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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> धर्मसार भरत

धर्मसार भरत

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4758
आईएसबीएन :00-0000-000-0

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परम पूज्य स्वामी रामकिंकर जी महाराज के द्वारा लिखी गई धर्म पर आधारित पुस्तक

Dharmsar Bharat-

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘श्रीराम शरणं मम’’

महाराजश्री : एक परिचय

प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


सर्वपन्थाः गावः सन्तु, दोग्धा तुलसीदासनन्दन।
दिव्यराम-कथा दुग्धः, प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे  पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।
 
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।  

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग  प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो  जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

रामायणम ट्रस्ट पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदास जी को पढ़ा जा सकता है और उन्हीं की वाणी से उन्हें सुना भी जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदास के हृदय को समझ पाना असम्भव है।

रामायणम् आश्रम अयोध्या जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों मत-मतान्तरों वाले लोग साहित्य प्राप्त करने आते हैं, तो महाराजश्री के प्रति वे ऐसी भावनाएं उड़ेलती हैं मानों कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरित मानस के पूरे घटनाक्रम को और प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और घटनाएँ आपके जीवन का सत्य हैं। हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन का परिचय देते हैं।

रामायणम, ट्रस्ट के सचिव श्री मैथिलीशरण शर्मा ‘भाईजी’ विगत 29 वर्षों से महाराजश्री की साहित्यिक सेवा का प्रमुख कार्य देख रहे हैं। इतने वर्षों से मैं यही देखती हूँ कि वे प्रतिदिन यही सोचते रहते हैं कि किस तरह महाराजश्री के विचार अधिक लोगों तक पहुँचें। साथ ही उनके सहयोगी डा. चन्द्रशेखर तिवारी इस महत्कार्य को पूर्ण करने में अपना योगदान देते हैं, उनको भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूँ। रामायणम् भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूं। रामायणम् ट्रस्ट से सभी ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार प्रसार-प्रसार में जनता को दिशा एवं दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। पाठकों के प्रति मेरी हार्दिक मंगलकामनाएं !


प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी


सम्पादकीय



श्री रामकिंकर जी महाराज के टेप बद्ध प्रवचनों को लिखकर उनका सम्पादन करना एक कठिन कार्य है। यद्यपि इसकी सार्थकता इतनी है कि यह करके मुझे धन्यता का बोध होता है। सम्पादन की इस अवधि में, मेरा मानस, रामकथा के इस अप्रतिम गायक के मानवीय विचारों में तल्लीन होकर भगवतरस में जो सराबोर हुआ रहता है, उसे मैं जीवन की एक उपलब्धि मानता हूँ।

प्रस्तुत पुस्तक ‘धर्म सार भरत’ सुधी पाठकों के समक्ष रखते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। ‘धर्म सार’ प्रसंग पर महाराज के सात प्रवचन रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर में 16 जनवरी से 22 जनवरी (1968) तक विवेकानन्द जयन्ती के अवसर पर हुए थे। इन प्रवचनों को पुस्तकाकार रूप में जिज्ञासुओं की पिपासा को शांत करने के उद्देश्य से छपाया जा रहा है।

श्री भरत का चरित्र वैसे भी उदान्त है। और श्रद्धेय महाराज के मुख से प्रतिपादित होकर तो वह और भी अधिक गरिमामय सरस प्रेरणादायी बन पड़ा है। हमें विश्वास है कि आज की सत्ता लोलुपता के परिप्रेक्ष्य में श्री भरत जी के जीवन का त्याग हमारा सह मार्गदर्शन करेगा। और अपने जीवन को समाज के लिए समर्पित करने की दिशा में हमें सतत् अनुप्रेरित करता रहेगा।

स्वामी आत्मानंद

प्राक्कथन



धर्म के साथ ‘सार’ शब्द का प्रयोग कुछ महानुभावों को अटपटा-सा प्रतीत होता है। उनकी दृष्टि में धर्म स्वयं में ही इतना परिपूर्ण है कि उसके साथ सार शब्द जोड़ देने से यह भ्रांति हो सकती है कि धर्म शास्त्रों में कुछ ऐसा भी है जो निस्सार है। किन्तु गोस्वामी जी धर्मसार शब्द का प्रयोग अनगिनत प्रसंगों में करते हैं। श्री भरत् के सन्दर्भ में गुरु वशिष्ठ के द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाला यह शब्द बड़ा ही सांकेतिक है। प्रारम्भ में गुरु वशिष्ठ को ऐसा प्रतीत हुआ था कि भरत की धारणाएँ धर्म शास्त्रों की मान्यताओं से भिन्न हैं इसलिए वे उनके समक्ष विस्तार से वर्ण और आश्रम धर्म का निरूपण करते हैं। उनका उद्देश्य श्री भरत को राजधर्म की दिशा में प्रेरित करना था।

 महाराज दशरथ की मृत्यु के पश्चात् जो रिक्तता उत्पन्न हुई थीं। उसकी पूर्ति लोककल्याण के लिए अनिवार्य थी। उनकी दृष्टि में महाराज दशरथ ने भरत को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया था। अत: पुत्र धर्म पालन करते हुए वे उस पारम्परिक धर्म की रक्षा कर सकते हैं। किन्तु श्री भरत ने उत्तर देते हुए एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न प्रस्तुत किया था। क्या राज सिंहासन पर किसी व्यक्ति के आसीन हो जाने मात्र से ही सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है ? क्या इतिहास इसका साक्षी नहीं है कि अनेक राजा सिंहासनासीन होकर रक्षक के स्थान पर भक्षक बन गये। पद के मद से उनमत्त होकर प्रजा को उत्पीड़ित किया। नहुष, त्रिशुंक, बेन के रूप में ऐसे कई दृष्टांत सामने आते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी थे जो प्रारम्भ में बड़े धार्मिक प्रतीत होते थे। पर राजसत्ता ने उन्हें पथभ्रष्ट बना दिया। इसलिए उन्होंने यह प्रश्न उपस्थित किया कि आप राज्य देते हुए मेरे प्रति उदारता का प्रदर्शन कर रहे हैं या इसका उद्देश्य लोककल्याण और प्रजा का संरक्षण है ? स्वयं इसका भी उत्तर देते हुए वे धर्म के साथ एक नए शब्द का प्रयोग करते हैं-


कहऊँ साँचु अब सुनि पतिआहू।
चाहिअ धरमसील नरनाहू।।
(रामचरित मा. 2-178-1)


शील का तात्पर्य है व्यक्ति का वह गुण जो उनके स्वभाव का अंग बन चुका है और चाहकर भी उसे छोड़ पाना उसके लिए-संभव नहीं है। धर्म यदि ऊपर से आरोपित होगा तो उसे उतार देने या छोड़ देने में कोई कठिनाई नहीं होगी। किन्तु जब वह किसी के स्वभाव का अंग बन जाता है, तब वह इतना अभिन्न हो जाता है कि धर्म का परित्याग कर पाना उसके लिए संभव ही नहीं होता।

अंगद ने व्यंग्यात्मक स्वर में रावण के लिए इस शब्द का प्रयोग किया था-


कह कपि धरम सीलता तोरी।
हमहि सुनि कृत पर त्रिय चोरी।।


वे रावण के द्वारा जगज्जननी के अपहरण का स्मरण कर उसकी धर्मशीलता का उपहास करते हैं। वस्तुत: अधर्म व्यक्ति का स्वभाव बन गया है। अधर्म को धर्म मानने के अभ्यस्त हो चुके हैं। संभवत: गुरु वशिष्ठ ने श्री भरत द्वारा कहे गए इस शब्द पर गम्भीरता से दृष्टि नहीं डाली, परन्तु चित्रकूट पहुँचकर उन्हें इसका अनुभव हुआ, यही नहीं उन्होंने ऐसा भी अनुभव किया कि यह उपाधि भरत के लिए ही सर्वाधिक उपयुक्त है। धर्म का संबंध जहाँ ‘स्व’ से होता है, वही शील की अभिव्यक्ति ‘पर’ के ही संदर्भ में होती है। जहाँ स्वधर्म अपनी निष्ठा की रक्षा के लिए प्रेरित करता है-वहीं शीलवान व्यक्ति को यह चिन्ता बनी रहती है कि किस तरह से पर धर्म की भी रक्षा हो। यही भावना भरत के चरित्र में तब परिलक्षित होती है जब श्री भरत प्रभु के यह कहने पर भी कि ‘तुम जो कहोगे वही मैं करूँगा।’


भरत कहै सो किए भलाई।
अस कहि राम रहे अरगाई।।


परन्तु श्री भरत एक बार भी उनसे लौटने का अनुरोध नहीं करते। गुरु वशिष्ठ इस दृश्य को देख सुनकर कितने चकित हुए होंगे इसकी कल्पना ही की जा सकती है। इसीलिए जब वे चित्रकूट से लौटकर अयोध्या आते हैं और भरत सिंहासन पर प्रभु की पादुकाओं को प्रतिष्ठापित करने का प्रस्ताव गुरु वसिष्ठ के सामने रखते हैं तब वे भावविभोर हो जाते हैं। और उसी प्रसंग में उन्होंने भरत के लिए ‘धर्मसार’ शब्द का प्रयोग किया। उनका यह कथन ‘कि तुम जो समझोगे, जो कहोगे, जो करोगे वही धर्मसार होगा’। उनकी भावनाओं की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति थी-


