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हास्य-व्यंग्य >> हीरक जयन्ती

हीरक जयन्ती

नागार्जुन

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4156
आईएसबीएन :81-7043-699-0

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कविवर मृगांक ने सोचा—बारह पाँचे साठ सौ रुपये। कम नहीं होते हैं साठ सौ रुपये। सालभर में इतनी रकम तो दस उपन्यास भी नहीं खींच सकते !

Hirak Jayanti - A Hindi Book - by Nagarjun

उद्योग-पर्व


कविवर मृगांक ने सोचा—बारह पाँचे साठ सौ रुपये। कम नहीं होते हैं साठ सौ रुपये। सालभर में इतनी रकम तो दस उपन्यास भी नहीं खींच सकते !
मनसाराम अपने आप कुलाँचें भरने लगा—जाएँगे कहाँ ? मृगांक ‘ना’ कर देगा तो दूसरा फिर ‘हाँ’ कौन करेगा ? अभिनन्दन का प्रसंग छिड़ते ही किस मिनिस्टर की जीभ लार नहीं टपकाती ?
और वह लार !

अन्दर से तीसरी आवाज आई, अनहद नाद की तीसरी किस्म—उस लार को सहेजने के लिए महापात्र की आवश्यकता पड़ती है...अपनी कीर्ति का बखान सुनना होता था तो राजा पालतू कवियों को इशारा करता था। तू किस राजा का पालतू कवि है, मृगांक ?

—मैं ? कविवर मृगांक ? पंडित मुचकुन्द मिश्र जिसका असल नाम है ? मैं पालतू हूँ किसके दिए निवाले गटकता हूँ मैं ? और, प्रजातन्त्र के इस युग में राजा भला रह कहाँ गया ! न राजा, न प्रजा। सभी पब्लिक हैं, अवाम, जन-साधारण। सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपाद्...हे कोटिशीर्ष हे कोटिबाहु, हे कोटिचरण...

लिहाफ दाहिने पैर से ऊपर सिमट गया था। बायें पैर का अँगूठा लिहाफ के अन्दर से ही मसहरी के डंडे तो छू रहा था। बाहर शुक्लपक्ष की तेहरस की गाढ़ी चाँदनी फैली थी। दीवार के तीनों रोशनदान सजग थे। जंगलों और किवाड़ों के भी काँच इस वक़्त अपनी सफाई का सबूत दे रहे थे।

—हे कोटिशीर्ष, हे कोटिबाहु, हे कोटिचरण...जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता...पंजाब, सिन्धु, गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल, बंगा...वाद्यवृन्द की सम्मिलित ध्वनि बार-बार अन्तरघट से टकराने लगी और पलंग पर लेटे रहना असम्भव हो गया।

कवि मृगांक की आत्मा विक्षुब्ध हो उठी।
बिस्तरा छोड़कर बाहर निकल आये।

एक राजस्थानी धनपति का नवनिर्मित प्रासाद था यह। सामने ठाकुरिया की मशहूर झील। पीछे लैन्सडाउन, रास-बिहारी एवेन्यू आदि इलाके, उच्चवर्गीय आबादी वाले। तिनतल्ले पर आगे की तरफ से आमने-सामने दो बड़े कमरे, बीचोबीच बरामदा।
कविजी बरामदे में चहलकदमी करने लगे।
आहट पाकर नीचे, दुतल्ले पर छोटा कुत्ता हल्की आवाज में झाँउ-झाँउ करने लगा और अगले ही क्षण चुप हो गया, प्यार-भरी फटकार सुनी तो मालकिन का अनुशासन उसने सिर झुकाकर स्वीकार कर लिया।

केन्द्रीय सरकार के किसी हिन्दी भाषाभाषी मिनिस्टर को कलकत्ता के सेठों ने परसों शाम एक भारी-भरकम अभिनन्दन-ग्रन्थ अर्पित किया था। समारोह के क्षणों में आँखों और कानों की परितृप्ति के लिए मणिपुरी नृत्य—रवीन्द्र—संगीत—काव्यपाठ आदि का समावेश प्रोग्राम के अन्दर ही था। तीन नर्तकियाँ, दो नर्तक, दो वादक, पाँच गायक-गायिकाएँ, तीन गीतकार और चार कवि...तीन-साढ़े तीन घंटे का प्रोग्राम रहा—भाषण-वाषण सहित।

मृगांकजी आमन्त्रित कवियों में से थे।
समारोह कुछ ऐसा मनहर लगा मृगांकजी को कि बस...अगर अपने यहाँ पिछले दस वर्षों के भीतर तीन-चार प्रभावशाली मन्त्रियों को अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किये जा चुके थे न !
बाबू नरपतसिंह बच गए थे। आठ-नौ वर्ष पहले उनकी बरसगाँठ मनाई थी मित्रों ने। लेकिन वह न तो जयन्ती थी, न रजत था, न स्वर्ण ! कहाँ ? वह तो कुछ नहीं था ! बस, वही हस्ब मालूम पीले फूल कनेर के !

