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सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
सफवान– हम सिपाहियों को माल, दौलत, जागीर और रुतवा चाहिए, हमें दीन और आक़बत से क्या काम? संभल जाओ।
[दोनों पहलवानों में चोटें चलने लगती हैं।]
अब्बास– वह मारा। सफवान का सीना टूट गया, जमीन पर तड़पने लगा।
हबीब– सफ़वान के तीनों भाई दौड़े चले आते हैं।
अब्बास– वाह मेरे शेर! एक तलवार से लिया, दूसरा भी गिरा, और तीसरा भागा जाता है।
हबीब– या खुदा, खैर कर, हुर का घोड़ा गिर गया।
हुसैन– फौरन एक घोड़ा भेजो।
[एक आदमी हुर के पास घोड़ा लेकर जाता है।]
अब्बास– यह पीरा नासाली और यह दिलेरी! ऐसा बहादुर आज तक नज़र से नहीं गुजरा। तलवार बिजली की तरह कौंध रही है।
हुसैन– देखो, दुश्मन का लश्कर कैसा पीछे हटा जाता है। मरनेवालों के सामने खड़ा होना आसान नहीं है। दिलेरी को इंतहा है।
अब्बास– अफ़सोस, अब हाथ नहीं उठते। तीरों से सारा बदल चलनी हो गया।
शिमर– तीरों की बारिश करो, मार लो। हैफ़ है तुम पर कि एक आदमी से इतने खायाफ़ हो। वह गिरा, काट लो सिर और हुसैन की फ़ौज में फेंक दो।
[कई आदमी हुर के सिर को काटने को चलते हैं, कि हुसैन मैदान की तरफ दौडते हैं।]
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