीला ने कुछ उद्विग्न होकर कहा, ‘‘अब तुम तेईस वर्ष के हो गए हो और जब से पैदा हुए हो, हम तुमसे नित्य मिलते रहते हैं। विवाह के पश्चात् जब तुम इतने ही समय तक हमसे मिल लोगे, तब तुम हमसे बराबरी की बात सोचना।’’
‘‘मैं तो उसकी बात कह रहा हूं मां !’’
‘‘मैं उससे मिलकर क्या करूंगी ? हम तुम्हारी बात कह रहे हैं।’’
भगवतस्वरूप हंस पड़ा। उसने कहा, ‘‘एक बार इस कमरे में उस आले पर चिड़ियों ने घोंसला बना लिया था। चिड़िया ने अण्डे दिये, तो अण्डों से बच्चे हुए। चिड़िया मुंह में चुग्गा ढूंढ़कर लाती और बच्चों को खिलाती। बच्चे बड़े हो गये। एक दिन जब चिड़ा-चिड़ी बच्चों के लिए खाना ढूंढ़ने गये हुए थे, बच्चे फुर्र से उड़ गये। फिर वे नहीं लौटे। घोंसला ख़ाली देख चिड़ा-चिड़ी विस्मय से देखते रह गये। चुर्र-चुर्र कर उनको बुलाते रहे। कुछ समय तक शोक-मुद्रा में ख़ाली घोंसले को देखते रहे और फिर वे भी घोंसला छोड़कर उड़ गये।’’
सुशीला इस कथन को सुनकर मुस्कराई और बोली, ‘‘न तो मैं चिड़ियां हूं और न ही विनोद चिड़िया का बच्चा।’’
‘‘मां !’’ विनोद ने दृढ़ता से कहा, ‘‘संसार में ऐसा ही हो रहा है। हम उससे बाहर नहीं हो सकते।’’
‘‘तो बात निश्चित हो गयी समझ लें ?’’ भगवतस्वरूप ने प्रश्न-भरी दृष्टि से विनोद की ओर देखकर पूछा।
‘‘मेरे और नलिनी के भीतर तो बात निश्चित हो चुकी है। उसे अपने माता-पिता से बात करनी है।’’
‘‘‘तो उससे कहो कि वह भी बात कर ले। हमारी ओर से तुम्हें पूरी स्वतंत्रता है। यदि इस सम्बन्ध में कुछ विघ्न पड़े, तो बताना कि हम इसमें तुम्हारी क्या सहायता कर सकते हैं ?’’
चौबीस वर्ष के विवाहित जीवन में सुशीला के लिए यह पहला अवसर था, जब उसके रुचि के विपरीत बात हो रही थी। एकान्त में, सुशीला ने भगवतस्वरूप से विनोद के व्यवहार पर चिन्ता प्रकट की, तो भगवतस्वरूप ने कहा, ‘‘ओ शील ! जीवन में सुख उसे ही मिलता है, जो लचकदार बनकर रहता है और समय के घात-प्रतिघात को ऐसे सहता है, जैसे रबड़ की गेंद।’’
‘‘क्या आप इसे सफलता कहते हैं ?’’
‘‘नहीं, इसे सफलता तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह सफलता प्राप्त करने का साधन अवश्य है। सफलता तो सुख-प्राप्ति है। जैसे रबड़ का एक टुकड़ा दबाने से दब जाता है और दबाव हटाने से पुनः अपने पुराने स्वरूप में आ जाता है, वैसे ही मनुष्य को भी बन जाना चाहिए।’’
‘‘यह अपने लिए तो ठीक है, परन्तु यदि विनोद को कोई कष्ट हुआ, तो मुझे भी दुःख होगा।’’
‘‘यदि तुम्हारे भाग्य में दुःख भोगना है, तो उसे कैसे टाल सकोगी ?’’
‘‘आपके कहने का अर्थ तो यह हुआ कि पुरुषार्थ का कोई महत्व नहीं है ?’’
‘‘मैंने अपने विचार से पुरुषार्थ ही किया है, जो मैंने उसे पूर्ण स्वतंत्रता दे दी है। इस प्रकार मैं उसे सुखी रखने का यत्न कर रहा हूं।’’
‘‘आपने इस विवाह को रोकने का यत्न क्यों नहीं किया ?’’
