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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4267
आईएसबीएन :00000

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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक

आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश


कहावत है कि अपनी अकल और दूसरों की संपत्ति, चतुर को चौगुनी और मूरख को सौ गुनी दिखाई पड़ती रहती है। संसार में व्याप्त इस भ्रम को महामाया का मोहक जाल ही कहना चाहिए कि हर व्यक्ति अपने को पूर्ण निर्दोष और पूर्ण बुद्धिमान् मानता है। न तो उसे अपनी त्रुटियाँ सूझ पड़ती हैं और न अपनी समझ में दोष दिखाई पड़ता है। इस एक दुर्बलता ने मानव-जाति की प्रगति में इतनी बाधा पहुंचाई है, जितनी संसार की समस्त अड़चनों ने मिलकर भी न पहुँचाई होगी।

अपनी निर्दोषिता के बारे में फैले हुए व्यापक भ्रम को देखते हुए मानव जाति की मूर्खता की जितनी भर्त्सना की जाए उतनी ही कम है। सृष्टि के सब प्राणियों से अधिक बुद्धिमान् माना जाने वाला मनुष्य जब यह सोचता है कि-"दोष तो दूसरों में ही हैं, उन्हीं की निंदा करनी है, उन्हें ही सुधारना चाहिए। हम स्वयं तो पूर्ण निर्दोष हैं, हमें सुधरने की कोई जरूरत नहीं।" तब यह कहना पड़ता है कि उसकी तथाकथित बुद्धिमत्ता अवास्तविक है। चौरासी लाख योनियों में अनेकों दोष और कुसंस्कार जीव पर चढ़े रहते हैं, मनुष्य योनि में उसे यह अवसर मिलता है कि उन पिछली त्रुटियों और गंदगियों का परिष्कार कर सके, अपने को शुद्ध बनाने का प्रयत्न करे। इस शरीर का सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि उन मल-विक्षेप और आवरणों को ढूंढ-ढूँढकर देखे, जो पिछले जन्मों की दुरावस्था में उसके गले बँधे चले आये हैं। इस ढूँढ-खोज के पश्चात् इस बात का प्रबल प्रयत्न करे कि इन कुसंस्कारों को किस प्रकार हटाकर अपने को अधिक स्वच्छ-निर्मल एवं प्रगतिशील बनायें।

प्रगति की स्वाभाविक गति में सबसे बड़ा व्यवधान यह है कि मार्ग को रोकने वाली सबसे बड़ी बाधा का स्वरूप वह समझ नहीं पाता और न उसको हटाने का प्रयत्न करता है। पेट में दर्द है और सिर पर दवा मली जाए तो कष्ट कैसे दूर होगा? अपने दोष-दुर्गुणों के कारण जीवन क्रम अस्त-व्यस्त बना रहता है, पर उसका कसूर दूसरों के मत्थे मढ़ते रहा जाए तो इससे झूठा आत्म-संतोष भले ही कर लिया जाए, समस्या का हल कहाँ संभव हो सकेगा? कहते हैं कि भगवान् ने अक्ल की डेढ़ मात्रा पैदा की है, जिसमें से एक तो हर मनुष्य अपने में मानता है और शेष आधी में संसार का काम चलता है। इस दृष्टि दोष के कारण अपनी गलतियों का सुधार कर सकना तो दूर उलटे जब कोई उस ओर इशारा भी करता है तो हमें अपना अपमान दिखाई पड़ता है। दोष दिखाने वाले को अपना शुभचिंतक मानकर उसका आभार मानने की अपेक्षा मनुष्य जब उलटे उस पर क्रुद्ध होता है, शत्रुता मानता है और अपना अपमान अनुभव करता है तो यह कहना चाहिए कि उसने सच्ची प्रगति की ओर चलने का अभी एक पैर उठाना भी नहीं सीखा।

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    अनुक्रम

  1. भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
  2. क्या यही हमारी राय है?
  3. भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
  4. भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
  5. अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
  6. अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
  7. अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
  8. आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
  9. अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
  10. अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
  11. हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
  12. आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
  13. लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
  14. अध्यात्म ही है सब कुछ
  15. आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
  16. लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
  17. अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
  18. आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
  19. आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
  20. आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
  21. आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
  22. आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
  23. अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
  24. आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
  25. अपने अतीत को भूलिए नहीं
  26. महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न

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