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सदाबहार >> कर्बला

कर्बला

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4828
आईएसबीएन :9788171828920

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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।


वलीद– तुम जाकर बाहर ठहरो (दिल में) खुदा वह दिन न लाए कि मुझे रसूल के नवासे के साथ यह घृणित व्यवहार करना पड़े। वलीद इतना बेदीन नहीं है। खुदा रसूल को इतना नहीं भूला है मेरे हाथ गिर पड़े इसके पहले कि मेरी तलवार हुसैन की गर्दन पर पड़े। काश, मुझे मालूम होता है अमीर मुआविया की मौत इतनी नज़दीक है, उसकी आंखें बंद होते ही मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा, तो पहले ही इस्तीफा देकर चला जाता। मरवान की सूरत देखने को जी नहीं चाहता, मगर इस वक्त उसकी मर्जी के खिलाफ। काम करना अपनी मौत को बुलाना है। वह रत्ती-रत्ती खबर यजीद के पास भेजेगा। उसके सामने मेरी कुछ भी न सुनी जायेगी। ऐसा अफ़सर, जो मातहतों से डरे, मातहत से भी बदतर है। जिस वजीर का गुलाम बादशाह का विश्वासपात्र हो, उसके लिये जंगल से ऊँट चराना उससे हजार दर्जे बेहतर है कि वह वजीर की मसनद पर बैठे।

(गुलाम को बुलाता है)

गुलाम– अमीर क्या हुक्म फ़र्माते हैं?

वलीद– जाकर मरवान को बुला ला।

गुलाम– जो हुक्म।

(जाता है।)

वलीद– (दिल में) हुसैन कितना नेक आदमी है। उसकी जबान से कभी किसी की बुराई नहीं सुनी। उसने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। उससे मैं क्योंकर बैयत लूंगा।

(मरवान का प्रवेश)

मरवान– इतनी रात गए मुझे आप न बुलाया करें। मेरी जान इतनी सस्ती नहीं है कि बागियों को इस पर छिपकर हमला करने का मौका दिया जाये।

वलीद– तुम्हारा बर्ताव ही क्यों ऐसा हो कि तुम्हारे ऊपर किसी कातिल की तलवार उठे। अभी-अभी कासिद मुआबिया की मौत की खबर लाया है, और यजीद का यह खत भी आया है। मुझे तुमसे इसकी बाबत सलाह लेनी है।

(खत देता है)

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