ऐतिहासिक >> महानायक महानायकविश्वास पाटील
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आधुनिक मराठी साहित्य के यशस्वी उपन्यासकार और नाटककार विश्वास पाटील का सुभाषचन्द्र बोस के जीवन और कर्म पर केन्द्रित एक श्रेष्ठ उपन्यास "महानायक"।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह उपन्यास एक "महान् कलाकृति" है, मात्र इतना कह देने से इसका उचित
मूल्यांकन नहीं होता। मैं निःसन्देह रूप से कहना चाहता हूँ कि इस शताब्दी
की यह सर्वश्रेष्ठ कृति है।
-वसन्त कानेटकर
सुभाषचन्द्र बोस के जीवन और कर्म पर केन्द्रित "महानायक" एक श्रेष्ठ
भारतीय उपन्यास है। इसमें विश्वास पाटील ने भारत के ऐसे श्रेष्ठ
व्यक्तित्व को नायक के रूप में चुना है जो किसी भी महाकाव्य का महानायक बन
सकता है।
सुभाष बाबू उन महान् मानवों में से एक थे जिन्हें तीव्र बुद्धि, भावनात्मक ऊर्जा, प्रखर चिन्तन क्षमता जन्म से प्राप्त थी और अपनी पराधीन भारत माता को स्वतंत्र करने के भव्य स्वप्न से जिनके व्यक्तित्व का अणु-अणु उत्तेजित रहता था। उन्होंने पश्चिमी ज्ञान और विद्या को आत्मसात् किया था, साथ ही भारत की ऊर्जस्वी आध्यात्मिक परम्परा, जो रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द से छनकर आयी थी, उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व का मूल स्रोत थी। सुभाष का ऐसा व्यक्तित्व था जिसकी जबरदस्त कशिश ने हिटलर से लेकर जापान के प्रधानमंत्री तोजो तक को प्रभावित किया था और जिसके भय ने चर्चिल जैसे नेताओं की नींद हराम कर दी थी।....
सुभाषचन्द्र के जादुई व्यक्तित्व के लगभग सभी पहलुओं को, जो अब तक बिखरे हुए रूप में थे, विश्वास पाटील ने इस उपन्यास में एकत्र कर रसात्मक भूमि पर ले आने का महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कार्य किया। उन्होंने सुभाषचन्द्र बोस के राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय कृतित्व को पहली बार देश के सामने प्रस्तुत करने के साथ ही भारतीय स्वातंत्र्य समर के कुछ उपेक्षित सशस्त्र क्रान्तिकारियों की भी महती भूमिका पर प्रकाश डाला। इस उपन्यास में महानायक सुभाषचन्द्र बोस एक प्रखर नेता और बुद्धिजीवी के रूप में तो हैं ही; एक संवेदनशील प्रेमी, पति और पिता के रूप में पूरे प्रामाणिकता के साथ जीवन्त रूप से उपस्थित हैं।
सुभाष बाबू उन महान् मानवों में से एक थे जिन्हें तीव्र बुद्धि, भावनात्मक ऊर्जा, प्रखर चिन्तन क्षमता जन्म से प्राप्त थी और अपनी पराधीन भारत माता को स्वतंत्र करने के भव्य स्वप्न से जिनके व्यक्तित्व का अणु-अणु उत्तेजित रहता था। उन्होंने पश्चिमी ज्ञान और विद्या को आत्मसात् किया था, साथ ही भारत की ऊर्जस्वी आध्यात्मिक परम्परा, जो रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द से छनकर आयी थी, उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व का मूल स्रोत थी। सुभाष का ऐसा व्यक्तित्व था जिसकी जबरदस्त कशिश ने हिटलर से लेकर जापान के प्रधानमंत्री तोजो तक को प्रभावित किया था और जिसके भय ने चर्चिल जैसे नेताओं की नींद हराम कर दी थी।....
