लोगों की राय

सदाबहार >> कर्बला

कर्बला

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4828
आईएसबीएन :9788171828920

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

448 पाठक हैं

मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।

नवाँ दृश्य

[दोपहर का समय। हानी का मकान शरीक एक चारपाई पर पड़े हुए है। मुसलिम और हानी फ़र्श पर बैठे हैं।]

शरीक– जियाद अब आता ही होगा। मुसलिम, तलवार को तेज रखना।

हानी– मैं खुद उसे क़त्ल करता, पर जईफ़ी ने हाथों में कूबत बाकी नहीं रखी।

शरीक– इसमें पसोपेशे की मुतलक जरूरत नहीं। हक की हिमायत के लिये, इस्लाम की हिमायत के लिये, कौम की हिमायत के लिये, अगर खून का दरिया बहा दिया जाये, तो उसमें फरिश्ते वजू करें। औलिया की रूहें उसमें नहाएंगी। जो हाथ हक की हिमायत में न उठे, वह अंधी आँखों से, बुझे हुए चिराग से, दिन के चांद से भी ज्यादा बेकार है। इस्लाम की खिदमत को इससे बेहतर मौका आपको फिर न मिलेगा– शायद फिर कभी किसी को न मिलेगा। कूफ़ा और बसरा पर कब्जा करके यजीद की बड़ी-से-बड़ी फ़ौज का मुकाबला कर सकते हैं। यजीद की खिलाफ़त इस्लाम को दुनियादारी और इस्लाम की तरफ ले जायेगी और हुसैन की खिलाफ़त हक और सच्चाई की तरफ। क्या यह आपको मंजूर है कि यजीद के हाथों इस्लाम तबाह हो जाये।

[जियाद आता है, और मुसलिम बग़ल की कोठरी में छिप जाते हैं।]

जियाद– अस्सलामअलेक या शरीक, तुम्हारी हालत तो बहुत खराब नजर आती है।

हानी– कल से आँखें नहीं खोली। सारी रात कराहते गुजरी है।

शरीक– खुदा फरमाता है– हक के वास्ते जो तलवार उठाता है, उसके लिये जन्नत का दरवाजा खुला हुआ हुआ है।

जियाद– शरीक, शरीक! कैसी तबीयत है?

शरीक– शौक कहता था कि हां, हसरत यह कहती थी, नहीं; मैं इधर मुश्किल में था, कातिल उधर मुश्किल में था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book