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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4267
आईएसबीएन :00000

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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक


यह बातें अचरज की नहीं, स्वाभाविक हैं। रोज ही आँखों के सामने इस प्रकार की घटनायें घटित होती रहती हैं। संस्कृत में एक उक्ति है, जिसका अर्थ है, "दैव भी दुर्बल के लिए घातक सिद्ध होता है।" जितना बल है, जीवन है, प्राण है-उसके उतने ही सहायक और प्रशंसक हैं। जब इनमें कभी आरंभ हई कि अपने, बिराने बनने लगते हैं और मित्र शत्रु का रूप धारण करने लगते हैं। दुर्बलता को देखकर अकिंचन जीव भी आक्रमण करने और आधिपत्य जमाने की चेष्टा करते हैं। रणक्षेत्र में घायल और अर्धमृत हुए सैनिकों की आँखें कौए निकाल ले जाते हैं और सियार उनका पेट चीरकर आँतें खींचते-फिरता है। यदि वह सैनिक इस दशा में न होता, स्वस्थ और जीवित होता तो इन कौए और सियारों की हिम्मत पास आने की भी न पड़ती वरन् उससे डरकर अपने प्राण बचाने के लिए भागते-फिरते। जीवित मनुष्य जिन चींटियों को पैरों से कुचलता रहता है। मृत होने पर वे ही चींटियाँ उस शरीर को नोंच-नोंचकर खाने लगती हैं। गुलाब-सा सुंदर शरीर वृद्ध या रोगी होने पर कुरूप एवं घृणास्पद बन जाता है।

यह सब बातें बताती हैं कि जब तक जीवन तत्त्व की प्रचुरता है, तभी तक इस संसार के पदार्थ उपयोगी अनुकूल एवं सहायक सिद्ध होते हैं। जब प्राण घटा तभी स्थिति बदलने लगती है और शक्ति के क्षीण होते ही सब कुछ प्रतिकूल हो जाता है। जो अग्नि मनुष्य की जीवन भर सेवा-सहायता करती रही, भोजन पकाने, सर्दी मिटाने, प्रकाश देने आदि कितने ही प्रयोजनों में जीवन संयोगिनी की तरह सहायक रही, वह अग्नि शरीर के मृतक हो जाने पर उसे जला डालने के लिए चिता की ज्वालाओं के रूप में धू-धू करती है। नौकर के बूढ़े होते ही नौकरी से हटा दिया जाता है, बूढा बैल कसाई के यहाँ अपनी गर्दन कटाने को विवश होता है, रूप और यौवन के लोभी भौंरे जवानी ढलते ही पुष्प पर मंडराना छोड़ देते हैं। निर्धन का कौन मित्र बनता है? दुर्बल की कौन प्रशंसा करता है? अशक्त को किसका आश्रय मिलता है?

जितना ही गंभीरतापूर्वक सोचा जाए, उतना ही यह तथ्य स्पष्ट होता है कि अपनी आंतरिक जीवन-शक्ति ही विभिन्न पदार्थों के ऊपर प्रभाव डालकर उन्हें चमकीला बनाती है, अन्यथा वे सब स्वभावतः कुरूप हैं। कोयला काला, कुरूप और निस्तेज है, पर जब अग्नि के संपर्क में आता है, वह भी तेज और उष्णता से भरपूर अग्नि जैसा दीखने लगता है। आत्मा ही अग्नि है। वह जिस पदार्थ के साथ जितने अंशों में घुली-मिली रहती है, वह उतना ही प्रिय-पात्र एवं हितकारी बन जाता है। आत्मा का संबंध जितना ही शिथिल होता जायेगा, वह उतना ही व्यर्थ, अप्रिय एवं अनुपयोगी लगने लगेगा।

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    अनुक्रम

  1. भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
  2. क्या यही हमारी राय है?
  3. भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
  4. भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
  5. अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
  6. अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
  7. अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
  8. आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
  9. अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
  10. अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
  11. हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
  12. आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
  13. लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
  14. अध्यात्म ही है सब कुछ
  15. आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
  16. लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
  17. अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
  18. आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
  19. आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
  20. आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
  21. आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
  22. आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
  23. अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
  24. आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
  25. अपने अतीत को भूलिए नहीं
  26. महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न

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