सुभाषचन्द्र के जादुई व्यक्तित्व के लगभग सभी पहलुओं को, जो अब तक बिखरे हुए रूप में थे, विश्वास पाटील ने इस उपन्यास में एकत्र कर रसात्मक भूमि पर ले आने का महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कार्य किया। उन्होंने सुभाषचन्द्र बोस के राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय कृतित्व को पहली बार देश के सामने प्रस्तुत करने के साथ ही भारतीय स्वातंत्र्य समर के कुछ उपेक्षित सशस्त्र क्रान्तिकारियों की भी महती भूमिका पर प्रकाश डाला। इस उपन्यास में महानायक सुभाषचन्द्र बोस एक प्रखर नेता और बुद्धिजीवी के रूप में तो हैं ही; एक संवेदनशील प्रेमी, पति और पिता के रूप में पूरे प्रामाणिकता के साथ जीवन्त रूप से उपस्थित हैं।
चन्द्रकान्त बान्दिवडेकर
मनोगत
‘‘आप उस व्यक्ति पर उपन्यास भला किसलिए लिख रहे हैं
जो शत्रु
से जा मिला था ?’’ एक तीस वर्षीय बंगाली आइ.सी.एस.
अधिकारी
पूछ रहा था मुझसे।
‘‘किसके शत्रु से ?’’ मैं पूछ बैठा। मेरे प्रश्न से वह किंचित् अचकचा गया, और मेरा प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया।
अपने कुल अड़तालीस वर्षों के कर्तृत्व के बल पर सुभाषचन्द्र इतिहास के आकाशमण्डल को अपने तेज से दमका गये हैं। मतमतान्तर के मेघ तो आते-जाते ही रहेंगे, परन्तु यह निर्विवाद है कि नेताजी ने इतिहास में अपने लिए ध्रुवतारे के समान अटल स्थान बना लिया है। बीसवीं शताब्दी का कदाचित् ही कोई अन्य भारतीय नेता होगा जिसका जीवन ऐसे झंझावाती, शौर्यपूर्ण और नाटकीय प्रसंगों से खचाखच भरा हो।
नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा। जनसामान्य को इस विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं थीं कि उनकी आजाद हिन्द फौज किस बहादुरी से लड़ी या उसने कौन-सा पराक्रम किया। बिजली कैसे कड़ककर गिरी थी, प्रचण्ड उल्कापात कैसे हुआ था, शौर्य का तेजस्वी ज्वार किस पराकाष्ठा पर पहुँचा था- जनसामान्य को आज भी इन सब बातों की खबर नहीं है, परन्तु यह आभास सभी को लग गया था कि कुछ अपूर्व, विलक्षण और अद्भुत तो अवश्य घटित हुआ है।
जिस समय महात्मा गाँधी का अहिंसा का गरुड़ध्वज सारे विश्व में लहरा रहा था, ठीक उसी समय गुलामी की जंग छुड़ाने के लिए साम्राज्यवादियों को झुलसा देनेवाली आँच की आवश्यकता का अनुभव करनेवाली उग्र विचारधारा का समर्थन करनेवाले सुभाषचन्द्र का राष्ट्रीय आन्दोलन के क्षितिज पर उदित होना ही एक अभूतपूर्व घटना है। गाँधीयुग से ही सुभाषचन्द्र के संबंध में गलतफहमी का दौर शुरु हो गया था। द्वितीय महायुद्ध में नेताजी ने हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाहों से संपर्क स्थापित किया था। बहुत से लोगों के मन में यह सन्देह अभी भी घर किये हुए हैं कि कहीं देश के भविष्य को तानाशाहों के हाथों गिरवी रखने की दिशा में तो नहीं बढ़ रहे थे। इसके अतिरिक्त, स्वतंत्र भारत में माउंटबेटन के कूटनीतिक कौशल को यथार्थ के प्रकाश में न देखकर एक प्रकार से देवासन पर स्थापित कर दिया गया, परन्तु फौजी इतिहास स्पष्ट बताता है कि इम्फाल और कोहिमा के मोर्चों पर जापानी सेना और आजाद हिन्द फौज ने एक नहीं, अनेक बार माउंटबेटन के छक्के छुड़ा दिये थे। वस्तुत: हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे देश संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा।
नेताजी का साहस और धैर्य निस्सीम था। आजादी के लिए उन्होंने आधे विश्व की खाक छानी। उनकी इस उतावली को अविवेकपूर्ण माना जा सकता है। वस्तुत: आज भी यह एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है कि उनके द्वारा अपनाये गये मार्ग से स्वातन्त्र्य-प्राप्ति की कितनी संभावना थी। परन्तु नेताजी गुलबकावली के फूल की लालसा में विश्व की परिक्रमा पर निकलनेवाले कोई परीकथा राजकुमार नहीं थे। अपने समय की सबसे विकट स्पर्धा-आई.सी.एस.- की गुणवत्ता सूची में उन्हें चतुर्थ स्थान प्राप्त हुआ था। गाँधी जी के विरोध को दरकिनार करते सुविज्ञ जनता ने बहुमत से उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष चुना था। रवीन्द्रनाथ टैगोर, डॉ. विश्वेश्वरय्या, मेघनाद साहा जैसे वरिष्ठों ने उनका यथोचित गुणगान किया था। ऐसी स्थिति में अपनी अपनी उज्ज्वल कीर्ति को घनी अँधेरी दह में झोंककर, केवल निस्सीम साहस के बल पर अन्धे बनकर वे देशत्याग कैसे कर सकते थे ?