समारोह खत्म हुआ परसों रात साढ़े आठ बजे और मृगांकजी की निगाहें अपने नए निशाने पर जमीं हैं...बाबूजी को इक्यावन हजार की थैली। पन्द्रह हजार अभिनन्दन ग्रन्थ सोख लेगा। पाँच हजार लग जाएँगे समारोह में। बची हुई निधि से एक एक-आध संस्था की बुनियाद डाली जाएगी। ललनजी को जँच जाय तो वह दिल खोलकर साथ देंगे। फिर उनकी रामसागर बाबू से कैसी घुटती है। बाबू गोपीवल्लभ ठाकुर को भी यह प्रस्ताव पसन्द आएगा। ये तीनों अपनी गुंजलक में समूची दुनिया को लपेट लेंगे...लाख-दो लाख क्या, यह त्रिमूर्ति कहीं सचमुच भिड़ गई तो नम्बरी नोटों की वर्षा होने लगेगी और फिर जादू सम्राट पी. सी. सरकार दंग रह जाएँगे।

सोचते-सोचते मृगांकजी का माथा गरम हो उठा।
सामने चाँदनी से ठाकुरिया का मैदान चमक रहा था।
महीना पूस का। सर्दी लेकिन मामूली थी, निहायत मामूली।

मृगांकजी अन्दर से माचिस और सिगरेट-केस उठा लाए। सर्दी नहीं लग रही थी, बदन पर वही एक कुर्ता काफी था।
बाहर बर्मी टाइप की दो-तीन कुर्सियाँ पड़ी थीं, बुनावट बाँस की और भीतरी ढाँचा लोहे का। टाँगें भी लोहे की। किनारों की ओर टाँगों की वार्निश का रंग सुर्ख था, बीच-बीच का रंग संदनी था।

तिनतल्ले का यह बरामदा काफी बड़ा था। दीवारों के प्लास्टर की सफेदी इस छाँह में भी चाँदनी को चिढ़ा रही थी।
मृगांकजी खाँचानुमा कुर्सी पर बैठ गए। सिगरेट निकालकर उसे होंठों के हवाले किया, माचिस जलाई।
सिगरेट से तीली भिड़ाते समय नाक दीख गई तो नुकीली नाक वाला वह युवक गीतकार निगाहों के सामने खड़ा-खड़ा मुस्कराने लगा—

(प्रणाम मृगांकजी, मुझे तो किसी ने बतलाया कि आप दिल्ली-एक्सप्रेस से चले गए !
(और तुम कब जा रहे हो, वर्मा ?
(कै बार आये हो कलकत्ता ?
(पहले दो मर्तबा आ चुका हूँ।
(क्या है यह ?...गीतों का संकलन; नहीं, कहानियों का...तो तुम गल्प भी लिखते हो ?
(जी, गल्प ही तो लिखता हूँ। गीत बीस-पचीस ही होंगे...मैं तो बस आप गुरुजनों के आशीर्वाद चाहता हूँ...मैं तो निराश हो चुका था लेकिन दर्शन हो ही गए...)

मृगांकजी का ध्यान गीतकार बादल वर्मा पर अटका हुआ था—अब कौन पूछेगा कवियों को ऐसे गीतकार के आगे ? गला है कि बाँसुरी ? जालिम गाता है कितना कमाल...मैं तेरा गला घोंट दूँगा, कहीं का नहीं रहने दूँगा मैं तुझे ! सँभल जा बच्चू !...प्रणाम मृगांकजी ! नहीं चाहिए मुझे तेरा प्रणाम-उणाम...मैं वही मुचकुन्द हूँ जिनके प्र-पितामह गोविन्दमाधव मिश्र ने अपने प्रतिद्वन्द्वी संगीताचार्य की जिन्दगी बर्बाद कर दी थी, पान वाले को मिलाकर सिन्दूर चटवा दिया था। गला बैठ गया, संगीताचार्य आजीवन रोते रहे ! मैं उसी गोविन्दमाधव का वंशधर हूँ और तू मुझे चिढ़ाने आया है ? गीतों के फरिश्तें पधारे हैं, इन पर नोटों की वर्षा हो रही है। दो-ढाई दिन कलकत्ता रहे। हजार-हजार, डेढ़-डेढ़ हजार बटोरकर घर लौट गए...अपना क्या ! समारोह के संयोजको ने हाथ जोड़ दिए और दो सौ थमा दिए, बस !

चिन्तन की बेसुधी में हाथ तिपाई की ओर बढ़ा तो सिगरेट केस नीचे गिरा सन्नाटे में उसकी आवाज कई गुना अधिक प्रतीत हुई।
सामने वाले कमरे में सेठ का मामा सो रहा था। सो उसकी नींद खुल गई और वह बाहर बरामदे में आया।
—क्या बात है, कविजी ? सारी रात जागोगे ?
—अभी तो उठा हूँ सेठजी, चार बजने वाले हैं।
हूऽऽऽऽहूँ...

