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भूतनाथ - भाग 1

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4853
आईएसबीएन :81-85023-56-5

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भूतनाथ - भाग 1


औरत: वास्तव में हम लोग बहुत दूर निकल आए.

मर्द: अब हमें किसी का डर भी नहीं है.
औरत: है तो ऐसा ही परन्तु घोड़ों की तरफ से जरा-सा खुटका होता है, क्योंकि हम दोनों के मरे हुए घोड़े अगर कोई जान-पहिचान का आदमी देख लेगा तो जरूर इसी प्रान्त में हम लोगों को खोजेगा.
मर्द: फिर भी कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि उन घोड़ों को भी हम लोग कम-से-कम दो कोस पीछे छोड़ आए हैं.
औरत: बेचारे घोड़े अगर मर न जाते तो हम लोग और भी कुछ दूर आगे निकल गए होते.
मर्द: यह गर्मी का जमाना, इतने कड़ाके की धूप और इस तेजी के साथ इतना लम्बा सफर करने पर भी घोड़े जिन्दा रह जायं तो बड़े ताज्जुब की बात है !!
औरत: ठीक है, अच्छा यह बताइए कि अब हम लोगों को क्या करना होगा ?
मर्द: इसके सिवाय और किसी बात की जरूरत नहीं है कि हम लोग किसी दूसरे राज्य की सरहद में जा पहुँचें. ऐसा हो जाने पर फिर हमें किसी का डर न रहेगा, क्योंकि हम लोग किसी का खून करके नहीं भागे हैं, न किसी की चोरी की है, और न किसी के साथ अन्याय या अधर्म करके भागे हैं, बल्कि एक अन्यायी हाकिम के हाथ से अपना धर्म बचाने के लिए भागे हैं. ऐसी अवस्था में किसी न्यायी राजा के राज्य में पहुँच जाते ही हमारा कल्याण होगा.
औरत: निःसन्देह ऐसा ही है, फिर आपने क्या विचार किया, किसके राज्य में जाने का इरादा है ?
मर्द: मुझे तो राजा सुरेन्द्रसिंह का राज्य बहुत ही पसन्द है, वह राजा धर्मात्मा और न्यायी हैं तथा उनका राज्य भी बहुत दूर नहीं है, यहाँ से केवल तीन ही चार कोस और आगे निकल चलने पर उनकी सरहद में पहुँच जायेंगे.
औरत: वाह वाह ! तो इससे बढ़ कर और क्या बात हो सकती है ! आप यहाँ क्यों अटके हुए हैं ? आगे बढ़ कर चलिए, जहाँ इतनी तकलीफ उठाई वहाँ थोड़ी और सही.

मर्द: मैं भी इसी खयाल में हूँ मगर अपने नौकरों का इन्तजार कर रहा हूँ क्योंकि उन्हें अपने से मिलने के लिए यही ठिकाना बताया हु्आ है.
औरत: जब राजा सुरेन्द्रसिंह की सरहद इतनी नजदीक है और रास्ता आपका देखा हुआ है तो ऐसी अवस्था में यहाँ ठहर कर नौकरों का इन्तजार करना मेरी राय में तो ठीक नहीं है.
मर्द: तुम्हारा कहना ठीक है और नौगढ़ का रास्ता भी मेरा देखा हुआ है परन्तु रात का समय है और इस तरफ का जंगल बहुत ही घना और भयानक है तथा रास्ता भी पथरीला और पेचीदा है, सम्भव है कि रास्ता भूल जाऊँ और किसी दूसरी ही तरफ जा निकलूँ. यदि मैं अकेला होता तो कोई गम न था मगर तुमको साथ लेकर रात्रि के समय भयानक जानवरों से भरे हुए ऐसे घने जंगल में घुसना उचित नहीं जान पड़ता. मगर देखो तो सही (गर्दन उठा कर और गौर से नीचे की तरफ देख कर) वे शायद हमारे ही आदमी तो आ रहे हैं ! मगर गिनतीमें कम मालूम होते हैं.


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