‘‘इसलिए कि मुझे पता नहीं यह विवाह उनके लिए दुःखदायक होगा। यदि पता हो जाये, तो अवश्य रोकूंगा।’’
‘‘मुझे तो इसमें अनिष्ट ही दिखाई दे रहा है।’’
‘‘और तुमने अपनी नाराज़गी प्रकट कर दी। इससे अधिक और क्या कर सकती हो ?’’
विनोद से यह चर्चा रात के भोजन के समय हुई थी। दूसरे बच्चे भी इस वार्तालाप को सुन रहे थे और वे भी इससे प्रभावित हुए थे। भूषण और कान्ता ने भी सुना और समझा था। उन्होंने इसका अर्थ अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार लगाया था। भूषण इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश पाने का यत्न कर रहा था। उसने मुग़लपुरा इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रार्थना पत्र भेजा हुआ था। उसे वहां प्रवेश पा जाने की पूर्ण आशा थी। कान्ता मैट्रिक पास कर चुकी थी और माता-पिता से कॉलेज में प्रवेश लेने की स्वीकृति मांग रही थी। उन दोनों के मन में यह बात समा चुकी थी कि उनके माता-पिता उनकी सम्मति का मान करते हैं। उनका विनोद को यह कहना कि उनकी ओर से उसको विवाह करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, भूषण और कान्ता को बहुत भला प्रतीत हुआ था।
कान्ता ने कहा, ‘‘मैं गवर्नमेण्ट कॉलेज में प्रवेश-पत्र भरकर दे आयी हूं।’’
‘‘तो प्रवेश मिल गया है ?’’
‘‘अभी निर्णय नहीं हुआ, कल इन्टरव्यू होगा, उसके बाद प्रवेश की स्वीकृति मिलेगी।’’
‘‘तो तुमने निर्णय कर लिया कि तुम पढ़ोगी ?’’
‘‘हां पिताजी ! यदि वहां प्रवेश न पा सकी, तो फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज में अवश्य प्रवेश पा जाऊंगी। वहां भी प्रवेश-पत्र भरकर दे आयी हूं।’’
‘‘तुम्हारी उत्कट इच्छा है, तो तुम्हें कौन रोक सकता है ? इस पर भी मैं पूछता हूं कि पढ़कर क्या करोगी ?’’
‘‘मैं’ लिटरेचर पढ़ूंगी। इंग्लिश ‘लिटरेचर’ में एम.ए. करूंगी।’’
‘‘फिर क्या होगा ?’’
‘‘यह अभी तो नहीं बता सकती। शायद प्रोफ़ेसर बन जाऊं।’’
‘‘अच्छी बात है। कान्ता यह स्मरण रखो कि जो तुम्हें खाने-पीने को देता है, उसके भी साधनों की एक सीमा है।’’
‘‘मुझे बहुत कम धन की आवश्यकता पड़ेगी पिताजी, मैं जानती हूं कि इतना तो आपके पास है।’’
‘‘क्या तुमने मेरी बैंक की पास-बुक देखी है ?’’
‘‘वह मेज़ पर खुली पड़ी रहती है। हम सबने देखी है।’’
‘‘पर तुमने मेरे जीवन का बजट नहीं देखा।’’
‘‘क्या वह भी आपने बनाया हुआ।’’
‘‘हाँ।,
‘‘कहां रखा है वह ?’’
