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सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
नवाँ दृश्य
[कूफ़ा का वक्त। कूफ़ा का एक गांव। नसीमा खजूर के बाग में जमीन पर बैठी हुई गाती है।]
गीत
यह जानती है कि दम जिस्म नातवां में नहीं।
क़फस में जी नहीं लगता है आह! फिर भी मेरा,
यह जानता हूं कि तिनका भी आशियां में नहीं।
उजाड़ दे कोई या फूंक दे उसे बिजली,
यह जानता हूं कि रहना अब आशियां में नहीं।
खुदा अपने दिल से मेरा हाल पूछा लो सारा,
मेरी जवां से मजा मेरी दास्तां में नहीं।
करेंगे आज से हम जब्त, चाहे जो कुछ नहीं।
यह क्या कि लब पै फुगां और असर फुगां में नहीं।
खयाल करके खुदा अपनी किए को रोता हूं,
तबाहियों के सिवा कुछ मेरे मकां में नहीं।
[वहब का प्रवेश]
नसीमा– बड़ी देर की। अकेले बैठे-बैठे जी उकता गया। कुछ उन लोगों की खबर मिली?
वहब– हां नसीमा, मिली। तभी तो देर हुई। तुम्हारा खयाल सही निकला। हज़रत हुसैन के साथ है।
नसीम– क्या हज़रत-हुसैन की फौज़ आ गई?
वहब– कैसी फौज़? कुल बूढ़े, जवान और बच्चे मिलाकर ७२ आदमी हैं। दस-पांच आदमी कूफ़ा से भी आ गए हैं। कर्बला के बेपनाह मैदान में उनके खेमे पड़े हैं। जालिम जियाद ने बीस-पच्चीस हजार आदमियों से उन्हें घेर रखा है। न कहीं जाने देता है, न कोई बात मानता है, यहां तक कि दरिया से पानी भी नहीं लेने देता। पांच हजार जवान दरिया की हिफा़जत के लिये तैनात कर दिए हैं। शायद कल तक जंग शुरू हो जाये।
नसीमा– मुट्ठी-भर आदमियों के लिये २०-२५ हजार सिपाही! कितनी ग़जब! ऐसा गुस्सा आता है, जिया को पाऊं, तो सिर कुचल दूं।
वहब– बस, उसकी यही जिद है कि यजीद की बैयत कबूल करो। हजरत हुसैन कहते हैं, यह मुझसे न होगा।
नसीमा– हजरत हुसैन नबी के बेटे है, कौल पर जान देते हैं। मैं होती तो जियाद को ऐसा जुल देती कि वह भी याद करता। कहती– हां, मुझे बैयत कबूल है। वहां से आकर बड़ी फ़ौज जमा करती, और यजीद के दांत खट्टे कर देती। रसूल पाक को शरआ मैं ऐसी आफ़तों के मौके के लिये कुछ रियासत रखनी चाहिए थी। तो हजरत की फौज़ में बड़ी घबराहट फैली होगी?
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