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वर्णाश्रम

रामधारी सिंह दिवाकर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3332
आईएसबीएन :81-7016-664-0

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सामाजिक संरचना एवं राजनीतिक मूल्यहीनता पर आधारित पुस्तक

Varnashram

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सामाजिक संरचना में राजनीतिक मूल्यहीनता और नैतिकता के ह्रास ने पूरी जनतांत्रिक व्यवस्था में विचित्र-सी खलबली पैदा कर दी है। क्रमशः ध्वस्त होती जा रही सामाजिक व्यवस्था में सब कुछ न पूर्णतः स्वीकारात्मक है, न नकारात्मक। सामाजिक परिवर्तन की दिशाएँ शुद्ध और विरुद्ध दोनों ओर क्रियाशील हैं। ऐसे संक्रमण काल में हिन्दी कहानी अपनी जातीय परंपरा और आकस्मिक रुप से परिवर्तित मान-मूल्यों के बीच कथ्य, शिल्प और भाषा के स्तर पर जो उपस्थापन कर रही है, उसकी अनुगूँज स्पष्ट सुनी जा सकती है। रामधारी सिंह दिवाकर अपनी कहानियों में इसी संक्रमण को बारीकी से पकड़ने की कोशिश करते हैं। समाज में आ रहे बदलाव के श्वेत-श्याम पक्षों को इन्होंने अपनी कहानियों में पूरी साफगोई से उकेरा है।

वर्णाश्रम संग्रह की कहानियों में गतिशील ग्रामीण यथार्थ को उसकी बहुस्तरीय परतों में पहचानने की जो कोशिश है, वह दिवाकर जी की निजी पहचान है। इसी स्तर पर वे अपने समकालीनों से पृथक् और विशिष्ट हो जाते हैं। रेणु के बाद ग्रामीण जीवन में आ रहे परिवर्तनों को एक सचेत रचनाकार की हैसियत से रामधारी सिंह दिवाकर ने उकेरने का कलात्मक प्रयास किया है। साक्षी हैं प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ।


वर्णाश्रम



पंडित वचेश्वर झा की प्रसन्नता की ओर-छोर नहीं था। हाथ में एक हज़ार रुपए का मनीऑर्डर फॉर्म लिए वे स्वयं में समा नहीं रहे थे। मनीऑर्डर की जो कटिंग डाकिए ने उन्हें दी थी उसमें उनके पुत्र गुणानन्द का आह्लादित और आश्वस्त करता एक वाक्य यह भी था-‘माँ भगवती की कृपा से अब प्रतिमाह मनीऑर्डर भेजता रहूँगा।...’
युग-युग जिओ ! सुपुत्र ! युग युग जिओ ! शतायु भव !....शक्ति के परमोपासक पंडित वचेश्वर झा दालान की ‘ओलती’ के नीचे खड़े देवी भगवती के ध्यान में लीन हो गए-

सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽ स्तुते।।....


उनके उन्मीलित नेत्रों के समक्ष जैसे साक्षात् भगवती ही अवतरित हो गई थीं। शुभ और मंगल-कामना के श्लोक वे गुनगुनाते रहे-


करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:।।....


उनकी ध्यान मुद्रा तब टूटी, जब वैशाख महीने के तीसरे पहर की तपती धूप छिन्न-भिन्न छप्पर की राह आकर उनके गंजे सिर पर ऊधम मचाने लगी। उन्होंने दालान की छप्पर देखी और मुस्कराए। सहसा उन्हें सुखद विभ्रम-सा हुआ कि फूस की यह गिरने-गिरने को हो आई दालान सीमेंट-कंक्रीट के पक्के मकान में बदल गई है।

दहलीज लाँघते हुए वे अंदर आँगन में गए। पंडिताइन ओसारे पर बैठी चावल की खुद्दियों में से कंकण बीन रही थी। माँ की बगल में बैठी पुत्री कलावती मूँज की डाली-मउनी बीनने में व्यस्त थी। छोटी पुत्री लीलावती अंदर खाट पर लेटी हुई थी।
पंडित वचेश्वर झा चुपचाप ओसारे की छाँह में जाकर खड़े हो गए और उद्ग्रीव-से होकर इस प्रकार ध्यानस्थ हो गए, जैसे अपर लोक की अंतर्यात्रा कर रहे हों। विचलित और चकित पंडिताइन सूप में खुद्दियों को ज्यों का त्यों छोड़ पति को देखने लगी, क्या हो गया इनको ? कलावती भी मूँज और टेकुनी हाथों में लिए आश्चर्यित अपने पिता को देखने लगी। स्वयं में इस तरह निमग्न पिता कभी दिखे नहीं। क्या हो गया इनको ?

