आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाएश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक
मैक्समूलर ने इन पंक्तियों में हमारी आध्यात्मिक शोधों की ओर संकेत किया है। इन तथ्यों का विस्तृत विश्लेषण, जिसकी अभी तक कोई थाह नहीं पा सका, वह सब हमारे वेदों में समाहित है। वेद धर्म के मूल आधार हैं। इनमें मनुष्य की आध्यात्मिक तथा भौतिक आवश्यकताओं के सभी विषयों का समावेश है। यह ज्ञान अंत में अनेकों धाराओं में प्रवाहित होकर बहा, जिससे न केवल यहाँ का आध्यात्मिक जीवन समृद्ध बना, अपितु भौतिक संपन्नता भी अपने ही अनुकूल विशेषण लेकर प्रस्तुत हुई। "इंडिया रिव्यु" में विद्वान् अमेरिकी लेखक मि० डेलभार ने लिखा है- "पश्चिमी चीजों को जिन बातों पर अभिमान है, वे सब भारतवर्ष से आयी हैं और फल-फूल, पेड़-पौधे तक जो इस समय यूरोप में पैदा होते हैं, वे भारतवर्ष से ही लाकर यहाँ लगाये गये हैं। घोड़े, मलमल, रेशम, टीन, लोहा तथा सीसे का प्रचार भी योरोप में भारतवर्ष से ही हुआ है। इतना ही नहीं ज्योतिष, वैद्यक, अंकगणित, चित्रकारी तथा कानून भी भारतवासियों ने ही योरोपियनों को सिखलाया है।"
भारतवर्ष केवल हिंदू धर्म का ही घर नहीं, उसमें संसार की सभ्यता का आदिभंडार है। यहाँ का जीवन सरल, महत्त्वपूर्ण तथा अति प्राचीन है। श्रद्धा और भक्ति, विश्वास और निश्चय से भरा हुआ यह अपना भारतवर्ष किसी समय ज्ञान-विज्ञान का सम्राट् बना हुआ था। यहाँ मनुष्य की शाश्वत आशायें और सांत्वनाएँ घनीभूत थीं। ऋषियों की गंभीरता को हृदयंगम कर पाना भी कठिन है, जिन्होंने सर्वप्रथम इस संसार में विचार और विवेक को जन्म दिया था। वास्तविक जीवन के सिद्धांतों का अनुसंधान इसी पवित्र भूमि में हुआ है। इसलिए सारे संसार ने इसे शीश झुकाया, इसकी अभ्यर्थना की है। एम० लुई जेकोलियट ने लिखा है-
"ऐ प्राचीन भारत वसुंधरे ! मनुष्य जाति का पालन करने वाली, पोषणदायिनी तुझे प्रणाम है। शताब्दियों से चलने वाले आघात भी तेरी पवित्रता को नष्ट नहीं कर पाये। श्रद्धा, प्रेम, कला और विज्ञान को जन्म देने वाली भारत-भूमि को मेरा कोटिशः नमस्कार है।"
भारतवर्ष का सम्मान और इसकी प्रतिष्ठा का मूल कारण यहाँ का धर्म है। इसे औरों ने संप्रदाय के रूप में भले ही देखा हो, किंतु वस्तुतः हिंदू धर्म का मूल सिद्धांत है—मानवीय आत्मा के गौरव को प्राप्त करना और फिर उसी के अनुसार आचरण करना। शास्त्रकार ने लिखा हैृ-
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चाऽवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात् सुनो, धर्म का सार यह है कि दूसरों के साथ वैसा व्यवहार मत करो जैसा तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे प्रति किया जाए, इसको सुनो ही नहीं आचरण भी करो।"
धर्म का यही स्वरूप सुखद व सर्वहित में है। इसमें प्राणिमात्र की जीवनरक्षा और सुखोपभोग की व्यावहारिक कल्पना है। अपने इसी रूप में हमारा अतीत उज्ज्वल, सुखी और शांतिमय रहा है। आज भी सारे विश्व को इसी की आवश्यकता है।
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- भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
- क्या यही हमारी राय है?
- भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
- भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
- अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
- अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
- अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
- आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
- अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
- अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
- हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
- आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
- लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
- अध्यात्म ही है सब कुछ
- आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
- लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
- अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
- आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
- आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
- आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
- आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
- आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
- अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
- आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
- अपने अतीत को भूलिए नहीं
- महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न