आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
इस रहस्य को समझाने के लिए शास्त्रकारों ने प्रबल प्रयत्न किए है। यहाँ तक
कि गुरु की गोविन्द से भी बढ़कर माना है। उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की
उपमा दी है। इतने पर भी क्यों उसके लिये उत्साह नहीं उठता ? इसका एक ही
कारण है कि वैसे समर्थ व्यक्तित्वों का आज एक प्रकार से सर्वथा अभाव ही हो
चला है, जिन्हें गुरु के रूप में वरण किया जा सके।
जिनकी जीवनचर्या में तपश्चर्या आदि से अन्त तक गुंथी नहीं, है,
जिसके अध्ययन-अध्यवसाय की ज्ञान-सम्पदा अगाध नहीं है जो लोकमंगल के लिए
आत्म-विजर्सन कर सकने में समर्थ नहीं हो सके जिनका चरित्र दूध जैसा धवल
नहीं है, उनमें अपनी गाड़ी आप घसीट सकने तक की तो सामथ्र्य होती नहीं,
अपने लिए जिस-तिस के सामने पल्लू पसारते फिरते हैं फिर वे अन्यान्यों की,
शिष्यों की सहायता कर सकने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं ? ऐसों का
आश्रय लेने पर लोभी गुरु लालची चेला वाली उक्ति ही चरितार्थ होती है और एक
दूसरे को दोनों नरक में ठेलमठेला का फलितार्थ उत्पन्न करते हैं। जहाँ ऐसी
स्थिति हो, वहाँ गुरुता के अभाव में शिष्य की श्रद्धा कैसे उमगे और
घनिष्ठता स्थापित करने का सहारा और विश्वास किस आधार पर पनपे?
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान