पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"वासुदेव कह गये हैं कि आपके प्रस्थान से पहले आ जायेंगे।"
सुदामा के मन में रात की सारी कड़वाहट एक बार फिर से जाग उठी। आ जायेगा तो क्या, न आयेगा तो क्या, सुदामा को तो जाना ही है।
पर सुदामा ने स्वयं को संयत किया। इस कटुता का तो कोई कारण नहीं है। सुदामा याचक बनकर नहीं आये थे; वे याचक बनना नहीं चाहते थे। कृष्ण ने कुछ न देकर उन्हें याचक बनने से बचा लिया था। यदि कृष्ण की ओर से कुछ देने का प्रस्ताव होता, तो सुदामा अपने प्रलोभन को कैसे रोक पाते। उनकी दुर्बलता प्रकट न हो जाती? और फिर ग्रहण करते हुए उनकी स्थिति बिना याचक के भी वही होती...याचक की। कृष्ण को कृपण और स्वार्थी मानने के स्थान पर उन्हें उसका आभारी होना चाहिए कि कष्ण ने उन्हें किसी धर्मसंकट में नहीं डाला। सदामा स्वयं को इतना स्वाभिमानी मानते हैं...क्या कृष्ण ने अब तक उनके स्वाभिमान की रक्षा नहीं की है? क्या उसने मित्र के रूप में, समभाव से उनका स्वागत नहीं किया? ठहराने, खिलाने-पिलाने और घुमाने में उसने उन्हें अपने परिवार के एक सदस्य का-सा महत्त्व नहीं दिया? दार्शनिक विवादों में क्या उसने उन्हें अपने बराबर का विद्वान् और समझदार दार्शनिक नहीं माना? ऐसे में वह अन्त में उन्हें स्वयं से हीन मानकर, उन्हें कुछ धन देता हुआ, अच्छा लगेगा क्या? सुदामा को चाहिए ही कितना? उनके जीवन-भर के लिए जितना पर्याप्त हो, उतना धन देते हुए कृष्ण को पता भी नहीं लगेगा...पर सुदामा अवश्य छोटे हो जायेंगे। मनुष्य किसी भी भाव से दे, या किसी भी भाव से ले, लेने वाले को छोटा बनना ही पड़ता है। कृष्ण ने वस्तुतः उनके स्वाभिमान की रक्षा की है।
कृष्ण ने जो भी किया हो, सुदामा ने सोचा अच्छा या बुरा...अब इस विदा के समय अकारण ही रुष्ट होकर चले जाने का क्या लाभ? जीवन में वैसे ही क्या कम कटुताएं हैं कि जिन कुछ थोड़े लोगों के साथ कुछ मधुर सम्बन्ध हैं, उन्हें भी मन के किसी आवेश में आकर नष्ट कर दिया जाये। सुदामा का सारा चिन्तन, जीवन को समृद्ध बनाने का है, उसे वंचित करने का नहीं...।
सुदामा, कृष्ण को सर्वथा भूलकर यात्रा की तैयारी करने लगे, जैसे वे कृष्ण के महल में न होकर अपने ही घर में हों। ऐसे में उन्हें यह जानने की आवश्यकता नहीं थी कि कृष्ण कहां गया है? क्यों गया है? कब आयेगा? कृष्ण का सम्बन्ध उनके समान केवल अपने लेखन-पठन से ही नहीं है। उसे अपने परिवार को देखना होता है, अपने पशुओं को देखना होता है, शासन के कार्य संभालने होते हैं, सेनाओं का ध्यान रखना पड़ता है, सुदामा नहीं जानते कि यादवों के व्यापार से कृष्ण का कितना सम्बन्ध है। सुदामा का अपना संसार क्या है : सशीला, ज्ञान, विवेक और उनकी पोथियां...।
सुदामा के मन में विचारों का प्रवाह चलता जा रहा था; किन्तु उनकी आँखों और कानों ने भी बाह्य वातावरण में कुछ नयापन अनुभव किया था। नेपथ्य में बजते हुए संगीत के समान कृष्ण के महल में कहीं-न-कहीं से लगातार आदेश देने के स्वर आ रहे थे। बड़ी संख्या में घोड़े और रथ आ और जा रहे थे। उनके आने-जाने की गति सहज नहीं थी। यह वातावरण तो गृहस्थी अथवा सहज सामाजिक गतिविधियों का नहीं था।
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