आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाएश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक
इसके विपरीत दूसरी उथली मनोभूमि के साधक जप, भजन, पाठ, व्रत, उपवास करते भी हैं, पर वह सब होता आधे मन से है। इन प्रयत्नों का सत्परिणाम मिलेगा भी या नहीं, इस संबंध में मन में सदा शंका और अविश्वास बना रहता है। न नियमितता रहती है और न निष्ठा। जब जो जितना बन पड़ा किया, न हो सका तो छोड़ दिया। जिन नियमों, संयमों का पालन आत्मबल की वृद्धि के लिए आवश्यक है, उनके बारे में मन नाना प्रकार के कुतर्क करता रहता है। इस झंझट की क्या जरूरत? यह अडंगा बेकार का है। इन विधिविधानों से क्या लाभ? आदि। कर्तव्यों को न करने-कराने से बेचारी साधना पद्धति को ही लँगड़ी, लूली, कानी, नकटी बना लेते हैं। उस पर भी मन नहीं जमता। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में बेगार की तरह ही इस भार को उतारा जाता है। दस दिन होने भी नहीं पाते कि पर्वत के समान कामनाओं की पूर्ति का वरदान और अष्ट सिद्धि, नव निधि की ललक बेचैनी का रूप धारण कर लेती है। अभी यह नहीं मिला, अभी वह नहीं मिला, अभी कुंडलिनी जाग्रत् नहीं हुई, अभी भगवान् के दर्शन भी नहीं हो पाये। इतने दिन तो गये अब कब तक सबर करें? आदि बातें सोचने लगते हैं । असंतोष बढ़ता है और साथ ही अविश्वास भी। उपेक्षा आरंभ होती है और उसका अंत साधना के परित्याग के रूप में देखा जाता है।
जिनका दैनिक जीवन पाप, द्वेष, दुराचार, दुष्टता, अनीति में डूबा रहता है, कुविचारों से जिनका मन और कुकर्मों से जिनका शरीर निरंतर दूषित बना रहता है, उनका अंतःकरण भी गंदा रहेगा और उस गंदगी में दिव्य-तत्त्वों का अवतरण कैसे संभव हो सकेगा? साधना में शक्ति तब आती है, जब श्रद्धा और विश्वास, संयम और सदाचार का पुट भी समुचित मात्रा में लगता चले। दैनिक जीवन की पवित्रता ही इस बात की कसौटी है कि किसी व्यक्ति ने अत्यधिक तत्त्वज्ञान को हृदयंगम किया है या नहीं। यह निष्ठा जिसके भीतर उतरेगी, उसके गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठता एवं सज्जनता की मात्रा अन्य व्यक्तियों की तुलना में बढ़ी-चढ़ी ही होगी। ऐसा पवित्र और आदर्श जीवन बिताने वाले के लिए आत्मिक प्रगति नितांत सरल है। ईश्वर का दर्शन आत्म-साक्षात्कार उसके लिए जरा भी कठिन नहीं है।
इतिहास, पुराणों में ऐसी अगणित कथाएँ आती हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि सदाचारी, श्रेष्ठ आचरणों वाले और उत्कृष्ट भावनासंपन्न साधारण श्रेणी के, साधारण साधना करने वाले व्यक्तियों को योगी, यती, तपस्वी और ब्रह्मज्ञानी लोगों की भाँति ही ईश्वर अनुकंपा एवं अनुभूति का अनुभव हुआ है। कारण स्पष्ट है कि योग-साधना का उद्देश्य केवल इतना ही है कि आंतरिक दुष्प्रवृत्तियों का शमन और संयम किया जाए। चित्तवृत्तियों के निरोध को ही महर्षि पातंजलि ने 'योग' कहकर पुकारा है। यह कार्य व्यवहार के जीवन में सत्यनिष्ठा और परमार्थ बुद्धि को स्थान देने से भी संभव हो सकता है।
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- भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
- क्या यही हमारी राय है?
- भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
- भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
- अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
- अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
- अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
- आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
- अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
- अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
- हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
- आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
- लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
- अध्यात्म ही है सब कुछ
- आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
- लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
- अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
- आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
- आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
- आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
- आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
- आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
- अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
- आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
- अपने अतीत को भूलिए नहीं
- महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न