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सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
हबीब– या मौला, आप नमाज अदा फरमाएं, इस मूजी को बकने दें। इसकी इतनी मजाल नहीं है कि नमाज में मुखिल हो।
[लोग नमाज पढ़ने लगते हैं। साहसराय और उनके सातों भाई हुसैन की पुश्त पर खड़े शिमर के तीरों से उनको बचाते रहते हैं। नमाज खत्म हो जाती है।]
हुसैन– दोस्तों, मेरे प्यारे ग़मसारो, यह नमाज इस्लाम की तारीख में यादगार रहेगी। अगर खुदा के इन दिलेर बंदों ने, हमारे पुश्त पर खड़े होकर, हमें दुश्मनों के तीरों से न बचाया होता, तो हमारी नमाज हर्गिज न पूरी होती। ऐ हक़परस्तों, हम तुम्हें सलाम करते हैं। अगर्चे तुम मोमिन नहीं हो, लेकिन जिस मजहब के पैरों ऐसे हक़परजर, ऐसे इंसाफ पर जान देन वाले, जिंदगी को इस तरह नाचीज समझने वाले, मजलूमों की हिमायत में सिर काटने वाले हों, वह सच्चा और मिनजानिब खुदा है। वह मजहब दुनिया में हमेशा कायम रहे और नूरे इस्लाम के साथ उसकी रोशनी भी चारों तरफ फैले।
साहसराय– भगवन् आपने हमारे प्रति जो शुभेच्छाएं प्रकट की हैं, उनके लिए हम आपके कृतज्ञ हैं। मेरी भी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि जब कभी इस्लाम को हमारे रक्त की आवश्यकता हो, तो हमारी जाति में अपना वक्ष खोल देने वालों देने वालों की कमी न रहे। अब मुझे आज्ञा हो कि चलकर अपने प्रायश्चित की क्रिया पूरी करूं।
हुसैन– नहीं, मेरे दोस्तों, जब तक हम बाकी हैं, अपने मेहमानों में न जाने देंगे?
साहस०– हजरत, हम आपके मेहमान नहीं, सेवक हैं। सत्य और न्याय पर मरना ही हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य है। यह हमारा कर्त्तव्य मात्र है, पर किसी पर एहसान नहीं।
हुसैन– आह! किस मुंह से कहूं कि जाइए। खुदा करे इस मैदान में हमारे और आपके खून से जिस इमारत की बुनियाद पड़ी है, वह जमाने की नज़र में हमेशा महफूज रहे, वह कभी वीरान न हो, उसमें हमेशा नग़मे की सदाएं बुलंद हों, और आफ़ताब की किरणें हमेशा उस पर चमकती रहें।
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