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सामाजिक >> अकाल सन्ध्या

अकाल सन्ध्या

रामधारी सिंह दिवाकर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :289
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4530
आईएसबीएन :81-263-1288-2

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ग्रामीण जीवन के कुशल कथा-शिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर का यह उपन्यास ‘अकाल सन्ध्या’ बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहे गाँवों का प्रामाणिक दस्तावेज है।

Akaal Sandhya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ग्रामीण जीवन के कुशल कथा-शिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर का यह उपन्यास ‘अकाल सन्ध्या’ बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहे गाँवों का प्रामाणिक दस्तावेज है। ध्वस्त होती सामन्ती ग्रामीण व्यवस्था के बरअक्स जो नयी समाज-व्यवस्था उभर रही है, उसके शुभ-अशुभ पक्षों को कथाकार ने पूरी तन्मयता से उकेरा है। स्थापित मान-मूल्य टूट रहे हैं, लेकिन इनकी जगह जो नयी समाज व्यवस्था सामने आ रही है उसमें सामाजिक मूल्यों की वापसी के चिन्ताजनक संकेत परेशान करने वाले हैं। जनतान्त्रिक चेतना से दीप्त और बदलाव के लिए बेचैन गाँव के इस नये मानस के अन्तर्विरोधों को कथाकार ने गहरी मानवीय संवेदनाओं से चित्रित किया है। उपन्यास में दलित-यथार्थ का वह अनुद्घाटित पक्ष भी खुलकर समाने आया है जिससे हम अक्सर आखें चुराते रहे हैं। गाँव के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन से लेखक की गहरी आत्मीयता, सरोकार और संलग्नता का प्रमाण है यह उपन्यास। इसकी एक बड़ी विशेषता है इसका कथा-प्रवाह और कुछ ‘टिपिकल’ चरित्रों की सृष्टि। डालडा सुराजी, महाबीर मियां, बीपी अकेला, खड़कू, झा आदि चरित्र स्मृति पर अमिट निशान छोड़ जाते हैं। गाँव की प्रवंचित आबादियाँ गलत-सही रास्तों से कभी भूलती-भटकती और कभी सधे कदमों से चलती हुई आज जिस मुकाम तक अपने अस्तित्व की लड़ाइयाँ को ले आयी हैं, वे लड़ाइयाँ अभी जारी हैं। श्री दिवाकर गाँव पर लिखने वाले अन्य लेखकों से इस अर्थ में भिन्न और विशिष्ट हैं कि उन्होंने अतीत राग से मुक्त होकर आज के बनते हुए गाँव की कथा वहाँ की बोली-बानी से सिक्त भाषा में लिखी है। समकाल का संवाहक और नये युग का संकेतनक ‘अकाल सन्ध्या’- गतिशील ग्रामीण यथार्थ को कार्यान्वित करने का एक मानक प्रयास। सुपरिचित कथाकार रामधारीसिंह दिवाकर को ग्रामीण पृष्ठभूमि पर कथा कहने का अच्छा माद्दा है। ‘अकाल सन्ध्या’ के अनेक पात्रों में से एक महत्वपूर्ण पात्र है ‘माई’, जो अपने गाँव और समाज का पूरा व्यक्तित्व समेटे हुए हैं। माई का बेटा नन्दू पढ़-लिखकर अमेरिका चला जाता है और कुछ दिनों बाद वह अपने पूरे परिवार को भी ले जाता है। अकेली रह जाती है तो सिर्फ माई। यह है आज के पढ़े-लिखे भारतीय समाज का चित्र।.... प्रतिभाएँ पलायन कर रही हैं और भारतीय राजनीति कम पढ़े-लिखे लोगों के हाथ में सौंपी जा रही है। हमारे प्रगतिशील समाज की पंगु मानसिकता..कितनी खतरनाक ! लेखक ने उपन्यास के जरिए बिहार के ही नहीं, भूरी भारतीय राजनीति के चित्र का उघाड़ा है, जिससे आप यह अन्दाजा लगा सकते हैं कि राजनीति करने की मुहिम में आज हमारे गाँव किस कदर डूबे हुए हैं।...पश्चिमी की विस्तारवाद की नीतियों से लेकर भारतीय राजनीति और उसमें साँस लेते समाज की सशक्त अभिव्यक्ति।

