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सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
खुदा! काश मुझे मौत आ जाती कि वह दिलखराश नज्जारा आंखों से न देख पड़ता मेरा जवान दिलेर जांबाज शौहर मौत के मुंह में जा रहा है, और मैं बैठी देख रही हूं। जमीन, तू क्यों नहीं फट जाती कि मैं उसमें समा जाऊं, बिजली आसमान से गिरकर क्यों मेरा खातमा नहीं कर देती! वह देव उन पर तलवार लिए झपटा, या खुदा मुझ नामुराद पर रहम कर। दूर हो जालिम, सीधा जहन्नुम को चला जा। अब कोई आगे नहीं आता है। हाय! जालियों ने घेर लिया। खुदा, तू यह बेइंसाफी देख रहा है, और इन मूजियों पर अपना कहर नहीं नाजिल करता। एक के लिये एक फ़ौज भेज देना कौन-सा आईने-जंग है। हाय! खुदा गजब हो गया। अब नहीं देखा जाता।
[छाती पीटकर रोने लगती है, शिमर वहब का सिर काट कर फेंक देता है, कमर दौड़कर सिर को गोद में उठा लेती है, और उसे आंखों से लगाती हैं।]
कमर– मेरे सपूत बेटे, मुबारक है यह घड़ी कि मैं तुझे अपनी आंखों से हक़ पर शहीद होते देख रही हूं। आज तू मेरे कर्ज़ से अदा हो गया, आज मेरी मुराद पूरी हो गई, आज मेरी जिदंगी सफल हो गई, मैं अपनी सारी तकलीफ़ का सिला पा गई। खुदा तुझे शहीदों के पहलू में जगह दे। नसीमा…मेरी जान, आज तूने सच्चा सोहाग पाया है, जो कयामत तक तुझे सुहागिन बनाए रखेगा। अब हूरें तरे तलुओं-तले आंखे बिछांएगी, और फरिश्ते तेरे क़दमों की खाक का सुरमा बनाएंगे।
[वहब का सिर नसीमा की गोद में रख देती है, नसीमा सिर को गोद में रखे हुए बैठ करके रोती है।]
रोशन करूंगी अपनी सवादे-नजर को मैं।
आंसू भी खश्क हो गए, अल्लाह रे सोज़े-गम,
क्योंकर बुझाऊँ आतिशे-दाग़े जिगर को मैं।
तेरे सिवा है कौन, जो बेकस की ले खबर,
आती न तेरे दर पर, तो जाती किधर को मैं।
तलवार कह रही है जवानी-कौम से–
मुद्दत से ढूंढ़ती हूं तुम्हारी कमर को मैं।
बाज आई मैं दुआ ही से, या रब कि कब तलक
करती फिरू तलाश जहां में असर को मैं।
गर-तेरी खाके दर से न मिलता यह इफ्तखार,
करती न यों बुलंद कभी अपने सिर को मैं।
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