सेठ के मामा ने जबड़े सिकोड़ लिए, वह जम्हाई लेता हुआ पीछे की ओर चला गया, जिधर बाथरूम था।
मृगांकजी भी पलंग पर वापस आ गए।
नरपत बाबू कलकत्ता आने पर जिस धनकुबेर की कोठी में ठहरते थे, उसके बारे में सोचते-सोचते मृगांकजी को नींद आ गई।

ललनजी, बाबू गोपीवल्लभ ठाकुर, रामसागर राय—सभी ने मृगांकजी की योजना का अनुमोदन किया।
बाबूजी ने स्वीकृति हासिल करने की जिम्मेदारी रामसागर राय और ठाकुरजी पर सौंपी गई।
मंजुमुखी देवी को मालूम हुआ तो खुशी के मारे दुहरी हो गई। बोंली—मृगांकजी, कितना बड़ा काम यह होगा ! बाबूजी की नहीं, हमारे प्रदेश की हीरक जयन्ती होगी यह...

निःसन्देह !—मृगांकजी ने कहा और भुने हुए नमकीन काजुओं की ओर निगाहें गड़ा दीं।
लीजिए—देवीजी ने कहा—चाय आ रही है।
सिल्क की सादी साड़ी और सादे ब्लाउज में कसी-लिपटी अधेड़ गंदुमी देह, कमलपत्री आँखों वाला भरा-पूरा चेहरा, जूड़े के नाम पर ढीली-ढाली-सी बालों की एक गाँठ...चप्पलों वालें पैर, नाक पर चश्मा...बस, यही थीं मंजुमुखी देवी, एम.एल.सी.।

मृगांकजी ने पूछ लिया—माधवी को अर्से से नहीं देखा, क्या हाल है उसका ?
भौंहें सिकुड़ आईं। देवीजी बोलीं—कालिज का खटराग यों ही भला क्या कम था ! जब से अपने विभाग की हैड हुई है, दम मारने की फुर्सत नहीं मिलती है बेचारी को। वो तो आप लोगों का आशीर्वाद है कि थकती नहीं है माधवी।
मृगांकजी काजू चबा रहे थे। बहादुर चाय की ट्रे सामने तिपाई पर रखकर वापस जा चुका था। देवीजी झुककर चाय बनाने लगीं।

मृगांकजी ने कहा—कालिज ने इधर तरक्की तो खूब की मगर मेरा तो उसने भारी अहित किया है...
देवीजी की प्रश्नसूचक दृष्टि ने उन्हें उगली बात कहने के लिए उकसा दिया, बोले—कितना अच्छा लिखती थी माधवी ! शिक्षा-विशारदों ने काव्यगगन से एक उदीयमान नक्षत्र छीन लिया, अपनी तो खैर शिष्या ही पराई हो गई।

कविजी को चाय का प्याला थमाती हुई मंजुमुखीजी बोल गईं—लड़की थी न ? लड़का होती तो फिर भी कविताओं से काफी कमा लेती। कंठ सुरीला है ही, रेडियो वालों से भी काफी रकम दुह लेती। मगर देखिए न मृगांकजी, बात तो जरा वैसी है...कोई बात नहीं, आपकी तो गोद में खेली है... बतला ही दूँ आपको...मैंने ही ताने कसे थे न ? तभी तो कविताओं से माधवी ने यों मुँह मोड़ लिया। कविताओं की कमाई से सलीके की एक साड़ी तक नहीं ले सकी कभी। सम्पादक लोग मनीआर्डर से रकम भिजवाते थे ज़रूर लेकिन पचीस तो शायद ही कभी आए हों ! वर्ना वही पाँच, वही दस, वही पन्द्रह ! भतीजियों को फुसलाने के लिए भी उतनी रकम काफी नहीं पड़ती थी, मृगांकजी ! बतलाइए भला, कविता की कमाई से चली है किसी की घर-गिरस्ती ? सो भी तो क्या, इस मुँहझौंसे जमाने में ? तो, अब आज आपसे कह रही हूँ, आपकी चेली को मैंने ही आपसे छीन लिया था...

मृगांकजी गुमसुम बैठे रहे, चाय का प्याला होंठों से लग नहीं रहा था। बार-बार माधवी की परछाई प्याले में चाय की सतह पर तैर जाती थी...कितना परिश्रम किया था मृगांकजी ने माधवी को शब्दशिल्प सिखलाने में !
देवीजी ने दोनों हाथ जोड़ लिए, कहने लगीं—अब चाहे आप मुझे उस अपराध के लिए जो भी दंड दें, मैं भुगत लूँगी। माधवी का लेकिन इसमें कोई कसूर न था। उस बेचारी पर रंज मत होइएगा मृगांकजी, मेरी कसम आपको, मृगांकजी !

हल्की परन्तु गम्भीर आवाज में मृगांकजी ने कहा—यह आपने बहुत अच्छा काम किया। वास्तविकता को इस प्रकार पकड़ लेना आप—जैसी बुद्धिमती महिलाओं का ही चमत्कार हो सकता है।

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