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उपन्यास >> न आने वाला कल

न आने वाला कल

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4420
आईएसबीएन :9788170283096

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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...


शायद वहीं भूल आया था। ऐसे में हालत यह थी कि अपने पर वश रखने के लिए मुझे बार-बार थूक निगलना पड़ रहा था। आँखों और कानों से मैं यह अनुमान लगाने की भी कोशिश कर रहा था कि उस हालत में वहाँ अकेला मैं ही हूँ या कोई और भी मेरी तरह उस यन्त्रणा में से गुजर रहा है। मेरा ख्याल है मिसेज दारुवाला की स्थिति भी वैसी ही थी। वह जैसे सर्मन से अभिभूत होकर बार-बार अपनी आँखों को रूमाल से छू रही थी। पर रूमाल आँखों के अलावा उसकी नाक और होंठों को भी ढक लेता, इससे वास्तविकता कुछ और ही जान पड़ती थी। मेरी नास्तिकता उस समय काफी बढ़ गई थी, क्योंकि मेरा समय का अनुमान तीन बार गलत निकल चुका था। आखिर सर्मन समाप्त हुआ। बाहर निकलने से पहले आखिरी प्रार्थना की जाने लगी। अपने को छींकने से रोके रहने के कारण मेरी हालत उस बच्चे की-सी हो रही थी जो कमोड की तरह भागना चाहते हुए भी बड़ों के डर से अच्छा बच्चा बना बैठा हो। पर चेपल से बाहर आते ही और जरा देर अच्छा बच्चा बने रहना मुझे सम्भव नहीं लगा। इसलिए ‘गुड नाइट मिस्टर सो एण्ड सो’, और गुड नाइट मिसेज़ सो एण्ड सो का रुटीन पूरी करना के लिए मैं कारिडोर में नहीं रुका। इसके पहेल कि मिस्टर और मिसेज़ व्हिलसर चेपल से बाहर आएँ, पीछे का रास्ता पकड़कर सड़क पर निकल आया। घर पहुँचकर अलमारी से दूसरा रूमाल निकालने तक मेरा छींक-छींककर बुरा हाल हो गया।

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