उपन्यास >> न आने वाला कल न आने वाला कलमोहन राकेश
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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...
चेपल में जो कुछ हुआ, वह नया नहीं था। कुछ साम गाए गए। पादरी ने प्रार्थनाएँ कीं। घुटनों के बल होकर आँखों पर हाथ रखे लोगों ने प्रार्थनाओं को दोहरा दिया। अन्त में पादरी बेन्सन ने सैंतीत मिनट का सर्नम दिया। स्कूल-मास्टर होने के नाते उसका सर्मन पूरे एक पीरियड का होता था...चालीस में से हाज़िरी के तीन मिनट निकालकर। मैं बगलों में हाथ दबाए उतनी देर चेपल की दीवारों और लोगों के हिलते सिरों को देखता रहा। लगातार सैंतीस मिनट बिना किसी प्रतिकिया के, एक ही आदमी की आवाज़ सुनते जाना काफी धीरज का काम था-खास तौर से एक गैर ईसाई के लिए। पर मुझे इसकी आदत हो चुकी थी। अपनी सारी स्थिरता कूल्हों और टाँगों तक सीमित किए ऊपर से बुत-सा बना बैठा रहता था। अपने को व्यक्त रखने के लिए बिना घड़ी की तरफ देखे समय का अनुमान लगाता और उसे घड़ी से मिलाकर देखता रहता था। उसी तह जैसे में सफर करते हुए एक आदमी तय किए फासले का अपना अनुमान मील के पत्थरों से मिलाकर देखता है। जितनी बार अनुमान सही निकलता, मुझे अपने में एक इण्टयूशन का अहसास होता। इण्टयूशन की वैज्ञानिकता में विश्वास, होने लगता। पर जितनी बार अनुमान गलत निकल आता, उतनी बार मन इस विषय में नास्तिक होने लगता। चेपल से उठते समय मेरी आस्तिकता या नास्तिकता इस पर निर्भर करती थी कि अन्तिम बार का मेरा अनुमान सही निकला था या गलत। पर कई बार वह कुछ दूसरे कारणों पर भी निर्भर करती थी।
चेपल के अन्दर उस पर काफी ठण्ड थी-वह खास ठण्ड जो कि एक चेपल के अन्दर ही होती है। उस ठण्ड से, अन्दर की रोशनी के बावजूद, बाहर गहरा सांझ का कुछ-कुछ आभास मिल रहा था। हालाँकि मेरे खून की तपिश उस समय भी कम नहीं थी, फिर भी मेरे हाथ पैर सुन्न हुए जा रहे थे। ठण्ड का असर नाक और माथे पर भी हो गया था, जिससे डर लग रहा था कि कहीं सर्मन के दौरान ही न छींकने लगूँ। रूमाल पास में नहीं था, यह मैं जेबों में टटोलकर देख चुका था। त्रिशूली में एक जगह हम लोग अपने-अपने रूमाल बिछाकर बैठे थे।
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