आजाद हिन्द सेना के नायक के रूप में उनकी कर्मठता जर्मनी और पूर्वी एशिया में परवान चढ़ी, और इसीलिए उनके संबंध में लिखित साहित्य जर्मन, जापानी, ब्रह्मी, फ्रेंच, बाँग्ला आदि अनेक भाषाओं में तथा विश्व के विभिन्न अभिलेखागारों में दुष्प्राप्य स्थिति में पड़ा हुआ था। ऊपर उल्लेखित भाषाओं में लिखे दस्तावेजों का अध्ययन करके तथा जिन-जिन देशों में नेताजी के कदम पड़े थे, उन सभी स्थानों पर उनके पदचिह्नों का सूक्ष्म अन्वेषण करके एक विशाल फलक पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना आवश्यक था। नेताजी के विषय में गहन अध्ययन का श्रीगणेश करते ही मुझे यह बोध हो गया था कि उपर्युक्त प्रकल्प का कोई विकल्प नहीं है। इसी के फलस्वरूप यथार्थ की पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास को पूर्ण करने के वास्ते मुझे लगातार कई वर्ष इस प्रकल्प के लिए अर्पित करने पड़े। वर्षों का समय इस प्रकल्प की भेंट चढ़ाना पड़ा।
इस बीच रिचर्ड अटनबरो नामक अध्यवसायी निर्देशक ने ‘गाँधी’ शीर्षक से एक विश्वप्रसिद्ध चित्रपट का निर्माण किया, परन्तु उसके एक भी फ्रेम में सुभाषचन्द्र का धुँधला-सा भी चित्रण देखने को नहीं मिला ! सुभाषचंद्र की भूमिका और उनके कर्तृत्व की अनदेखी करके गाँधी और नेहरू के चरित्र तथा स्वातन्त्र्य-संघर्ष का अध्ययन संभव ही नहीं है। गाँधी-साहित्य के अट्ठासी खण्डों तथा नेहरू-साहित्य (पहली और दूसरी सिरीज़) का सूक्ष्म अध्ययन करने पर इन तीनों के आन्तरिक स्नेहबन्धन की इन्द्रधनुषी छटा देखकर किसी भी अध्येता के नेत्रों में दीप्ति आ जाएगी ! नेहरू ने स्वयं लिखा है, ‘‘हम तीनों के आन्तरिक संबंध शेक्सपीयर की अटल शोकान्तिका जैसा आकार ग्रहण करने लगे हैं।’’ इस त्रिमूर्ति के पारस्परिक संबंध की दिशा का दिग्दर्शन सर्वप्रथम नीरद चौधुरी तथा मायकेल ब्रीचर ने किया था। (इसमें ब्रीचर द्वारा चित्रित नेहरू के चरित्र पर इधर कई वर्षों से प्रतिबंध लगा हुआ था।) इन तीनों के बीच हुए पत्र-व्यवहार और तत्संबंधियों टिप्पणियों को पढ़ते समय मुझे निरंतर ऐसा प्रतीत होता रहा जैसे किसी विशाल पर्वत के उत्तुंग गिरिशिखर ही एक-दूसरे के साथ एक अनोखा संवाद कर रहे हैं।
लैरी कॉलिन्स तथा डॉमनिक लैपियर ने ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ शीर्षक से एक मसालेदार ग्रन्थ लिखा। लेखकद्वय ने कथा में रसरंग भरने के लिए भारतीय नेताओं के वैयक्तिक गुण-दोष, विवादों, श्रृंगारिक जीवन जैसी अनेक बातों का उत्तम उपयोग किया, परन्तु इन दोनों ने भी इरादतन नेताजी का नामोल्लेख नहीं किया, अलबत्ता सुभाषचंद्र का चित्रांकन केवल एक शब्द- ‘अ रिबेल’ (एक बागी)- से करते हुए हाथ झाड़ लिये। इन दृष्टान्तों से ऐसी भावना बनती है कि हो न हो, यहाँ सुभाषचन्द्र और आजाद हिन्द सेना के सम्पूर्ण विषय को ही जान-बूझकर विस्मृति के गर्त में ढकेलने के लिए निरन्तर एक कुचक्रपूर्ण होड़ चल रही थी। परन्तु साथ ही लुई अलेन, जॉम्स लेब्रा, आर्थर स्वीन्सन, मिलान हॉर्नर, टी.एस. सरीन, पीटर फ़े, गॉडविन नागासकी नोबुकी प्रभृति विश्व-भर के अनेक विद्वान और शोधकर्ता आजाद हिन्द सेना और नेता जी के कर्तृत्व के विविध पहलुओं को प्रकाश में ला रहे थे। यह और बात है कि भारतीयों को इसकी पर्याप्त जानकारी नहीं थी।
विस्तृत अध्ययन के उपरान्त मेरा ऐसा मत बना है कि जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक घबराते रहे नेताजी की सामर्थ्य से, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश घबराते रहे जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से ! भोले-भाले भक्तों ने उन्हें देवासन पर आसीन कर दिया। नेताजी द्वारा दिये गये ‘दिल्ली चलो’ के नारे को कीर्तन शैली में इतना सहज सरल बना दिया गया जैसे कि सुभाषचन्द्र एक तड़के ही उठकर सिंगापुर गये दर्जी के यहाँ, उससे सिलाया फौजी गणवेश, और फौजी बानक बनाकर सहज भाव से चल पड़े दिल्ली की ओर ! यथार्थ में सुभाष के हिस्से में आया जीवन रोमहर्षक होने के साथ ही अत्यन्त वेदनामय भी था। अथाह साहस के फिसलनभरे कगारों पर पाँव जमाकर दौड़ते, स्वाभिमान की सुगन्धि का जतन करते, निर्भय होकर दृढ़तापूर्वक लक्ष्य की और बढ़ते रहने की चाह में उन्हें जीवन-भर भटकते रहना पड़ा। सन्त-सज्जनों के आश्रमों में उन्होंने नम्रता से शीश झुकाया, परन्तु उनसे व्यर्थ की प्रशंसा पाने के लिए वे कभी भी झुके नहीं। शैतानों की भयावाह कन्दराओं में निर्भयतापूर्वक विचरण करते हुए उन्होंने अपने स्वाभिमान के कवचकुण्डल को निस्तेज नहीं होने दिया।
स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी। सुभाषचन्द्र का जीवन-संघर्ष अनेक भिन्न स्तरों से होकर आगे बढ़ा- हिन्दुस्तान के स्वतन्त्र्य आंदोलन में सक्रियता और गाँधी-नेहरू के साथ प्रेमभाव रखते हुए भी उनके साथ सतत संघर्ष, महायुद्ध की अवधि में पीड़ादायक जर्मनी-निवास और अन्त में पूर्वी एशिया में तेजोपुंज कर्तृत्व के शिखर पर आरोहण ! जापान ने 1941-42 में भी इम्फाल अभियान की योजना को लाल झण्डी दिखा दी थी, परन्तु एकमेव नेताजी के आग्रह का मान रखने के लिए ही 1944 में उस योजना को पुन: झाड़-पोंछकर अमल में लाया गया। नेताजी को व्यक्ति नहीं, अपितु युद्धकाल का एक ‘मित्रराष्ट्र’ मानकर जापान ने भरपूर सहायता दी। आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो। सुभाषचन्द्र के जीवन में गाँधी-नेहरू-टैगोर के साथ ही हिटलर-मुलोलिनी-तीजो जैसे तानाशाही वृत्ति के लोग भी आये। शिवाजी महाराज को जिस प्रकार तानाजी, बाजीप्रभु, शेलारमामा जैसे बहादुर सरकारी मिले थे, वैसे ही नेताजी के संघर्ष में भी सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज़, कर्नल लक्ष्मी, बै. भल्लाप्पा जैसे वीर योद्धा सहभागी बने। भारत में ऐसे किसी भी चरित्रग्रन्थ का प्रवेश तक नहीं हो पाया जिसमें ‘द स्टोरी ऑफ सुभाष बोस’ अथवा ‘सुभाष बोस’ शीर्षक से एक भी अध्याय शामिल रहा हो। अपनी अल्प-सी आयु में अपने कर्तृत्व व व्यक्तित्व के बल पर नेताजी ने विश्न के अनेक कर्मठ व्यक्तियों के मन के कक्ष को व्याप्त कर लिया था। आधुनिकता का आग्रही एक विचारशील और साहसी जननेता, सैनिक विद्यालय का एक भी सबक सीखे बिना बर्मी मोर्चे पर माउंटबेटन-स्टीलविल कू संयुक्ति कमान से लोहा लेनेवाला अप्रतिम सेनानी, उस संघर्षमय कालावधि में ही ऑस्ट्रियन तरुणी एमिली के सहवास में पल्लवित-पुष्पित अनोखे प्रणय का नायक, और इतिहास के तारांगण में अटल स्थान बनाने वाला एक धीरोदात्त महानायक-विचारक योद्धा-प्रणयी-माहनायक ! ये हैं नाना रूप उनके बहुमुखी व्यक्तित्व के।
