आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
आज गुरु-शिष्य के क्षेत्र में असमर्थता और अश्रद्धा का बोल बाला है।
"गुरुशिष्य अन्ध बधिर कर लेखा, एक न सुनइ, एक नहि देखा” की उक्ति ही इन
दिनों चरितार्थ होती दिखती है। तथाकथित गुरु यह नहीं देखते कि शिष्य का
जीवन किस दिशा की ओर जा रहा है और तथाकथित शिष्यों को गुरु के निर्देश
सुनकर आचरण करने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती हैं। यही कारण है कि वह
पुण्य-परम्परा धीरे धीरे लुप्त होती चली जा रही है। लकीर पीटने के लिए
कहीं कुछ कर्मकाण्ड होते भी हैं तो उनके बीच वह निर्वाह बनता नहीं, जिसमें
गुरु भी यशस्वी होते हैं एवं शिष्य भी मनस्वी बनते हैं। उस सुयोग के
फलस्वरूप ही ऐसा वातावरण बन सकता है, जिससे समूचे वातावरण में
सत्प्रवृत्तियों का मलयानिल प्रवाहित होता रहे। इन दिनों मन्त्र और देवता,
अपनी शक्ति खो चले हैं क्योंकि आध्यात्मिक प्रगति का कल्पवृक्ष, गुरुशिष्य
परम्परा के आधार पर विनिर्मित होने वाली सिचाई से वंचित रहकर कुम्हलाता,
मुरझाता और सूखता चला जा रहा है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान