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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....


सुभाष के मन में गंभीर अंतर्द्वद्व उठने लगे। वे अपने जीवन का लक्ष्य निधारित नहीं कर पा रहे थे। अपने माता-पिता के प्रति उनके दृष्टिकोण में महान अंतर आ गया और अब वे उनकी आज्ञा का अनुपालन बिना सोचे समझे नहीं करते थे। कभी-कभी तो उनके मन में आज्ञा उलंघन की भावना भी जाग्रत हो जाती थी। उनका समय दीर्घकालीन सैर और सम विचार के युवकों के साथ विचार-विमर्श में अधिक व्यतीत होता था।

सुभाष अभी केवल 15 वर्ष के ही थे जब उन पर दूसरा महत्वपूर्ण प्रभाव स्वामी विवेकानंद और उनके स्वामी रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा का पड़ा। स्वामी विवेकानंद से उन्होंने यह शिक्षा ग्रहण की कि मानव जाति की सेवा ही देश सेवा है और स्वामी रामकृष्ण परमहंस से उन्होंने अध्यात्मिक जीवन के लिए वासना और स्वर्ण के परित्याग का भाव ग्रहण किया।

इन दोनों महापुरुषों की शिक्षाओं ने किशोर सुभाष के अंदर आध्यात्मिक आंदोलन उत्पन्न कर दिया।

अंततोगत्वा सुभाष को मार्ग मिला। उनका अंतद्वंद्व समाप्त हुआ और उनकी आत्मा में एक नवीन आदर्श का प्रकाश उदय हुआ। वे सांसारिक एषणाओं का परित्याग करके मोक्ष प्राप्त करने चाहते थे। ऐसी स्थिति आ गई कि उनके माता-पिता उन पर जितने प्रतिबंध लगाते उतना ही अधिक वे उनका विरोध करते। अब वह साधुओं का सान्निध्य प्राप्त करने, योगाभ्यास करने एवं आध्यात्मिक विषयों पर विचार-विमर्श करने में अधिक रुचि लेते थे।

सोलह वर्ष की अवस्था में सुभाष ने ग्रामों में पुनर्निमाण कार्य करने का अनुभव प्राप्त किया। अपने विद्यार्थी जीवन में सुभाष ने राजनीतिक परिपक्वता का परिचय नहीं दिया था क्योंकि उनका झुकाव उस समय दूसरी दिशा में था। वे अपने बड़े भाइयों से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संबंध में बहुधा सुनते थे परंतु इसका उन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता था। वास्तव में उनके घर में राजनीति बच्चों के लिए परहेज की वस्तु समझी जाती थी परंतु उनके भाइयों ने अपने कमरों की दीवारों पर क्रांतिकारियों के चित्र लगा रखे थे।

अपने विद्यार्थी जीवन के अंतिम दिनों में उनकी धार्मिक मनोवृत्ति और अधिक तीव्र हो गई। इस कारण उनके लिए पाठ्य विषयों के अध्ययन का महत्व कम हो गया। धर्म और योग में निष्ठा के कारण वे अपने कार्य और दैनिक परिचर्या में स्वतंत्रता चाहते थे। अत: वे अपने माता-पिता के आदेशों का विरोध करने लगे। आज्ञा उलंघन का एक कारण यह भी था कि विवेकानंद की शिक्षा के अनुसार उन्हें यह विश्वास हो गया था कि विद्रोह के बिना आत्म-सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। अब वे उदंड, सनकी और जिद्दी प्रतीत होने लगे। अपने अध्ययन की उपेक्षा करना और विभूति रमाये साधुओं के पीछे दौड़ना उनकी परिचर्या बन गई थी। अत: उनके अभिभावकों ने सोचा कि उनके वातावरण में परिवर्तन उनके लिए लाभप्रद सिद्ध होगा। इसके लिए कलकत्ता का वातावरण अच्छा समझा गया।

सोलह वर्ष की आयु में 1913 में सुभाष ने मैट्रिक की परीक्षा कटक से उत्तीर्ण की और कलकत्ता विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। शीघ्र ही उन्हें कलकत्ता भेज दिया गया परंतु वे अपने भविष्य के संबंध में पहले ही निश्चय कर चुके थे।

घिसे पिटे सामान्य रास्ते पर चलना उनके जीवन का उद्देश्य नहीं था अपितु उनका आदर्श था स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति और मानवता के कल्याण की प्रक्रिया में अपने को उत्सर्ग करना।

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