लालपटोरी नदी और सीमेंट का पुल


सूखी नदी पर सीमेंट का पुल ! नीचे बहती रेत की नदी !...नहीं, रेत की भी कहीं नदी होती है ? भरम होता है माई को। सूरज की चमक रोशनी में बालू का विस्तार नदी की धारा-जैसा दिखता है।
लेकिन एक नदी थी यहाँ !...‘‘सुनते हो, हो बबलू ? यहाँ एक नदी थी। लालपटोरी नदी।’’ इंटर साइंस में पढ़ने वाले बबलू को नानी की ऐसी बेमतलब की बातों में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। उसने बड़े बेमन से हूँ-हाँ में नानी को जवाब दिया और पुल के दाएँ-बाएँ बालू के विस्तार में झौआ और आक के पौधों की झाड़ियों को देखने लगा। झाड़ियाँ उजली धूप पर दागों की तरह दिखाई पड़ती थीं।

माई बबलू को बताना चाहती थीं लालपटोरी नदी के विषय में। बताना चाहती थीं इस नदी की कथा। रिक्शेवाले ने माई से कहा, ‘‘इस नद्दी को सिन्हुरिया नद्दी कहते हैं हम लोग।’’
‘‘दोनों नाम हैं-लालपटोरी और सिन्हुरिया, दोनों नाम हैं। जानते हो काहे नाम पड़ा सिन्हुरिया ?’’ माई रिक्शेवाले से पूछती हैं। रिक्शेवाला हाँफता हुआ रिक्शा खींच रहा था, बात क्या करता। माई बोलीं, ‘‘उधर उत्तर की तरफ इसी नदी को कजरी नदी कहते हैं। कहीं कजरी, कहीं कारी कोसी। इधर वही नदी लालपटोरी नदी हो जाती है।’’ माई बबलू की तरफ देखने लगीं, ‘‘जानते हो बबलू, काहे नाम पड़ा लालपटोरी ?’’
बबलू को क्या लेना-देना नाम-वाम से ! बस नानी का मन रखने के लिए उसने यों ही पूछ लिया, ‘‘हाँ कहो। काहे नाम पड़ा ?’’
माई नदी के बलुआही कछार की ओर देखती जैसे अपने आप से कहने लगीं, ‘‘लालपटोरी नदी के साथ एक कथा है, महुआ घटवारिन की कथा।’’

महुआ घाट की घटवारिन थी। अति सुन्दरी। उसकी थी सौतेली माँ ! बाप रे !...फूटी आँखों नहीं सुहाती थी सौतेली बेटी ! डाइन थी डाइन। बेच दी सौतेली बेटी को एक सौदागर के हाथ। लेकिन महुआ को क्या पता कि वह बिक चुकी है। वह तो रास्ता देख रही थी उस राजकुमार का जो उसके आँचर में उड़हुल के फूल देकर गया था और बोला था कि तुम मेरी राह देखना। महुआ माँ बेटी से बोली कि चलो नदीं पार बिसहरी का मेला देखने भोली-भाली बेचारी महुआ। क्या पता कि उसकी राक्षसिनी माँ क्या कर रही है। महुआ ने सोलहों सिगांर किये और चली बिसहरी का मेला देखने। नदी पार किया, लेकिन आगे सुनसान। कहीं मेला-ठेला नहीं। सामने उस पार सौदागर था। सौदागर महुआ को पकड़कर ले चला। बीच में नदी थी। नदी में नाव। नाव नदी के बीच में पहुँची कि महुआ कूद गयी बीच मझधार में। आँचल के फूल नदी में तैरने लगे। नदी में डूब गयी महुआ। हाथ मलता चला गया सौदागर। उसके बाद उसी घाट पर राजकुमार जयसिंह सूरा आया। कुछ ही दिन पहले जयसिंह ने महुआ के आँचल में उड़हुल के फूल रखते हुए कहा था, ‘‘मैं नेपाल जा रहा हूँ महुआ। मेरे पिता को नेपाल के राजा ने कैद कर लिया है। मैं अपने पिता को जेल से छुड़ाने जा रहा हूँ। यदि मैं युद्ध में मारा गया तब तो कोई बात नहीं, यदि जिन्दा रहा तो लौटूँगा इसी घाट से। तुम मेरी राह देखना। तुम्हारे आँचल में ये फूल दिये जाता हूँ। इन्हें सँजोकर रखना। लौटते समय मैं तुमसे विवाह कर अपने महल में ले जाऊँगा।’’