‘‘ढूंढ़ों, वह मिल ही जायेगा।’’
भगवतस्वरूप के परिवार में भी परिवर्तन आया। जिस स्मृतिकार ने यह नियम बनाया था कि लड़की दूसरे घर में ब्याही जाये, उसने परिवार भंग करने का बीजारोपण कर दिया था। यह बीज भगवतस्वरूप के घर में भी बोया गया।
विनोद ने एम.ए. पास किया और स्थानीय कॉलेज में प्रोफ़ेसर लग गया। वह लड़कों को अर्थशास्त्र पढ़ाता था। हिन्दू समाज में लड़का काम में लगा कि सगाइयां आने लगीं। यही विनोद के साथ भी होने लगा।
स्त्रियां सुशीला के पास आने लगीं, पुरुष भगवतस्वरूप के पास आने लगे और लड़कियों ने विनोद पर डोरे डालने आरम्भ कर दिये। बात घर की ‘कौंसिल’ में उपस्थित हुई, तो सुशीला ने रात के भोजन के समय बात चला दी। विनोद वार्तालाप में अपना नाम सुनकर सतर्क हो गया—‘‘मधु की मां कई दिन से आ रही हैं। वह विनोद के विषय में कहती थी।’’
‘‘क्या कहती थी ?’’ भगवतस्वरूप ने पूछा।
‘‘कहती थी कि विनोद अच्छा लड़का है और मधु भी अब सयानी हो गयी है। वह दसवीं कक्षा पास कर चुकी है और घर के काम-काज में भी बहुत निपुण है।’’
‘‘और इधर लाला सुखदेवराज अपनी लड़की के लिए कह रहे हैं।’’
‘‘कौन सुखदेव ?’’
‘‘उकाउण्टेण्ट जनरल के दफ़्तर में सुपरिण्टेंडेंण्ट हैं। विनोद के पिछले जन्म-दिवस पर आये थे और वह जिस लड़की के विषय में कहते हैं, वह उस दिन उनके साथ ही थी।’’
‘‘ओह, जयन्ती ? उसकी मां भी तो आती रहती है।’’
‘‘क्यों विनोद ! क्या इच्छा है ?’’
सायंकाल परिवार के एकत्रित होने पर, सबको परस्पर निस्संकोच बात करने का अभ्यास-सा हो गया था। इसलिए विनोद ने कह दिया, ‘‘पिताजी ! प्रोफ़ेसर रैड्डी की लड़की को मैं भली-भाँति जानता हूं और वह बहुत अच्छी है।’’
इस प्रकार बात यह समाप्त हो गयी। भगवतस्वरूप ने कहा, ‘‘विनोद ! विवाह तुम्हें करना है, इस कारण मुख्य सम्मति तुम्हारी ही होगी। इस पर भी कई बातें विचारणीय हैं, जिन पर हमारी राय लेनी आवश्यक है।’’
‘‘कौन-सी बात विचारणीय है पिताजी ?’’
‘‘लड़की दक्षिण भारतीय परिवार में पली है। वह पंजाबी परिवार को स्वीकार कर लेगी या नहीं ?’’
‘‘विवाह होते ही हम पृथक् परिवार की नींव डालेंगे।’’
‘‘तब तो मेरे और तुम्हारी माता के विचार करने को कुछ रह ही नहीं गया। केवल एक ही बात शेष है।’’
‘‘क्या पिताजी ?’
‘‘जब तुम दोनों ने यह पहले ही निश्चय कर लिया है, तो यह भी तो विचार किया होगा कि एक माह में कितनी बार हमसे मिलने आया करोगे ?’’
‘‘जितनी बार मां उसके पास जाया करेंगी।’’
‘‘देखो विनोद !’’ सुशीला ने कुछ उद्विग्न होकर कहा, ‘‘अब तुम तेईस वर्ष के हो गए हो और जब से पैदा हुए हो, हम तुमसे नित्य मिलते रहते हैं। विवाह के पश्चात् जब तुम इतने ही समय तक हमसे मिल लोगे, तब तुम हमसे बराबरी की बात सोचना।’’
‘‘मैं तो उसकी बात कह रहा हूं मां !’’
