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भूतनाथ - भाग 1

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4853
आईएसबीएन :81-85023-56-5

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भूतनाथ - भाग 1

औरत: (गौर से देख कर) ये तो केवल तीन ही चार आदमी हैं, शायद कोई और हों.
मर्द: देखो ये लोग भी इसी पहाड़ी के ऊपर चले आ रहे हैं, अगर ये कोई और हैं तो उनका यहाँ आकर तुम्हें देख लेना अच्छा न होगा ! इसलिए मैं जरा आगे बढ़ कर देखता हूँ कि कौन हैं.

इतना कह कर वह नौजवान उठ खड़ा हुआ और उसी तरफ बढ़ा जिधर से वे लोग आ रहे थे. कुछ ही दूर आगे बढ़ने और पहाड़ी के नीचे उतरने पर उन लोगों का सामना हो गया. यद्यपि रात का समय था और केवल चांदनी ही का सहारा था, तथापि सामना होते ही एक ने दूसरे को पहिचान लिया. हमारे नौजवान को मालूम हो गया कि ये हमारे दुश्मन के आदमी हैं और उन लोगों को निश्चय हो गया कि हमारे मालिक को इसी नौजवान के गिरफ्तारी की जरूरत है.
ये लोग जो दूर से गिनती में तीन-चार मालूम पड़ते थे वास्तव में छः आदमी थे जो हर तरह से मजबूत और लड़ाई के सामान से दुरुस्त थे. ढाल-तलवार के अलावे सभों के कमर में खञ्जर और हाथ में नेजा था. उन सभों में से एक ने आगे बढ़कर नौजवान से कहा, बड़ी खुशी की बात है कि आप स्वयम् हम लोगों के सामने चले आए. कल से हम लोग आपकी खोज में परेशान हो रहे हैं बल्कि सच तो यों है कि ईश्वर ही ने हम लोगों को यहाँ तक पहुंचा दिया और यहाँ आपका सामना हो गया. क्षमा कीजिएगा, आप हमारे अफसर और हाकिम रह चुके हैं इसलिए हम लोग आपके साथ बेअदबी नहीं करना चाहते मगर क्या करें मालिक के हुक्म से लाचार हैं, जिसका नमक खाते हैं. इस बात को हम लोग खूब जानते हैं कि आप बिल्कुल बेकसूर हैं और आप पर व्यर्थ ही जुल्म किया जा रहा है, परन्तु.....

नौजवान: ठीक है, ठीक है, मेरे प्यारे गुलाबसिंह ! मैं तुम्हें अभी तक वैसा ही समझता हूं और प्यार करता हूँ क्योंकि तुम वास्तव में नेक हो और मुझ से मुहब्बत रखते हो. तुम बेशक मुझे गिरफ्तार करने के लिए आये हो और मालिक के नमक का हक अदा किया चाहते हो, अस्तु मैं खुशी से तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि मुझे गिरफ्तार करके अपने मालिक के पास ले चलो, परन्तु क्षत्रियों का धर्म निबाहने के लिए मैं गिरफ्तार न होकर तुमसे लड़ाई अवश्य करूँगा, इसी तरह तुम्हें भी मेरा मुलाहिजा न करना चाहिए.
गुलाब.: ठीक है, बेशक ऐसा ही चाहिए, परन्तु (कुछ सोच कर) मेरा हाथ आपके ऊपर कदापि न उठेगा ! मुझे अपने जालिम मालिक की तरफ से बदनामी उठाना मंजूर है परन्तु आप ऐसे बहादुर और धर्मात्मा के आगे लज्जित होना स्वीकार नहीं है. हाँ मैं अपने साथियों को ऐसा करने के लिए मजबूर न करूँगा, ये लोग जो चाहें करें.
यह सुनते ही गुलाबसिंह के साथियों में से एक आदमी बोल उठा, नहीं नहीं, कदापि नहीं, हम लोग आपके विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकते और आपकी ही आज्ञापालन अपना धर्म समझते हैं. सज्जनों और धर्मात्माओं की आज्ञा पालने का नतीजा कभी बुरा नहीं होता !

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