लोगों की राय

सदाबहार >> कर्बला

कर्बला

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4828
आईएसबीएन :9788171828920

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

448 पाठक हैं

मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।

सातवाँ दृश्य

[कूफ़ा के चौक में कई दुकानदार बातें कर रहे हैं।]

पहला– सुना, आज हज़रत हुसैन तशरीफ लेनेवाले हैं।

दूसरा– हां, कल मुख्तार के मकान पर बड़ा जमघट था। मक्का से कोई साहब उनके आने की खबर लाए हैं।

तीसरा– खुदा करे, जल्द आवें। किसी तरह इन जालिमों से पीछा छूटे। मैंने बैयत तो यजीद की ले ली है, लेकिन हज़रत आएंगे, तो फौरन फिर जाऊंगा।

चौथा– लोग कहते थे, बड़ी धूमधाम से आ रहे है। पैदल और सवार फौजें हैं। खेमे वगैरह ऊँटों पर लदे हुए हैं।

पहला– दुकान बढ़ाओ, हम लोग भी चलें। तकदीर में जो कुछ बिकना था, बिक चुका। आकबत की भी तो कुछ फिक्र करनी चाहिए (चौंककर) अरे बाजे की आवाजें कहां से आ रही हैं?

दूसरा– आ गए शायद।

[सब दौड़ते हैं। जियाद का जलूस सामने से आता है। जियाद मिंबर पर खड़ा हो जाता है।]

कई आवाजें– मुबारक हो, मुबारक हो, या हज़रत हुसैन!

जियाद– दोस्तों, मैं हुसैन नहीं हूं। हुसैन का अदना गुलाम रसूल पाक के कदमों पर निसार होने वाला नाचीज खादिम बिन जियाद हूं।

एक आवाज– जियाद है, मलऊन जियाद है।

दूसरा– गिरा दो मिंबर पर से; उतार दो मरदूद को।

तीसरा– लगा दो तीर का निशाना। ज़ालिम की जबान बन्द हो जाय।

चौथा– खामोश, खामोश। सुनो, क्या कहता है?

जियाद– अगर आप समझते हैं कि मैं जालिम हूं, तो बेशक मुझे तीर का निशाना बनाइए, पत्थरों से मारिए, क़त्ल कीजिए, हाजिर हूं। जालिम गर्दन जदनी है और जो जुल्म बर्दाश्त करे, वह बेग़ैरत है। मुझे ग़रूर है कि आप गै़रत है, जोश है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book