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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सफलता के सात सूत्र साधन

सफलता के सात सूत्र साधन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4254
आईएसबीएन :0000

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विद्वानों ने इन सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है, वे हैं- परिश्रम एवं पुरुषार्थ ...


आँधी-तूफान की तरह आने वाली सफलता का रहस्य जानने के लिए एक सरकारी ठेकेदार का उदाहरण ले लीजिए। वह अपना कार्य किसी ठेकेदार के पास मजदूरों की कारगुजारी देखने और लिखने के काम से शुरू करता है। मालिकों को दिखाने के लिए मेहनत करने का अभिनय तो करता है, पर साथ ही मजदूरों से मिला रहता है। किसी को आराम देकर अथवा अधिक पैसा दिलाकर कमीशन लेता है। इमारत के मसाले में गड़बड़ी करके मालिक के मुनाफे में सहायक होता है, साथ ही मौका पाकर मालिक के सामान पर हाथ साफ करता है। मजदूरों की कारगुजारी और हाजिरी में हेर-फेर करके या तो उन्हें परेशान करके नाजायज लाभ उठाता है। या सीधे-सीधे मजदूरी मार लेता है। सामान सप्लायरों से मिलकर कमीशन तय करता और घटिया माल की खपत करा देता है। अफसरों को खुश करने के लिए चाटुकारी तो करता ही है, साथ ही मालिक से रिश्वत दिलवाकर खुद भी फायदा उठाता है। इस प्रकार अपनी आर्थिक आय के अनेक स्रोत खोलकर उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। इस बीच उसे हजारों बार मजदूरों के कोप तथा आक्रोश भाजन बनना पड़ता है। मालिक से डाट और अफसरों से अपमान प्राप्त करता है। नौकरी से अलग होने की नौबत आती है तो खुशामद करना, पैर पकडना और गिडगिडाना काम आता है।

धीरे-धीरे छोटे-मोटे ठेके लेकर काम आगे बढ़ाता है। रिश्वत, बेईमानी असत्य और कपट की नीति से पैसा पैदा करके बड़ा ठेकेदार बन जाता है। फिर क्या राष्ट्र की संपत्ति हड़पता और सरकारी सड़कों, भवनों आदि में खोटा माल लगाकर खरे पैसे लेता है। कमजोर और अनुपयुक्त निर्माणों को रिश्वत के बल पर पास कराता और मालामाल बन जाता है। यह है वह रहस्य जिसके आधार पर अनेक लोग घोड़े की चाल चलकर बड़े आदमी बन जाते हैं और कोठी, कार, रेडियो, बंगले की चमक-दमक में सफल दिखाई देते हैं। आत्मा से लेकर राष्ट्र तक और लोक से लेकर परलोक तक की हानि कर बढ़ने वाले व्यक्तियों को यदि सफल माना जा सकता है। तो फिर संसार में असफल व्यक्ति किसे कहा जा सकता है-यह बात विचारणीय है। ऐसे आदर्श एवं आचरणहीन व्यक्तियों को वे लोग ही सफल मानकर प्रशंसा एवं स्पृहा कर सकते हैं जो या तो सफलता का अर्थ नहीं जानते या फिर उसी मनोवृत्ति के होते हैं। आर्थिक स्वार्थ के लिए आत्मा, स्वाभिमान, मनुष्यता तथा राष्ट्र के हित को बलिदान कर देने के बाद भी जिसे संतोष और प्रसन्नता होती है, उन्हें मनुष्य की श्रेणी में गिनने में संकोच ही होना चाहिए।

इसके विपरीत दूसरा व्यक्ति जिस काम में उतरता है, उसे ईमानदारी से करता है। न तो स्वयं अनुचित लाभ उठाता है और न दूसरे के लिए सहायक हो पाता है। नौकरी में मालिक के प्रति ईमानदार रहता है, हर प्रकार से उसके हित का ध्यान रखता है, किंतु अनुचित लाभों में सहायक नहीं हो पाता। निदान कोई उन्नति किये बिना यथास्थान पड़ा रहता है। धीरे-धीरे अपनी शुभ कमाई से मितव्ययितापूर्वक कुछ बचाता रहता है और जब थोड़ा-सा पैसा हो जाता है, तब काम को आगे बढ़ाता है। वह घूस देकर किसी दूसरे का अहित नहीं करता और न एक के बदले चार पाने का लोभ करता है; आत्मा, स्वाभिमान, राष्ट्र तथा मानवता की रक्षा करता; लोक-परलोक के रास्ते में काँटें नहीं बोता और थोडे में संतोष करता है। ऐसे ईमानदार तथा आदर्श एवं आचरणवान व्यक्ति का उन्नति की गति धीमी होना स्वाभाविक है। वह कहीं जिंदगी भर की कमाई में रहने योग्य एक अच्छा मकान बनवा पाता है। बैंक बैलेन्स, ऊँचा फर्म, लंबा चौड़ा कारोबार उसकी कल्पना एवं कामना के बाहर की बातें रहती हैं और यदि इनकी उपलब्धि होती भी है तो एक लंबे अरसे और कठिनतम परिश्रम के बाद, देखते-देखते नहीं। लगभग जीवन की पूरी अवधि सामान्य स्थिति और साधारण कारोबार में ही व्यय हो जाती है। देखने वालों को असफल एवं अनुन्नत व्यक्ति ही दीखता है किंतु वास्तव में वह कितना सफल व्यक्ति होता है, इसे विवेकशील व्यक्ति ही समझ पाते हैं।

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    अनुक्रम

  1. सफलता के लिए क्या करें? क्या न करें?
  2. सफलता की सही कसौटी
  3. असफलता से निराश न हों
  4. प्रयत्न और परिस्थितियाँ
  5. अहंकार और असावधानी पर नियंत्रण रहे
  6. सफलता के लिए आवश्यक सात साधन
  7. सात साधन
  8. सतत कर्मशील रहें
  9. आध्यात्मिक और अनवरत श्रम जरूरी
  10. पुरुषार्थी बनें और विजयश्री प्राप्त करें
  11. छोटी किंतु महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखें
  12. सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है
  13. अपने जन्मसिद्ध अधिकार सफलता का वरण कीजिए

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