‘‘मैं उससे मिलकर क्या करूंगी ? हम तुम्हारी बात कह रहे हैं।’’
भगवतस्वरूप हंस पड़ा। उसने कहा, ‘‘एक बार इस कमरे में उस आले पर चिड़ियों ने घोंसला बना लिया था। चिड़िया ने अण्डे दिये, तो अण्डों से बच्चे हुए। चिड़िया मुंह में चुग्गा ढूंढ़कर लाती और बच्चों को खिलाती। बच्चे बड़े हो गये। एक दिन जब चिड़ा-चिड़ी बच्चों के लिए खाना ढूंढ़ने गये हुए थे, बच्चे फुर्र से उड़ गये। फिर वे नहीं लौटे। घोंसला ख़ाली देख चिड़ा-चिड़ी विस्मय से देखते रह गये। चुर्र-चुर्र कर उनको बुलाते रहे। कुछ समय तक शोक-मुद्रा में ख़ाली घोंसले को देखते रहे और फिर वे भी घोंसला छोड़कर उड़ गये।’’
सुशीला इस कथन को सुनकर मुस्कराई और बोली, ‘‘न तो मैं चिड़ियां हूं और न ही विनोद चिड़िया का बच्चा।’’
‘‘मां !’’ विनोद ने दृढ़ता से कहा, ‘‘संसार में ऐसा ही हो रहा है। हम उससे बाहर नहीं हो सकते।’’
‘‘तो बात निश्चित हो गयी समझ लें ?’’ भगवतस्वरूप ने प्रश्न-भरी दृष्टि से विनोद की ओर देखकर पूछा।
‘‘मेरे और नलिनी के भीतर तो बात निश्चित हो चुकी है। उसे अपने माता-पिता से बात करनी है।’’
‘‘‘तो उससे कहो कि वह भी बात कर ले। हमारी ओर से तुम्हें पूरी स्वतंत्रता है। यदि इस सम्बन्ध में कुछ विघ्न पड़े, तो बताना कि हम इसमें तुम्हारी क्या सहायता कर सकते हैं ?’’
चौबीस वर्ष के विवाहित जीवन में सुशीला के लिए यह पहला अवसर था, जब उसके रुचि के विपरीत बात हो रही थी। एकान्त में, सुशीला ने भगवतस्वरूप से विनोद के व्यवहार पर चिन्ता प्रकट की, तो भगवतस्वरूप ने कहा, ‘‘ओ शील ! जीवन में सुख उसे ही मिलता है, जो लचकदार बनकर रहता है और समय के घात-प्रतिघात को ऐसे सहता है, जैसे रबड़ की गेंद।’’
‘‘क्या आप इसे सफलता कहते हैं ?’’
‘‘नहीं, इसे सफलता तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह सफलता प्राप्त करने का साधन अवश्य है। सफलता तो सुख-प्राप्ति है। जैसे रबड़ का एक टुकड़ा दबाने से दब जाता है और दबाव हटाने से पुनः अपने पुराने स्वरूप में आ जाता है, वैसे ही मनुष्य को भी बन जाना चाहिए।’’
‘‘यह अपने लिए तो ठीक है, परन्तु यदि विनोद को कोई कष्ट हुआ, तो मुझे भी दुःख होगा।’’
‘‘यदि तुम्हारे भाग्य में दुःख भोगना है, तो उसे कैसे टाल सकोगी ?’’
‘‘आपके कहने का अर्थ तो यह हुआ कि पुरुषार्थ का कोई महत्व नहीं है ?’’
‘‘मैंने अपने विचार से पुरुषार्थ ही किया है, जो मैंने उसे पूर्ण स्वतंत्रता दे दी है। इस प्रकार मैं उसे सुखी रखने का यत्न कर रहा हूं।’’
‘‘आपने इस विवाह को रोकने का यत्न क्यों नहीं किया ?’’
‘‘इसलिए कि मुझे पता नहीं यह विवाह उनके लिए दुःखदायक होगा। यदि पता हो जाये, तो अवश्य रोकूंगा।’’
‘‘मुझे तो इसमें अनिष्ट ही दिखाई दे रहा है।’’
‘‘और तुमने अपनी नाराज़गी प्रकट कर दी। इससे अधिक और क्या कर सकती हो ?’’
विनोद से यह चर्चा रात के भोजन के समय हुई थी। दूसरे बच्चे भी इस वार्तालाप को सुन रहे थे और वे भी इससे प्रभावित हुए थे। भूषण और कान्ता ने भी सुना और समझा था। उन्होंने इसका अर्थ अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार लगाया था। भूषण इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश पाने का यत्न कर रहा था। उसने मुग़लपुरा इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रार्थना पत्र भेजा हुआ था। उसे वहां प्रवेश पा जाने की पूर्ण आशा थी। कान्ता मैट्रिक पास कर चुकी थी और माता-पिता से कॉलेज में प्रवेश लेने की स्वीकृति मांग रही थी। उन दोनों के मन में यह बात समा चुकी थी कि उनके माता-पिता उनकी सम्मति का मान करते हैं। उनका विनोद को यह कहना कि उनकी ओर से उसको विवाह करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, भूषण और कान्ता को बहुत भला प्रतीत हुआ था।
कान्ता ने कहा, ‘‘मैं गवर्नमेण्ट कॉलेज में प्रवेश-पत्र भरकर दे आयी हूं।’’
‘‘तो प्रवेश मिल गया है ?’’