भाग्य और प्रकृति प्रायः विश्व के समस्त पुरुषों की सत्वपरीक्षा लेते रहते हैं। नेताजी के जीवन में भी भाग्य और प्रकृति निरन्तर आड़ा-तिरछा ताण्डव करते रहे। धराशायी होते गिरिशिखर पर भी पाँव टिकाये रखनेवाले पुरुषसिंह ने कभी अपना धैर्य और गाम्भीर्य नहीं छोड़ा। पन्थनर्पेक्ष, सुदृढ़, सशक्त, श्रेष्ठ और सुसंस्कृत भारत के निर्माण का स्वप्न साकार करने के लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया ! यही कारण था कि उपन्यास का रूपाकार ग्रहण करने के लिए यह विषय अनेक वर्षों से मुझे इशारे करता आ रहा था। हमारी इस भारतभूमि पर कुछ अध्येताओं ने चरित्रप्रधान अथवा ऐतिहासिक उपन्यास की नाक मरोड़ने का एक सस्ता-सा सूत्र गढ़ रखा है। ‘नॉस्थ्ल्जिया’ जैसे एक विदेशी भाषा के शब्द का शिखण्डी जैसा उपयोग करते हुए वे उसकी आड़ लेकर सतत शरसन्धान करते रहते हैं। परन्तु पश्चिम के अनेक साहित्य की इस विधा-उपन्यास-को नदी के प्रवाह की उपमा देते हैं। नदी के प्रवाह भी क्या सदा एक-सा रहता है ?
कभी वह ब्रह्मपुत्र और मिसिसिपी की भाँति अनेक प्रान्तों से होती हुई, बहते-बहते अपने तटस्थ क्षेत्रों की संस्कृति का भी वहन करती काफी लम्बी दूरी तय करती है, कभी नर्मदा-तापी की तरह उलटे मोड़ ले-कर बहती है तो कभी वह कोंकण की नदियों की तरह पर्वतीय कगारों से छलाँग लगाती, उछलती-कूदती, सागर की गोद में समा जाने के लिए व्यग्र मदमस्त प्रेमिका जैसी दिखती है। महत्त्व नदी के प्रकार का उतना नहीं है जितना उसमें कलकल बहनेवाली जीवन-रस की जाति का, उसके कुल का।
‘पांगिरा’ और ‘झाडाझडती’ जैसे सामाजिक उपन्यास लिखने के बाद इस चरित्रप्रधान उपन्यास का लेखन-कार्य हाथ में लेने पर मुझे शीघ्र ही यह प्रतीत हो गया कि यह कार्य उतना सहज सरल नहीं है जितना मैंने सोचा था। ऐसी रचना के लिए अनेक स्थितियों से होते हुए यात्रा करनी पड़ती है। सर्वप्रथम तो लेखक को चरित्रनायक का चरित्रकार ही बनाना होता है। चरित्र के उत्तप्त मरुभूमि की रेत में, विस्तारों की अँधेरी कन्दराओं में दिनों-दिन भूत की तरह भटकते रहना होता है। फिर चरित्रनायक के साथ ही उसके समकालीन मित्रों व विरोधियों के भी चरित्र का अध्ययन करना होता है। जिस कालदण्ड पर उन्होंने पींगे लीं, उसी दण्ड से चिपककर कई-कई दिन झूलते रहना होता है। इतनी दीर्घ भटकन के बाद कहीं धीरे-धीरे उन तिमिराच्छन्न कन्दराओं के बाहर साहित्य का सिवान दिखने लगता है, सुनहरे किरणपुंज बुलाने लगते हैं और चेतना के निर्झर से होकर जंगल-बीहड़ों की सिसकारियाँ सुनाई देने लगती हैं।
‘‘किसके शत्रु से ?’’ मैं पूछ बैठा। मेरे प्रश्न से वह किंचित् अचकचा गया, और मेरा प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया।