लेकिन महुआ तो नदी में छलाँग लगा चुकी थी। जयसिंह को जब पता चला कि महुआ इसी घाट पर डूबी है, उसने अपने साथ लाया सिन्दूर नदीं में फेंक दिया, ठीक उसी जगह जहाँ डूबी थी महुआ। फैल गया नदी के पानी पर सिन्दूर। नदी लाल हो गया, एकदम सिन्दूरी।....
तभी से इस नदी का पानी लाल है। अचरज की बात ! ‘सिरा’ में इसी नदी का पानी सियाह है, एकदम लाल और ‘भाटा’ में लाल है, उड़हुल फूल-जैसा ! सिन्दूरी। लाल पटोरी ! महुआ घाट से कारी कोसी की धारा लाल हो जाती है।
बबूल ने माई की कही कथा आधी सुनी, आधी नहीं सुनी। माई ने रिक्शेवाले से पूछा, ‘‘तुम तो यहीं के रहने वाले हो न ?’’ पाइडिल पर पैर मारते हुए रिक्शेवाले ने कहा, ‘‘हाँ वही का हूँ मालकिन ! इसी शहर में घर है अपना।’’
‘‘तब तो जानते होंगे कि एक नदी थी यहाँ।’’
‘‘हाँ, थी एक नद्दी ! सावन-भादों में एक नद्दी हो जाती है आज भी। बाकी महीनों में बस पतली-सी धार बहती है।’’
‘‘हाँ, सूख जाती है नदी, लेकिन पूरी सूखती नहीं, पतली-सी धार बहती रहती है बारहों महीने।’’
माई नदी के पलार पर बालू के उजले विस्तार को उदास आँखों से देखती रहीं। बालू-ही-बालू। सीमान्त पर ताड़-खजूर के जगंल और उसके आगे नीला आकाश। उतरते चैत महीने का आखिर पहर। चटक धूप थी उजली-चमकीली। उस तिर्यक धूप में बालू के कण कभी-कभी चिंगारियों की तरह चमक-उठते थे-पानी में जैसे सफरी मछली तैर रही हो।
पुल के उस पार कोलतार की सड़क टूटी हुई थी। जहाँ-तहाँ गड्ढे थे। माई ने बबलू से कहा, ‘‘रे बबलू रिक्शे से उतर जा। रास्ता खराब है।’’

बबलू रिक्शे पर बैठा रहा और माई को इस तरह देखता रहा जैसे उसने कुछ सुना ही न हो।
‘‘सुना नहीं तुमने ?’’ माई ने बबलू को इस बार आदेश-जैसा दिया।
‘‘रिक्शे से क्यों उतरूँ नानी ? रिक्शेवाला तो खींच ही रहा है। कहाँ बोल रहा है कुछ।’’
‘‘तेरा मन कुछ नहीं बोल रहा है क्या ? देखते नहीं, बेचारा रिक्शा खींचते खींचते हाँफ रहा है ?’’
गाँव तक जाने वाली पक्की सड़क देखकर माँ को घबहा कुत्ते की याद आयी। घाव से भरी देहवाला कुत्ता। सड़क पर ईंट के टुकड़े रोड़े और गड्ढे। पूरी तरह एक टूटा हुआ रास्ता। भग्न पथ। रिक्शेवाला हाथ से खींचे जा रहा था रिक्शा और कह रहा था, ‘‘आप बैठ जाइए माँ जी।’’ लेकिन माई बैठी नहीं, न बबलू को रिक्शे पर बैठने दिया।
पुल के पास हार टोला जिसे मियाँ टोली भी कहते हैं लोग। बहुत पहले आठ-दस परिवार थे हाजी टोले में, अब सकैड़ों घर हैं।
हाजी टोले के बाद सड़क कुछ ठीक थी। रिक्शेवाले ने माई से कहा, ‘आइए, अब बैठ जाइए रिक्शे पर।’’ लेकिन माई बैठीं नहीं। चलती रहीं रास्ते के किनारे-किनारे। पीछे-पीछे नाती बबलू।
हाजी टोले के बाद थोड़ी दूर का सुनसान, फिर सरेह ! बाध-बन, पेड़-पौधे। उसके बाद बड़का गाँव का शिव मन्दिर, फिर बड़का टोले के बड़े लोगों के घर। इसी टोले में गाँव के नामी जमींदार बाबू हरिवंश शर्मा के बेटे सुरवंश शर्मा की हवेली है। हवेली की बड़ी मालकिन हथुआ इस्टेट वाली।