घबराई हुई-सी पंडिताइन पति के पास आई और उनको झकझोरती हुई बोली, ‘‘क्या बात है ? बोलते क्यों नहीं ?’’ पंडितजी के चेहरे पर अपूर्व आभा-सी थी। दाहिनी मुट्ठी खोलते हुए उन्होंने आंतरिक प्रसन्नता से रूँधी आवाज में कहा, ‘‘देखो....गुणानंद ने रुपए भेजे हैं- पूरे एक हजार और यह भी लिखा है कि देवी माँ की कृपा से प्रतिमाह रुपए भेजता रहूँगा।’’
‘‘तो नौकरी हो गई गुणानंद की।’’ पंडिताइन का बीमार चेहरा एकाएक खिल उठा।
पंडितजी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘हुई ही समझो। वैसे अभी स्थायी नहीं हुई है, लेकिन हो ही जाएगी। सब देवी भगवती की कृपा है।’’

प्रसन्न्ता से भरी पंडिताइन की धँसी आँखों में दुर्दिन की अंतिम विदाई का भाव उभर आया, ‘‘हाँ, सब माँ भगवती की कृपा है। दीजिए रुपए। याद नहीं, कब देखे थे एक हजार रुपए। दीजिए, पहले गौरी को अर्पित कर पूजा-अर्चना कर आऊँ।’’ प्रसन्न मुख पंडितजी ने एक हजार रुपए पंडिताइन के हाथ में रख दिए। पंडिताइन ने हँसती हुई आँखों में कुछ देर रुपयों को निहारा और कलावती को देती हुई बोली, ‘‘हाथ-मुँह धोकर आती हूँ।’’
कुएँ पर हाथ-मुँह धोकर लौटती पंडिताइन देवी मैया के भजन गुनागुना रही थी। कुछ ही देर बाद पूजा-घर में भगवती की प्रार्थना के स्वर गूँज उठे-

‘जय अंबे गौरी, मैया जब अंबे गौरी।
तुमको निसदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।
कोटिक चन्द्र दिवाकर ....’

पंडित वचेश्वर झा ओसारे पर खड़े सोचते रहे-सब देवी भगवती की कृपा है, लेकिन इस कृपा का माध्यम तो बना है बिलट महतों का बेटा अगमलाल। क्यों न बिलट महतो को अभी इसी समय धन्यवाद दे आऊँ ! उन्हीं की पैरवी से अगमलाल ने नौकरी दिलाई गुणानंद को। बाप की पैरवी न होती तो लाल-जैसा ‘चलती’ वाला अफसर गरीब ब्राह्मण को नौकरी दिलाता ? चपरासी की नौकरी हुई तो क्या, यह नौकरी भी कहाँ मिलती है ! कितने तो बी.ए., एम.ए. वर्षों से सड़क नाप रहे हैं। फिर संस्कृत की मध्यमा परीक्षा उत्तीर्ण गुणानंद को दूसरी नौकरी क्या मिल सकती थी ? कुछ भी है, है तो सरकारी नौकरी।

नहीं, बिलट महतो को धन्यवाद दे ही आना चाहिए। जजमान हैं। शूद्र हैं तो क्या, हैं भले आदमी ! बेचारे अपने ‘खर्चे’ से गुणानंद को पटना ले गए। अपने बेटे के पास रख दिया। पौने दो साल गुणानंद ने अगमलाल का ‘अन्न-पानी’ खाया है। कम बड़ी बात है यह ?
पुरोहिती की गगनवृत्ति पर जीवन-यापन करने वाले पंडित वचेश्वर झा ने जीवन में पहली बार शूद्र बिलट महतो के प्रति कृतज्ञता का अनुभव किया।
सोलकन टोले के बिलट महतो पुश्तैनी जजमान ठहरे पंडित वचेश्वर झा के। बिलट महतो ने अपने पुरोहित को यथोचित सम्मान देने में कभी कोर-कोताही नहीं की, इस बदले युग में नहीं, जब टोले के पढ़ुआ लड़के ब्राह्मणों को लेकर तरह-तरह की जली-कटी बातें करते हैं। ‘हरनी-खगनी’ ‘बर-बेगरता’ जब भी पंडितजी ने अपने जजमान से कुछ माँगा है, बिलट महतो बिना बहाना बनाए देते रहे हैं।

