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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


सुदामा मौन रहे। कृष्ण भी कुछ नहीं बोले। लगा कि वे अपने भीतर के किसी आवेश को शान्त कर रहे हैं...क्रमशः वे सहज हुए। उनके चेहरे पर मुस्कान आयी, "जब सोचता हूं कि मैं यह छोटा-सा मानव शरीर नहीं हूं-मैं एक विराट व्यवस्था हूं, तो बहुत सहज नहीं रह पाता हूं।"

सुदामा को लगा, अब कृष्ण फिर से सुदामा के मित्र के रूप में वापस लौट आया है। बोले, "पर कृष्ण! इस चिन्तन में मैं बहुत बड़ा जोखिम देख रहा हूं।"

पर कृष्ण के कुछ कहने से पहले ही उनकी दृष्टि तीव्र गति से अपनी ओर आती हुई एक नौका पर पड़ी। उन्हें लगा, क्षण-भर में वह नौका उनसे आ टकरायेगी।

"वह...!" सुदामा के मुख से निकला।

कृष्ण ने भी दृष्टि उधर फेरी।

"प्रद्युम्न!" वह सहज भाव से बोले।

आने वाली नौका में अकेला प्रद्युम्न था, जिसने बड़ी दक्षता से अपनी नौका को फेरकर, उनकी नौका के साथ लगा दिया।

नौका ठहर जाने पर दुर्घटना का भय टला तो सुदामा की दृष्टि प्रद्युम्न पर पड़ी। उनके समवयस्क कृष्ण का इतना बड़ा बेटा। उनका विवेक तो इसके सामने एकदम बच्चा है।...कृष्ण ने विवाह जल्दी कर लिया था। विवाह में विलम्ब का दुष्परिणाम सुदामा भुगत रहे थे। उनके दोनों बच्चे अभी छोटे थे।

प्रद्युम्न और कृष्ण में अद्भुत साम्य था। कल उन्हें उद्धव और कृष्ण में साम्य लगा था। पर प्रद्युम्न को देखने से तो लगता था कि कृष्ण फिर से तरुण होकर उनके सामने आ खड़ा हुआ है।

प्रद्युम्न के विषय में बहुत कुछ सुना था सुदामा ने। उसके कारण कृष्ण के घर में कुछ उथल-पुथल भी थी। कुछ विरोध और शिकायतें...पर कोई किसी को दोष नहीं देता था। जीवन में हुई एक आकस्मिक घटना ने प्रद्युम्न के जीवन की धारा को बदल दिया था।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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