माई के हाथ जोड़कर शिव मन्दिर को प्रणाम किया। याद आया कि पहली विदाई में गाँव आयीं थीं तब इसी मन्दिर के पास कहारों ने डोली रखी थी-मन्दिर में शिवजी के दर्शन कर लें दुलहिन।
शिव मन्दिर के आगे जहाँ सड़क अपने गाँव की तरफ मुड़ती है, उसी मोड़ के आगे है कबिराहा मठ। बीच में अमराई। माई ने आँखें उठाकर उधर देखा। बहुत पुराना है कबिराहा मठ। माई को याद आया कि इसी मठ में रहती थी मायराम दसिन, खड़ाऊँ पहनती थी। उजली धोती में उसका जवान साँवला शरीर। एकदम खलीफा लगती थी देखने में। बात-बात में मुँह से गन्दी-गन्दी मर्दाना गालियाँ निकलतीं थीं-मठ के साधु-सन्त डर से सुकपुक करते थे। बाद में किसी साथ के साछ कहीं चली गयीं।

कटिहार में बेटी निर्मला के घर महीने भर रहकर लौटी हैं माई। लौटने लगी तो कोई साथ आने को तैयार नहीं था। आखिर बबलू को माँ-बाप की फटकार पड़ी तब जाकर माई को गाँव तक पहुँचाने के लिए तैयार हुआ। डेढ़-दो साल पहले भी बबलू ही माई को पहुँचाने आया था।
शाम हो गयी टोले तक पहुँचते-पहुँचते। माई का घर भी तो बबुआन टोले के एकदम अन्तिम छोर पर है।
खपरैल के दालान में महाबिर मियाँ मन मारे बैठा था। शायद ऊँघ रहा था। माई को जैसे ही उसने रिक्शे से उतरते देखा, अचानक ऐसा लगा जैसे बुझते दीये में तेल डाल दिया गया हो। झपटता हुआ वह रिक्शे के पास आया और मुस्कराते हुए माई के पैरों पर झुक गया। अन्दर से सौखीलाल की घरवाली निकल आयी। फिर उसके दोनों बच्चे आ गये।
सौखीलाल अपने बाल-बच्चों और घरवाली के साथ माई के घर में ही रहता है। पुश्तैनी मजदूर है सौखी इस परिवार का। पहले उधर खवास टोली में रहता था। नन्दू के बाबूजी के इन्तकाल के बाद जब नन्दू भी अमेरिका चला गया और माई एकदम अकेली पड़ गयीं तब सौखी का परिवार माई का परिवार हो गया।

माई घर के अन्दर नहीं गयीं। दालान के सामने बबलू के साथ खड़ी कुछ सोचती रहीं। ठीक ही कहता था रिक्शेवाला कि शाम हो जाएगी पहुँचते-पहुँचते। आखिर हो गयी शाम। अब तो लौट नहीं सकेगा रिक्शेवाला। माई ने सौखी की घरवाली से कहा, ‘‘अरे, रिक्शेवाले को पानी-वानी दे गोड़-हाथ धोने के लिए।’’ सौखी की घरवाली सामने के कुएँ की तरफ देख रही थी और कहना चाहती थी कि सामने वहाँ कुआँ तो है ही।
कहना नहीं पड़ा। रिक्शेवाला कुएँ पर चला गया और हाथ-मुँह धोकर दालान में आ गया। लालटेन आ गयी थी, हालाँकि अभी पूरा अँधेरा नहीं हुआ था। माई ने रिक्शेवाले से कहा, ‘‘आज रात को यहीं रह जाओ बेटा। दिन-समय खराब है। पुल के पास चोर-चिहार-बटमार रहते हैं। रह जाओ आज भर।’’
बबलू रिक्शेवाले से चिढ़ा हुआ था। चिढ़ का कारण मिरचाईबाड़ी चौक पर भाड़े को लेकर हुई किचकिच थी। बीस रुपये से कम पर गाँव आने के लिए रिक्शेवाला तैयार नहीं हो रहा था।
दालान में गुमसुम बैठे रिक्शेवाले को सौखीलाल की घरवाली टिनहा थाली में खाना दे गयी, रोटियाँ और थोड़ी-सी तरकारी। माई आगे कुएँ की जगत के पास खड़ी थीँ। उनके मन में जाने क्या आया कि रिक्शेवाले के सामने परोसी हुई थाली देखने चली गयीं।