अपने कुल अड़तालीस वर्षों के कर्तृत्व के बल पर सुभाषचन्द्र इतिहास के आकाशमण्डल को अपने तेज से दमका गये हैं। मतमतान्तर के मेघ तो आते-जाते ही रहेंगे, परन्तु यह निर्विवाद है कि नेताजी ने इतिहास में अपने लिए ध्रुवतारे के समान अटल स्थान बना लिया है। बीसवीं शताब्दी का कदाचित् ही कोई अन्य भारतीय नेता होगा जिसका जीवन ऐसे झंझावाती, शौर्यपूर्ण और नाटकीय प्रसंगों से खचाखच भरा हो।
नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा। जनसामान्य को इस विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं थीं कि उनकी आजाद हिन्द फौज किस बहादुरी से लड़ी या उसने कौन-सा पराक्रम किया। बिजली कैसे कड़ककर गिरी थी, प्रचण्ड उल्कापात कैसे हुआ था, शौर्य का तेजस्वी ज्वार किस पराकाष्ठा पर पहुँचा था- जनसामान्य को आज भी इन सब बातों की खबर नहीं है, परन्तु यह आभास सभी को लग गया था कि कुछ अपूर्व, विलक्षण और अद्भुत तो अवश्य घटित हुआ है।
जिस समय महात्मा गाँधी का अहिंसा का गरुड़ध्वज सारे विश्व में लहरा रहा था, ठीक उसी समय गुलामी की जंग छुड़ाने के लिए साम्राज्यवादियों को झुलसा देनेवाली आँच की आवश्यकता का अनुभव करनेवाली उग्र विचारधारा का समर्थन करनेवाले सुभाषचन्द्र का राष्ट्रीय आन्दोलन के क्षितिज पर उदित होना ही एक अभूतपूर्व घटना है। गाँधीयुग से ही सुभाषचन्द्र के संबंध में गलतफहमी का दौर शुरु हो गया था। द्वितीय महायुद्ध में नेताजी ने हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाहों से संपर्क स्थापित किया था। बहुत से लोगों के मन में यह सन्देह अभी भी घर किये हुए हैं कि कहीं देश के भविष्य को तानाशाहों के हाथों गिरवी रखने की दिशा में तो नहीं बढ़ रहे थे। इसके अतिरिक्त, स्वतंत्र भारत में माउंटबेटन के कूटनीतिक कौशल को यथार्थ के प्रकाश में न देखकर एक प्रकार से देवासन पर स्थापित कर दिया गया, परन्तु फौजी इतिहास स्पष्ट बताता है कि इम्फाल और कोहिमा के मोर्चों पर जापानी सेना और आजाद हिन्द फौज ने एक नहीं, अनेक बार माउंटबेटन के छक्के छुड़ा दिये थे। वस्तुत: हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे देश संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा।
नेताजी का साहस और धैर्य निस्सीम था। आजादी के लिए उन्होंने आधे विश्व की खाक छानी। उनकी इस उतावली को अविवेकपूर्ण माना जा सकता है। वस्तुत: आज भी यह एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है कि उनके द्वारा अपनाये गये मार्ग से स्वातन्त्र्य-प्राप्ति की कितनी संभावना थी। परन्तु नेताजी गुलबकावली के फूल की लालसा में विश्व की परिक्रमा पर निकलनेवाले कोई परीकथा राजकुमार नहीं थे। अपने समय की सबसे विकट स्पर्धा-आई.सी.एस.- की गुणवत्ता सूची में उन्हें चतुर्थ स्थान प्राप्त हुआ था। गाँधी जी के विरोध को दरकिनार करते सुविज्ञ जनता ने बहुमत से उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष चुना था। रवीन्द्रनाथ टैगोर, डॉ. विश्वेश्वरय्या, मेघनाद साहा जैसे वरिष्ठों ने उनका यथोचित गुणगान किया था। ऐसी स्थिति में अपनी अपनी उज्ज्वल कीर्ति को घनी अँधेरी दह में झोंककर, केवल निस्सीम साहस के बल पर अन्धे बनकर वे देशत्याग कैसे कर सकते थे ?