इस सबके बावजूद पंडित वचेश्वर झा ने अपने ब्राह्मण होने की श्रेष्ठता को सदा सुरक्षित रखा है। जजमान की भक्ति और श्रद्धा अपनी जगह ठीक है, मगर बिलट महतो हैं तो सोलकन। हाँ, पानी चलता है उनका। अछूत नहीं हैं। उनकी रसोई का कच्चा खाना तो खैर नहीं खाया जा सकता, मगर व्रत-अनुष्ठान आदि में भर छाँक दही-चूड़ा खाकर सीधा-पानी, दान-दक्षिणा लेकर पंडितजी सहर्ष घर लौटते रहे हैं।

हालाँकि पंडितजी को अब यह प्रतीत होने लगा है कि इस जजमानी से जीवन-यापन होने वाला नहीं है। दुष्कर वृत्ति होती जा रही है पुरोहिती। सोलकनों में कठपिंगल पढ़ने वाले नवतुरिया लोगों के कारण अब धर्म-कर्म के प्रति पहले वाली आस्था नहीं रही। धर्म-कर्म, व्रत-अनुष्ठान, दान-दक्षिणा सवर्ण जजमानों के परिवारों में ही कुछ आस्था रह गई है, लेकिन इलाके में सवर्ण जजमान हैं ही कितने ? फिर एक वे ही तो पुरोहिती करने वाले नहीं हैं ? बभन टोली में पांच-छह घर इसी वृत्ति पर जीते हैं। किसी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। खैर, यह तो ब्रह्माजी का ही शाप है- पौरोहित्य कर्म करने वाले सात्त्विक ब्राह्मण को कभी संपत्ति नहीं रहेगी।

संपत्ति है भी कहाँ पंडित वचेश्वर झा को ! डेढ़ एकड़ जमीन है। आधी एकड़ जमीन जो पिछवाड़े में है, वह तो परती ही पड़ी रहती है। एक ‘बंसबिट्टी’ है उसमें बस। ‘अगवार-पिछुआर’ के लिए तो वह जरूरी ही है। बाकी एक एकड़ जमीन तो बटाई पर ही लगी है। साल-भर में कुछ अनाज पानी आ गया तो आ गया, बाकी बटाईदार की मर्जी। पंडितजी तो कभी देखने भी नहीं जाते कि जमीन में क्या लगाया है बटाईदार ने !
पंडित वचेश्वर झा बिलट महतो को धन्यवाद देने सोलकन टोली की तरफ चले तो भीतरी आह्लाद के बावजूद कुछ यादें भी थीं-विगत अपराध-भाव से जुड़ी यादें ! सोच रहे थे-किस मुँह से कृतज्ञता ज्ञापित करेंगे वे ?
बबुआन टोले में स्थित सरकारी स्कूल में बिलट महतो ने जब अगमलाल का नाम लिखाया था, तब पंडित वचेश्वर झा ने व्यंग्य करते हुए अपने जजमान बिलट महतो से कहा था, ‘‘हौ बिलटू !...अरे, अगमलाल का नाम लिखा दिया है स्कूल में। पढ़ा-लिखाकर हाकिम बनाएगा क्या बेटे को ?’’

बिलट महतो मार खाए मन को दबाते हुए बोले थे, ‘‘नहीं पंडितजी, हाकिम-हुक्काम क्या बनेंगे हमारे बच्चे। बस, थोड़ी ‘बिद्दा’ आ जाए।’’
....हालाँकि बहुत दिन हो गए इस बात को-पच्चीस वर्ष से भी अधिक। याद भी नहीं होगा बिलट महतो को....लेकिन क्या सच में उनको याद नहीं होगा ?
पंडित वचेश्वर झा को अच्छी तरह याद है-जब स्कूल के एक हरिजन शिक्षक के प्रयास से सोलकन टोली के ही नहीं, चमार टोली के भी कुछ लड़के स्कूल में आने लगे थे तो कैसी खलबली-सी मची थी बभन टोली और बबुआन टोली में ! उन्होंने तो अपनी आँखों से देखा था। अपने ही टोले के कुछ लड़के अगमलाल को सड़क पर घेरकर तंग करते थे, ‘‘रौ अगमा !...अरे, सारे कुत्ते काशी चले जाएँगे तो हड्डियाँ कौन चाटेगा रे ? राड़-सोलकन सब पढ़बे करेंगे ?’’
याद है पंडितजी को। स्कूल के हेड पंडितजी ने जब गाँव में सूचना दी कि अगमलाल वर्ग में प्रथम स्थान पाता है तो चिढ़ाने वालों की हँसी बंद हो गई थी। शिक्षकों में दो छोड़ बाकी सब तो ब्राह्मण ही थे। चाहते तो अगमलाल को वर्ग में प्रथम स्थान नहीं भी दे सकता था। बभन टोली या बबुआन टोली के किसी लड़के को प्रथम स्थान दे देते, लेकिन शायद वह युग ही कुछ दूसरा था।