देखा तो रोटियाँ और थोड़ी-सी तरकारी। उन्होंने आँगन की तरफ जाती सौखीलाल की घरवाली से कहा, ‘‘अरे पुरैनीवाली, खीर भी बनी है न ? खीर क्यों दी इसको ?’’ सौखीलाल की घरवाली अन्दर से कटोरे में खीर ले आयी और रिक्शेवाले की थाली में कटोरे को इस तरह उलटा जैसे छूत की बीमारी से ग्रस्त किसी भिखारी को कुछ खाने के लिए दे रही हो।
रात में माई दालान मे आयीं तो देखा, रिक्शेवाला खाट पर सो रहा था। उसकी नाक ऐसे बज रही थी जैसे जाँते में कुछ पीसा जा रह हो। बगल की चौकी पर महाबिर मियाँ लेटा था। माई ने महाबिर से कहा, ‘‘रे महाबिर, रिक्शा उधर कुएँ के पास लगा है, देखते रहना। गाँव में तो लोग अब हल-बैल तक चुराने लगे हैं। बेचारा रिक्शेवाला गरीब आदमी है। कहीं कोई रिक्शा चुरा ले गया तब क्या होगा ! ऐसा करो कि रिक्शा गुड़काते हुए यहाँ ले आओ दालान के पास। सामने रहेगा। रात में जागकर सोना। देखते रहना।’’

रिक्शेवाला इन सारी बातों से बेखबर फोंफ काट रहा था। माई भुनभुनाती हुई आँगन की तरफ जाने लगीं-चोर-चुहाड़ बढ़ गये हैं गाँव में। अब कोई साइकिल भी दुआर पर नहीं रखता। बेचारा रिक्शेवाला...।

अन्दर आँगन में गयीं। टॉर्च की रोशनी में अपने कमरे का किवाड़ देखा। वही बिलैये वाला किवाड़। स्मृति में हल्की-सी तरंग उठी। हवा के शीतल स्पर्श से जैसे स्फुरण हो आता है शरीर में। सोचने लगीं, बिलैये वाला यह किवाड़ अभी तक चल रहा है जैसे चलती आ रही है जिनगी। कितने बरस हो गये ! नन्दू का जनम भी नहीं हुआ था तब। खपरैल वाला यह घर बना था नया-नया, पुराने घर को तोड़कर और बगान के पुराने शीशम के तख्ते से नन्दू के बाबूजी ने ये चौखट-किवाड़ बनवाये थे। इन्हीं के साथ यह पलंग भी बना था। बहुत पीछे के छूटे, धुँधले हो चुके समय पर सोचती हुई माई सो गयीं।
सूर्योदय के पहले कचपचिया चिड़यों के शोर के साथ जब माँ की आँखें खुलीं तो सबसे पहले वे बाहर दुआर पर आयीं। रिक्शा सही-सलामत था। रात में न जाने कब उलटदास आया था। उधर चौकी के एक कोने पर सोया हुआ था। सौखी गाय और दोनों बैलों को गोहाल से निकाल कर बथान पर ले जा रहा था और पराती गुनगुना रहा था:
‘‘भोर भई पंछी बन बोले
जागहु नन्ददुलारे।....’’
पहर भर दिन चढ़ आया। रिक्शेवाला लौटने के लिए तैयार था। सौखीलाल का आग्रह था कि अब दुपहरिया का भोजन-भात हो ही जाय तब जाय रिक्शेवाला। माई ने भी कहा, ‘‘कवनो हड़बड़ी न हो खाना खाकर ही जाओ बेटा।’’
रिक्शेवाला हँसने लगा, ‘‘दू पैसा कमाई नहीं होगी तो कैसे चलेगा घर-परिवार ?’’
माई के कहने पर सौखीलाल ने सूत्त, प्याज, हरी मिर्च, नमक और पानी भरा लोटा लाकर रिक्शेवाले के सामने रख दिया। छककर खाया रिक्शेवाले ने। माई ने रिक्शेवाले के गमछे में थोड़ा-सा सत्तू बँधवा दिया, ‘‘रास्ते में खा लेना।’’
बगल के कस्बे की दूरी गाँव से पाँच-छह किलोमीटर से ज्यादा नहीं है। अब जाकर माई ने रिक्शेवाले का नाम पूछा।
‘‘गनौरी ! गनौरी महतो।’’