‘‘अभी निर्णय नहीं हुआ, कल इन्टरव्यू होगा, उसके बाद प्रवेश की स्वीकृति मिलेगी।’’
‘‘तो तुमने निर्णय कर लिया कि तुम पढ़ोगी ?’’
‘‘हां पिताजी ! यदि वहां प्रवेश न पा सकी, तो फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज में अवश्य प्रवेश पा जाऊंगी। वहां भी प्रवेश-पत्र भरकर दे आयी हूं।’’
‘‘तुम्हारी उत्कट इच्छा है, तो तुम्हें कौन रोक सकता है ? इस पर भी मैं पूछता हूं कि पढ़कर क्या करोगी ?’’
‘‘मैं’ लिटरेचर पढ़ूंगी। इंग्लिश ‘लिटरेचर’ में एम.ए. करूंगी।’’
‘‘फिर क्या होगा ?’’
‘‘यह अभी तो नहीं बता सकती। शायद प्रोफ़ेसर बन जाऊं।’’
‘‘अच्छी बात है। कान्ता यह स्मरण रखो कि जो तुम्हें खाने-पीने को देता है, उसके भी साधनों की एक सीमा है।’’
‘‘मुझे बहुत कम धन की आवश्यकता पड़ेगी पिताजी, मैं जानती हूं कि इतना तो आपके पास है।’’
‘‘क्या तुमने मेरी बैंक की पास-बुक देखी है ?’’
‘‘वह मेज़ पर खुली पड़ी रहती है। हम सबने देखी है।’’
‘‘पर तुमने मेरे जीवन का बजट नहीं देखा।’’
‘‘क्या वह भी आपने बनाया हुआ।’’
‘‘हाँ।,
‘‘कहां रखा है वह ?’’
‘‘ढूंढ़ों, वह मिल ही जायेगा।’’
3
भूषण मुग़लपुरा कॉलेज में प्रवेश पा गया,
कान्ता फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज
में भर्ती हो गयी और नलिनी-से विनोद का विवाह निश्चित हो गया।
एक बात का भगवतस्वरूप को ज्ञान नहीं था। प्रोफ़ेसर रैड्डी क्रिश्चियन थे और उनके परिवार का रहन-सहन यूरोपीय ढंग का था। इण्डियन क्रिश्चियन परिवारों की लड़कियों को अपने लिए पति स्वयं ढूंढ़ने पड़ते हैं। इसलिए उनके माता-पिता लड़कियों को इस योग्य बना देते हैं कि वे अपना जीवन-साथी ढूंढ़ सकें और जब वे अपनी खोज में सफल हो जाती हैं, तो माता-पिता को मीन-मेख निकालने की आवश्यकता नहीं रहती।
जब नलिनी ने अपने माता-पिता को बताया कि प्रोफ़ेसर ऑफ़ इकॉनोमिक्स विनोद से उसका विवाह हो रहा है, तो उन्होंने प्रसन्नता प्रकट की। केवल एक समस्या सामने आयी कि विवाह किस विधि से हो। प्रोफ़ेसर रैड्डी रोमन कैथोलिक था और नलिनी की मां कट्टर विचारों की स्त्री थी। नलिनी स्वयं भी मां मरियम के आशीर्वाद पर बहुत विश्वास रखती थी। इसलिए इस विषय में सब एक मत थे कि विवाह गिरजाघर में होगा। प्रोफ़ेसर साहब विनोद को ईसाई बनाने की अपेक्षा अपना दामाद बनाने के लिए अधिक उत्सुक थे। कहने लगे, ‘‘देखो ! विवाह होना अधिक आवश्यक है। उसका ईसाई होना इतना आवश्यक नहीं है। यह काम तो बाद में भी हो जाएगा।’’
विनोद को गिरजाघर में जाकर विवाह करने पर राज़ी करना कठिन नहीं था। भगवतस्वरूप के घर में अन्य अनेक विषयों पर बातचीत होने पर भी धर्म-कर्म तथा मत-मतान्तर की बातें नहीं होती थीं। कभी किसी धार्मिक पर्व पर सुशीला किसी मन्दर में चली जाती थी, तो इसे सुशीला की अपनी निजी आस्था समझा जाता था। भगवतस्वरूप अपने को हिन्दू मानता था, परन्तु उसने कभी इस बात पर विचार नहीं किया था कि ऐसा क्यों है ? वह अपने मन में यह समझता था कि एक हिन्दू का पुत्र होने से वह भी हिन्दू है। इसलिए वह यह भी मानता था कि उसकी सन्तान भी हिन्दू की संतान होने से हिन्दू ही होगी। इस कारण, जब विनोद ने उन्हें अपने विवाह की तिथि, स्थान और विधि बतायी, तो उन्हें कुछ विशेष बुरा प्रतीत नहीं हुआ। प्रचलित रीति से विपरीत जाकर उन्होंने पूछा, ‘‘गिरजाघर में क्यों ?’’
