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			 सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
[एक कासिद का प्रवेश] 
क़ासिद– अस्सलाम अलेक या इनाम, बिन जियाद ने मुझे कूफ़ा से आपकी खिदमत में भेजा है। 
यजीद– खत लाया है? 
क़ासिद– खत इस खौफ से नहीं लाया कि कहीं रास्ते में बाग़ियों के हाथ गिरफ्तार न हो जाऊं। 
यज़ीद– क्या पैगाम लाया है? 
क़ासिद– बिन जियाद ने गुजारिश की है कि यहां के लोग हुजूर की बैयत कबूल नहीं करते, और बगावत पर आमादा हैं। हुसैन बिन अली को अपनी बैयत लेने को बुला रहे हैं। तीन क़ासिद जा चुके हैं मगर अभी तक हुसैन आने पर रजामंद नहीं हुए, अब शहर के कई रऊसा खुदा जा रहे हैं। 
यजीद– बिन जियाद से कहो, जो आदमी मेरी बैयत न मंजूर करे, उसे कत्ल कर दें। मुझसे पूछने की जरूरत नहीं। 
रूमी– दुश्मन के साथ मुतलिक रियायत की जरूरत नहीं। जियाद को चाहिए कि तलवार का इस्तेमाल करने में दरेग़ न करे। 
हुर– मुझे खौफ़ है कि बगावत हो जायेगी। 
रूमी– सजा और सख्ती यही हुकूमत के दो गुर हैं। मेरी उम्र बादशाहत के इंतजाम ही में गुजरी है, इससे बेहतर ओर कारगर कोई तदवीर न नज़र आई। खुदा को भी अपना निज़ाम क़ायम रखने के लिए दोज़ख की जरूरत पड़ी। दोज़ख का ख़ौफ ही दुनिया को आबाद रखे हुए है। उसका रहम और इंसाफ फ़कीरों और बेकसों की तसक़ीन के लिए है। ख़ौफ की सल्तनत की बुनियाद है। नरमी से सल्तनत को बक़ार मिट जाता है। जियाद से कहना, कत्ल करो, और इस तरह कत्ल करो कि देखने वालों के दिल थर्रा जाये। तीरों से छिदवाओ, कुत्तों से नुचवाओ, जिंदा खाल खिंचवाओ, लाल लोहे से दाग़ दो। जो हुसैन का नाम ले, उसकी ज़बान तालू से खींच ली जाये। वह सजा नहीं, जो सख्त न हो। 
यजीद– मैं इस हुक्म की ताईद करता हूं। जा, और फिर ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिये मेरे आराम में बाधा न डालना। 
[कासिद का प्रस्थान] 
			
						
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