माई ने पूरा पता लिया। महुआ टोली, बिजली घर के पास, बनर्जी बाबू वकील के मकान के पीछे।
‘‘अब कभी आऊँगी कस्बे में तो तुम्हारे ही रिक्शे से लौटूँगी।’’
बगल में खड़ा बबलू माई की बातों पर मुस्करा रहा था। बातों पर नहीं। मूर्खता पर! बेमतलब की इस आत्मीयता पर। उसने धीरे से कहा, ‘‘तुम भी हद करती हो नानी ! इस मजदूर रिक्शेवाले से इतना पूछ-ताछ करने की क्या जरूरत थी ? रिक्शेवाले ने पैसे लेकर तुमको पहुँचा दिया। बात खत्म।’’ माई ने अपने नाती को देखा और उसी की तरह मुस्कराने लगीं, बोलीं कुछ नहीं। बबलू शायद नानी का वह मन्तव्य समझ गया जो बोला नहीं गया था।

रिक्शेवाले को विदा करने माई के साथ सौखीलाल, उसकी घरवाली, महाबिर मियाँ और उलटदास कोलतार की सड़क तक आये। रिक्शेवाले ने सत्तू बँधे गमछे को हैंडिल में बाँधा और दोनों हाथ जोड़कर कहा, ‘परनाम मालकिन ! परनाम !’’
रिक्शेवाला प्रणाम करके रिक्शे पर बैठने ही वाला था कि पीछे से माई को फिर सुनाई पड़ा, ‘‘परनाम मालकिन !’’ माई ने मुड़कर देखा और पहचानने की कोशिश करने लगीं, ‘‘अरे बुद्धन ! बुद्धन माँझी !’’
‘‘हाँ मालकिन, बुद्धन ! मुसहर टोले का बुद्धन !’’
‘‘कहाँ जा रहे हो बुद्धन ?’’
‘‘हाजी टोला। तीन-चार दिन का काम मिल गया है माटी-भराई का।’’
माई ने रिक्शेवाले को रोका, ‘‘रे बेटा, इसको चढ़ा लो रिक्शे पर। हाजी टोले के पास उतर जाएगा। उधर जा ही रहे हो।’’
बुद्धन लजा गया, ‘‘नयी मालकिन, छोड़ दीजिए।’’
‘‘अरे, पैसे नहीं माँगेगा रिक्शेवाला।’’ माई हँसती हुई बोलीं। बुद्धन को असमंजस में खड़े देख रिक्शेवाले ने ही कहा, ‘‘आइए, बैठिए। उधर ही जाना है।’’

बुद्धन माँझी को देख माई को एक पुरानी बात याद आ गयी। यही बुद्धन माँझी है मुसहर टोले का। पियक्कड़ नम्बर एक। अनपढ़, गँवार। लेकिन इसने पूरी सभा को चुप कर दिया था। सबकी बोली हिरन हो गयी थी। यही बुद्धन माँझी था।
...इसी गाँव के हाई स्कूल के मैदान में सभा हुई थी। बहुत पहले की बात है, पच्चीस-तीस साल हो गये। कोई मुसलमान प्रोफेसर अपने कॉलेज के लड़कों की टोली लेकर आये थे। गाँव की समस्याओं के बारे में हर टोले में जा-जाकर कुछ सवाल पूछते थे ओर लिखते जाते थे। रोज रात में नाटक, गीत-नाद होता था स्कूल के मैदान में। आखिरी दिन सभा हुई थी। गाँव के सभी टोलों के लोग शामिल हुए थे। तरुण मास्टर प्रोफेसर साहब के कालेज के साथी थे। उनके कारण गाँव के लोगों ने पूरा सहयोग किया था-शामियाना, कुर्सी-बेंच सब कुछ दिया था गाँव वालों ने। चमरटोली की ढोल-पिपही भी बजी थी।
शाम में नन्दू के बाबूजी जब सभा में लौटे थे तब अकेले में उन्होंने बुलाकर कहा था, ‘‘एक अजब बात हुई नन्दू की माँ आज की सभा में।’’
‘‘क्या ?...क्या हुआ ?’’
मुस्कराते हुए कहने लगे थे नन्दू के बाबूजी, ‘‘मुसहर टोले का वह जो पियक्कड़ है न बुद्धन माँझी ! उसने तो गाँव के बबुआन टोले और बड़का टोले का पानी उतार दिया भरी सभा में।’’
‘‘हुआ क्या ? क्या बात हुई ?’’...अपने सवाल को याद करती हुई माई को अकस्मात् लगा कि वे पति के लम्बे शरीर के पास खड़ी हैं और उनके कन्धे तक पहुँचने वाली अपनी ऊँचाई से उनका मुस्कराता हुआ चेहरा देख रही हैं।
‘‘अरे क्या कहूं ! प्रोफेसर साहब सभा में बोलने के लिए जैसे ही खड़े हुए कि बुद्धन माँझी जो सबसे पीछे जमीन पर बैठा था, अचानक जोर से बोला, ‘‘हजूर, हमको कुछ पूछे के है।’’