‘वे ईसाई हैं।’’
‘‘कौन रेडडी ?’’
‘‘हां।’
‘‘मैंने तो समझा था कि हिन्दू हैं। हमारे कार्यालय में भी एक वैंकटरमण रैड्डी है। वह तिलक लगाता है। मांस-अण्डा मछली भी खाता। बहुत साफ़ और पवित्र रहता है।’’
‘‘पर ये.के. जोज़फ़ रेड्डी हैं और उनकी बेटी नलिनी जोज़फ़ है।’’
‘‘तो तुम विवाह करोगे ?’’
‘‘मैं आपको उसी दिन का कार्यक्रम बता रहा हूं। शुक्रवार को सांय पांच बजे सब गिरजाघर में एकत्रित हो जायेंगे। वहां छह बजे विवाह संस्कार सम्पन्न होगा। वहां से हम वहां जायेंगे, जहां मैंने किराये पर मकान लिया है। वहां दावत होगी और उसके बाद हम एक सप्ताह के लिए डलहौज़ी चले जायेंगे।’’
भगवतस्वरूप इस प्रबन्ध से संतुष्ट नहीं था। उसे इस सब कार्यक्रम में ऐसी कोई भी बात दिखाई नहीं दी, जिसे वह अपने आस-पड़ोस में देखता रहता था। सुशीला के मन में भी अपने पुत्र के विवाह का जो चित्र बना हुआ था, उसमें बाजे थे, बरात थी, स्त्रियों द्वारा सुहाग-गीत, वेदी गीत, सप्तपदी, मिठाइयाँ, पूरी-हलवा इत्यादि था, जिन्हें वह दूसरों के घर, विवाहों पर देख चुकी थी। उसमें महल्ले की स्त्रियों का आभूषणों-वस्त्रों से अलंकृत होकर आना, उनको बधाइयां देना और नई बहू को शकुन और आशीर्वाद देना था। इस चित्र में गिरजाघर और विनोद की कोठी में भोज कदापि नहीं था। इससे उसको कुछ ऐसा अनुभव हो रहा था, मानो किसी दूर के परिचित के घर में कोई कार्य हो रहा है, जहां उन्हें जाना है।
एक बात का भगवतस्वरूप को ज्ञान नहीं था। प्रोफ़ेसर रैड्डी क्रिश्चियन थे और उनके परिवार का रहन-सहन यूरोपीय ढंग का था। इण्डियन क्रिश्चियन परिवारों की लड़कियों को अपने लिए पति स्वयं ढूंढ़ने पड़ते हैं। इसलिए उनके माता-पिता लड़कियों को इस योग्य बना देते हैं कि वे अपना जीवन-साथी ढूंढ़ सकें और जब वे अपनी खोज में सफल हो जाती हैं, तो माता-पिता को मीन-मेख निकालने की आवश्यकता नहीं रहती।
जब नलिनी ने अपने माता-पिता को बताया कि प्रोफ़ेसर ऑफ़ इकॉनोमिक्स विनोद से उसका विवाह हो रहा है, तो उन्होंने प्रसन्नता प्रकट की। केवल एक समस्या सामने आयी कि विवाह किस विधि से हो। प्रोफ़ेसर रैड्डी रोमन कैथोलिक था और नलिनी की मां कट्टर विचारों की स्त्री थी। नलिनी स्वयं भी मां मरियम के आशीर्वाद पर बहुत विश्वास रखती थी। इसलिए इस विषय में सब एक मत थे कि विवाह गिरजाघर में होगा। प्रोफ़ेसर साहब विनोद को ईसाई बनाने की अपेक्षा अपना दामाद बनाने के लिए अधिक उत्सुक थे। कहने लगे, ‘‘देखो ! विवाह होना अधिक आवश्यक है। उसका ईसाई होना इतना आवश्यक नहीं है। यह काम तो बाद में भी हो जाएगा।’’