समुझब कहब करब तुम्ह जोई।
धरम सारु जग होइहि सोई।।


बहुधा व्यक्ति जो समझता है, कभी-कभी उसे कह नहीं पाता, कभी कहकर कर नहीं पाता, यह अंर्तद्वन्द्व सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है ! इसके एक मात्र अपवाद तो उन्हें श्री भरत ही प्रतीत होते हैं।

धर्मसार शब्द से धर्म की महिमा कम नहीं हो जाती अपितु उसे और भी अधिक व्यापकता प्राप्त हो जाती है। स्वधर्म का अतिशय आग्रह पर धर्म का विरोधी भी तो हो सकता है। तब अधर्म और धर्म में टकराहट के स्थान पर, धर्म स्वयं आपस में ही संघर्ष का हेतु बन जाता है। बहुधा इतिहास और समाज में ऐसे अनेक दृष्टांत देखने को मिलते हैं जहाँ धर्म समाज को धारण करने के स्थान पर उसके विघटन का हेतु बन जाता है। यह प्रवृत्ति आज और भी विकृत रूप में परिलक्षित हो रही है। ऐसी स्थिति में धर्मसार भरत वह सूत्र प्रदान करता है जो मानस का महामंत्र है।


महाराज अब कीजिअ सोई।
सब कर धरम सहित हित होई।।


यही रामराज्य की स्थापना का मूल मंत्र है।
धर्मसार के संबंध में प्रवचन श्रृंखला रामकृष्ण मिशन आश्रम के सचिव ब्रह्मलीन स्वामी आत्मानन्द जी के आग्रह पर प्रस्तुत की गयी थी। उनका यह आग्रह था कि इसे प्रकाशित किया जाना चाहिए। उन्होंने संपादित प्रति मुझे बहुत वर्ष पहले ही दे दी थी। किन्तु अन्य पुस्तकों के प्रकाशन क्रम में यह ग्रंथ विस्मृत-सा हो गया। किन्तु वर्तमान समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में जब हम देश, समाज, जाति के विखंडन की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं तब इसकी उपयोगिता बहुत अधिक है, ऐसा मेरा विश्वास है।

यह ग्रन्थ स्वामी जी की स्मृति में समर्पित है। उनके समर्पित व्यक्तित्व के प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि और हो भी क्या सकती है।

रामकिंकर

प्रथम व्याख्यान



भगवान् की महती अनुकम्पा से यह सौभाग्य फिर से प्राप्त हुआ है कि इस पुनीत आश्रम में, और फिर महानतम सन्त स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती के अवसर पर, परम पवित्र श्री भरत के चरित्र की कुछ चर्चा की जाय। पिछली बार जब मैं यहाँ आया था, तब पूज्य स्वामी आत्मानन्दजी यहाँ नहीं थे, अत: एक प्रकार का अभाव-सा लगा था। इस बार उनके सान्निध्य में प्रवचन हो रहा है यह मेरे लिए और भी प्रसन्नता की बात है। तो, आइए, हम लोग स्वस्थ और और शान्तिचित्त होकर श्री भरत के चरित्र का अनुशीलन करें। आप लोग जितनी एकाग्रता और शान्ति से इसमें सहयोग देंगे, विषय उतना ही स्पष्ट हो सकेगा।

भरतजी गुरु वसिष्ठ तथा अयोध्या के नागरिकों के साथ चित्रकूट में भगवान् राम से भेंटकर अयोध्या वापस लौटते हैं। यहाँ आकर वे सोचते हैं कि नंदी ग्राम में निवास करते हुए राज्य का संचालन किया जाय। ऐसा करने से पूर्व वे गुरु वसिष्ठ से आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक समझ उनके पास जाते हैं और प्रणाम करके कहते हैं- ‘यदि मेरा कार्य अनुचित न हो और आप उसे धर्म के अनुकूल समझें, तो मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं नंदीग्राम में रहते हुए राज्य का संचालन करूँ।’ भरतजी के इन वचनों को सुन गुरु वसिष्ठ भाव में विह्वल हो जाते हैं और बड़े अनुराग-भरे शब्दों में कह उठते हैं- ‘भरत ! तुम मुझसे आज्ञा माँगते हो और मुझसे पूछते हो कि तुम्हारा कार्य धर्मानुकूल होगा या नहीं; तो सुनो, मैं धर्म की एक नयी परिभाषा बनायी है-


समुझब कहब करब तुम्ह जोई।
धरम सारु जग होइहि सोई।।2।322/8

 
   

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