सारे लोग मुड़कर बुद्धन को देखने लगे। प्रोफेसर साहब ने कहा, ‘‘आइए बुद्धन भाई, यहाँ आइए मंच के पास।’’
लड़खड़ाता हुआ बुद्धन मंच चला गया और बोला, ‘‘हमको दू बात पूछे के है हजूर। बस सिरिफ दू बात। हम छौ-सात दिन से आप लोगन का भासन सुन रहे हैं। आप कहते हैं कि राज बदलेगा। गरीब का राज आएगा। तरह-तरह के सवाल पूछते हैं आप लोग। मुदा हमको दू गो सवाल पूछे के है।’’ सभा में बैठे लोग बुद्धन को देखने लगे थे एकटक ! आखिर क्या पूछना चाहता है यह पियक्कड़ ? क्यों समय बर्बाद कर रहा है।

‘‘जानती हो नन्दू की माँ, बुद्धन माँझी के वे दो सवाल पूछते क्या थे ?... बुद्धन ने पूछा-‘‘हमको साहब खाली यह बता दीजिए हजूर कि जब आप लोगन का राज आएगा तो क्या ‘पैला’ मे जो आँटा सटा रहता है, वह हटा दिया जाएगा ?’’...
प्रोफेसर साहब नहीं जानते थे कि ‘पैला’ क्या होता है और उसमें कैसे सटा होता है। आँटा।। तरुण मास्टर ने प्रोफेसर साहब को समझाया-बनिहारी देने के लिए एक प्याला-जैसा होता है जिससे चावल, गेंहूँ, धान, मडुआ, मकई वगैरह बनिहार को दिया जाता है। उसी में आँटे का लोंदा साट दिया जाता है ताकि अन्न कम अँटे पैले में !
‘‘और हमारा दूसरा सवाल हजूर ई है’’ बुद्धन माँझी बेझिझक बोल गया, ‘‘कि आप लोगन का राज आएगा तो क्या बाबू-बबुआन के लड़के जो हमारे टोले में आकर अपना जाँच करते हैं कि ऊ शादी के लायक हुए हैं। कि नहीं...क्या यह बन्द हो जाएगा ? बस इहे दूर गो सवाल हजूर। और कुछ नहीं। और कुछ नहीं।’’

...कई वर्षों के बाद बुद्धन माँझी को देख माई को याद आ गये उसके दोनों सवाल। मन में आया कि फुर्सत में रहता बुद्धन तो उससे पूछतीं कि पच्चीस-तीस साल पहले जो दो सवाल तुमने पूछे थे, उनके जवाब क्या तुमको मिल गये बुद्धन ? रात तो आ गया उन्हीं लोगों का। तरुण मास्टर कहते हैं कि वही प्रोफेसर साहब अब उप मुख्यमन्त्री बन गये हैं। जुग-जमाना बदल गया। चली गयी बाबू-बबुआनों की शान। खंडहर हो गयी बड़का टोले की बड़ी हवेली। बबुआन टोले के बाबू साहब जमीन बेच-बेचकर खा रहे हैं। दुसाध टोली, चमरटोली और सोलकन टोले राज-पाट चलाने लगे हैं। हाकिम-हुक्काम बन गये हैं। क्या बुद्धन माँझी को अपने दोनों सवालों के जवाब मिल गये ?... लेकिन बुद्धन माँझी चला गया था। माई ने सोचा कि फिर कभी मुलाकात होगी बुद्धन से तो वे पूछेंगी।

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