विनोद को गिरजाघर में जाकर विवाह करने पर राज़ी करना कठिन नहीं था। भगवतस्वरूप के घर में अन्य अनेक विषयों पर बातचीत होने पर भी धर्म-कर्म तथा मत-मतान्तर की बातें नहीं होती थीं। कभी किसी धार्मिक पर्व पर सुशीला किसी मन्दर में चली जाती थी, तो इसे सुशीला की अपनी निजी आस्था समझा जाता था। भगवतस्वरूप अपने को हिन्दू मानता था, परन्तु उसने कभी इस बात पर विचार नहीं किया था कि ऐसा क्यों है ? वह अपने मन में यह समझता था कि एक हिन्दू का पुत्र होने से वह भी हिन्दू है। इसलिए वह यह भी मानता था कि उसकी सन्तान भी हिन्दू की संतान होने से हिन्दू ही होगी। इस कारण, जब विनोद ने उन्हें अपने विवाह की तिथि, स्थान और विधि बतायी, तो उन्हें कुछ विशेष बुरा प्रतीत नहीं हुआ। प्रचलित रीति से विपरीत जाकर उन्होंने पूछा, ‘‘गिरजाघर में क्यों ?’’
‘वे ईसाई हैं।’’
‘‘कौन रेडडी ?’’
‘‘हां।’
‘‘मैंने तो समझा था कि हिन्दू हैं। हमारे कार्यालय में भी एक वैंकटरमण रैड्डी है। वह तिलक लगाता है। मांस-अण्डा मछली भी खाता। बहुत साफ़ और पवित्र रहता है।’’
‘‘पर ये.के. जोज़फ़ रेड्डी हैं और उनकी बेटी नलिनी जोज़फ़ है।’’
‘‘तो तुम विवाह करोगे ?’’
‘‘मैं आपको उसी दिन का कार्यक्रम बता रहा हूं। शुक्रवार को सांय पांच बजे सब गिरजाघर में एकत्रित हो जायेंगे। वहां छह बजे विवाह संस्कार सम्पन्न होगा। वहां से हम वहां जायेंगे, जहां मैंने किराये पर मकान लिया है। वहां दावत होगी और उसके बाद हम एक सप्ताह के लिए डलहौज़ी चले जायेंगे।’’
भगवतस्वरूप इस प्रबन्ध से संतुष्ट नहीं था। उसे इस सब कार्यक्रम में ऐसी कोई भी बात दिखाई नहीं दी, जिसे वह अपने आस-पड़ोस में देखता रहता था। सुशीला के मन में भी अपने पुत्र के विवाह का जो चित्र बना हुआ था, उसमें बाजे थे, बरात थी, स्त्रियों द्वारा सुहाग-गीत, वेदी गीत, सप्तपदी, मिठाइयाँ, पूरी-हलवा इत्यादि था, जिन्हें वह दूसरों के घर, विवाहों पर देख चुकी थी। उसमें महल्ले की स्त्रियों का आभूषणों-वस्त्रों से अलंकृत होकर आना, उनको बधाइयां देना और नई बहू को शकुन और आशीर्वाद देना था। इस चित्र में गिरजाघर और विनोद की कोठी में भोज कदापि नहीं था। इससे उसको कुछ ऐसा अनुभव हो रहा था, मानो किसी दूर के परिचित के घर में कोई कार्य हो रहा है, जहां उन्हें जाना है।
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