और जब मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में अगमलाल ने मेरिट लिस्ट में पूरे जिले में प्रथम स्थान प्राप्त किया तो ‘पिल्ही चमकी’ बभन टोली या बबुआन टोली के लोगों की। कैथ टोली के लड़के तो परीक्षा-फल में ठीक—ठाक रहे, लेकिन बबुआन टोली और बभन टोली के कुछ लड़के द्वितीय श्रेणी में निकले और कुछ खींच-खाँचकर पास हुए। आधे से ज्यादा अनुत्तीर्ण । ऐसे अनुत्तीर्ण लड़कों ने बापों या अभिभावकों से पिटाई भी खाई, ‘‘साले, दिन-भर हीरोपनी करते रहेंगे। छोंड़ी सबके पीछे बेहाल रहेंगे। फेल नहीं करेंगे तो क्या करेंगे ? देखो तो बिलट महतो के बेटे अगमलाल को ! साला सोलकन होकर जिले में फस्ट आया है।...’’

बेटे के परीक्षा फल से बल मिला बिलट महतो को। स्कॉलरशिप भी मिली थी अगमलाल को। फिर बिलट महतो की अच्छी खेती-बाड़ी थी। सपरिवार मजदूर की तरह लगे रहते थे खेती में। किसी से पेंचा-उधार लेते नहीं थे।
अगमलाल को शहर भेज दिया पढ़ने के लिए। आई.ए. बी.ए. और एम.ए. की परीक्षाओं में भी अगमलाल ने अच्छे अंकों से उत्तीर्णता पाई। बी.पी.एस.पी. की प्रतियोगिता परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर जब अगमलाल को अफसरी मिली तो बभन टोली और बबुआन टोली में पहली बार हाय-तोबा मची। कैथ टोली के लोग तो दवात-पूजा वाली जाति के ठहरे। कहीं न कहीं, किसी न किसी नौकरी में लग ही जाते हैं, बभन टोली और बबुआन टोली से तो अब तक या तो सेना में लोग गए या शिक्षक, क्लर्क सिपाही वगैरह बने। अफसर तो कोई निकला ही नहीं इन दोनों टोलों से।

सबसे तीव्र प्रक्रिया बभन टोली में हुई। अन्तत: पंडितों ने यही सोचकर मन को संतोष दिलाया कि चलो, अगमलाल जैसे दो चार शूद्र अफसर बन भी गए तो कौन-सा पहाड़ ढह जाएगा ? राज तो ब्राह्मणों का ही है। सभी क्षेत्रों में नीचे से ऊपर तक तो ब्राह्मण ही ब्राह्मण हैं। फिर हमारी चाहे पुरोहिती वृत्ति ही क्यों न हो, हैं तो हम ब्राह्मण देवता ! सारे सामाजिक-धार्मिक विधि-निषेध तो हम ब्राह्मणों से ही सुनिश्चित होते हैं। अगमलाल चाहे कितना भी बड़ा अफसर बन जाए, रहेगा तो शूद्र ही। ब्राह्मण अनपढ़ भी रहे तो क्या, पूजनीय ही रहता है। भक्त शिरोमणि तुलसीदास की उक्ति को झुठला सकता है कोई ?


पूजिय विप्र सील गुन हीना।
नहीं सूद्र गुन ग्यान प्रवीना।..


लेकिन ये सारी बातें मन को सांत्वना तो देती थीं, मस्तिष्क को समझा नहीं पाती थीं। जिस दिन जीप लेकर अगमलाल बभन टोली के रास्ते से अपने घर आया, उस दिन सोलकन टोली में कीर्तन-भजन और भोज-भात के आयोजन हुए और बभन टोली-बबुआन टोली में चुप्पी छाई रही।

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