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सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
वहब– मुतलक नहीं नसीमा। सब लोग शहादत के शौक में मतवाले हो रहे हैं। सबसे ज्यादा तकलीफ पानी की है। जरा-जरा से बच्चे प्यासे तड़प रहे हैं।
नसीमा– आह जालिम! तुझसे खुदा समझे।
वहब– नसीमा, मुझे रुखसत करो। अब दिल नहीं मानता, मैं भी हज़रत हुसैन के कदमों पर निसार होने जाता हूं। आओ, गले मिल ले। शायद फिर मुलाकात न हो।
नसीमा– हाय वहब! क्या मुझे छोड़ जाओगे। मैं भी चलूंगी।
वहब– नहीं नसीमा, उस लू के झोंको में यह फूल मुरझा जायेगा। (नसीमा को गले लगाकर) फिर दिल कमजोर हुआ जाता है। सारी राह कंबख्त को समझाता आया था। नसीमा, तुम मुझे दुत्कार दो। खुदा, तूने मुहब्बत को नाहक पैदा किया।
नसीमा– रोकर वहब, फूल किस काम आएगा। कौन इसको सूंघेगा, कौन इसे दिल से लगाएगा? मैं भी हजरत जैनब के क़दमों पर निसार हूंगी।
वहब– वह प्यास की शिद्दत, वह गरमी की तकलीफ, वह हंगामे, कैसे ले जाऊं?
नसीमा– जिन तकलीफों को सैदानियां झेल सकती है, क्या मैं न झेल सकूंगी? हीले मत करो वहब, मैं तुम्हें तनहा न जाने दूंगी।
वहब– नसीमा, तुम्हें निगाहों से देखते हुए मेरे कदम मैदान की तरफ न उठेंगे।
नसीमा– (वहब के कंधे पर सिर रखकर) प्यारे! क्यों किसी ऐसी जगह नहीं चलते, जहां एक गोशे में बैठकर इस जिंदगी का लुप्त उठाएं। तुम चले जाओगे, खुदा न ख्वास्ता दुश्मनों को कुछ हो गया, तो मेरी जिन्दगी रोते ही गुजरेगी। क्या हमारी जिंदगी रोने ही के लिये है? मेरा दिल अभी दुनिया की लज्जतों का भूखा है। जन्नत की खुशियों की उम्मीद पर इस जिंदगी को कुर्बान नहीं करते बनता। हज़रत हुसैन की फतह तो होने से रही। पच्चीस हज़ार के सामने जैसे सौ, वैसे ही एक सौ एक।
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