पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा अपने मन का साक्षात्कार कर रहे थे। उन्होंने याचना नहीं की थी, किन्तु वे कृष्ण से कुछ पाने के लिए ही आये थे...दार्शनिक ज्ञान नहीं, धन! धन...जिससे जीवन की सुविधाएं प्राप्त होती हैं। मुख से उन्होंने चाहे स्वीकार न किया हो; किन्तु द्वारका की यात्रा का कष्ट उन्होंने इसीलिए तो उठाया था।...द्वारका पहुंचने पर कृष्ण के सेवकों ने उन्हें प्रासाद में घुसने न दिया होता, कृष्ण ने उन्हें पहचाना न होता, पहचानने के पश्चात् भी केवल औपचारिक व्यवहार किया होता, यह आत्मीयता न दिखाई होती तो शायद सुदामा को इतना कष्ट न होता।...पर कृष्ण की उस आत्मीयता, उस मैत्री और सौहार्द्र ने सुदामा के मन में आशाओं-आकांक्षाओं का एक सुनहला संसार जगा दिया था। अपरिग्रही सुदामा को भी शायद वैभव का छुत्तहा रोग लग गया था। जब तक वे इससे दूर रहे थे, वैभव का यह संसार उनके लिए अनजाना था...तब तक की बात और थी। सुदामा के मन में वैभव की आकांक्षा ही नहीं थी। पर यहां आकर, इस वैभव को देखकर ...उनके मन में नयी संवेदनाएं और नयी भावनाएं जागी थीं। सुदामा भी कृष्ण से कम दार्शनिक नहीं थे, पर कृष्ण के विचारों का महत्त्व इसलिए अधिक था, क्योंकि उसके पास इतना वैभव था, क्योंकि वह यादवों की राज-परिषद् का सबसे अधिक प्रभावशाली सदस्य था।...कृष्ण के लिए क्या कठिन था कि वह अपने इस वैभव का एक छोटा-सा अंश सुदामा को दे देता। उसके गोठों में सैकड़ों गायें हैं। यदि सुदामा को दस-बीस गायें ही मिल जातीं, तो उनकी आजीविका का स्थायी सहारा हो जाता। गायें न सही, थोड़ा सुवर्ण, कुछ मुद्राएं या उनके ग्राम में गुरुकुल स्थापित करने की राजाज्ञा अथवा द्वारका के गुरुकुल में नियुक्ति...कुछ तो करता कृष्ण। सदामा ने सुना था पाण्डवों की राजधानी, इन्द्रप्रस्थ के निर्माण के समय कृष्ण ने अपार सुवर्ण-कोश उन्हें दिया था।...गोधन और अश्वों की तो कोई संख्या ही नहीं थी।...पर पाण्डव तो कृष्ण के भाई हैं। उनके लिए तो आज भी तड़प रहा है...ऐसे ही तो लोग, कृष्ण को छलिया नहीं कहते। जहां अपना लाभ देखता है, वहां अपने प्राण लगा देता है। कोई कम राजनीतिज्ञ है वह...पर निर्धन और निरीह सुदामा से क्या मिलना है कृष्ण को। उन्हें कुछ देने का कष्ट क्यों करेगा कृष्ण! उन्हें तो दर्शनशास्त्र की थोथी चर्चाओं में भी भरमाया जा सकता है...वही कर दिखाया कृष्ण ने...'तुम दार्शनिक हो सुदामा! तो लो दर्शनशास्त्र की गांठ बांध कर ले जाओ...।'
रात, अपनी उधेड़बुन में जाने सुदामा को कब नींद आयी पर प्रातः उठने में उन्हें देर नहीं हुई। उन्होंने कुछ आश्चर्य से देखा, कृष्ण उनसे भी पहले उठ चुका था और इस समय कक्ष में नहीं था।
सुदामा के उठने का आभास पाकर, एक परिचारक कक्ष में आ गया।
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