आजाद हिन्द सेना के नायक के रूप में उनकी कर्मठता जर्मनी और पूर्वी एशिया में परवान चढ़ी, और इसीलिए उनके संबंध में लिखित साहित्य जर्मन, जापानी, ब्रह्मी, फ्रेंच, बाँग्ला आदि अनेक भाषाओं में तथा विश्व के विभिन्न अभिलेखागारों में दुष्प्राप्य स्थिति में पड़ा हुआ था। ऊपर उल्लेखित भाषाओं में लिखे दस्तावेजों का अध्ययन करके तथा जिन-जिन देशों में नेताजी के कदम पड़े थे, उन सभी स्थानों पर उनके पदचिह्नों का सूक्ष्म अन्वेषण करके एक विशाल फलक पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना आवश्यक था। नेताजी के विषय में गहन अध्ययन का श्रीगणेश करते ही मुझे यह बोध हो गया था कि उपर्युक्त प्रकल्प का कोई विकल्प नहीं है। इसी के फलस्वरूप यथार्थ की पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास को पूर्ण करने के वास्ते मुझे लगातार कई वर्ष इस प्रकल्प के लिए अर्पित करने पड़े। वर्षों का समय इस प्रकल्प की भेंट चढ़ाना पड़ा।
इस बीच रिचर्ड अटनबरो नामक अध्यवसायी निर्देशक ने ‘गाँधी’ शीर्षक से एक विश्वप्रसिद्ध चित्रपट का निर्माण किया, परन्तु उसके एक भी फ्रेम में सुभाषचन्द्र का धुँधला-सा भी चित्रण देखने को नहीं मिला ! सुभाषचंद्र की भूमिका और उनके कर्तृत्व की अनदेखी करके गाँधी और नेहरू के चरित्र तथा स्वातन्त्र्य-संघर्ष का अध्ययन संभव ही नहीं है। गाँधी-साहित्य के अट्ठासी खण्डों तथा नेहरू-साहित्य (पहली और दूसरी सिरीज़) का सूक्ष्म अध्ययन करने पर इन तीनों के आन्तरिक स्नेहबन्धन की इन्द्रधनुषी छटा देखकर किसी भी अध्येता के नेत्रों में दीप्ति आ जाएगी ! नेहरू ने स्वयं लिखा है, ‘‘हम तीनों के आन्तरिक संबंध शेक्सपीयर की अटल शोकान्तिका जैसा आकार ग्रहण करने लगे हैं।’’ इस त्रिमूर्ति के पारस्परिक संबंध की दिशा का दिग्दर्शन सर्वप्रथम नीरद चौधुरी तथा मायकेल ब्रीचर ने किया था। (इसमें ब्रीचर द्वारा चित्रित नेहरू के चरित्र पर इधर कई वर्षों से प्रतिबंध लगा हुआ था।) इन तीनों के बीच हुए पत्र-व्यवहार और तत्संबंधियों टिप्पणियों को पढ़ते समय मुझे निरंतर ऐसा प्रतीत होता रहा जैसे किसी विशाल पर्वत के उत्तुंग गिरिशिखर ही एक-दूसरे के साथ एक अनोखा संवाद कर रहे हैं।
लैरी कॉलिन्स तथा डॉमनिक लैपियर ने ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ शीर्षक से एक मसालेदार ग्रन्थ लिखा। लेखकद्वय ने कथा में रसरंग भरने के लिए भारतीय नेताओं के वैयक्तिक गुण-दोष, विवादों, श्रृंगारिक जीवन जैसी अनेक बातों का उत्तम उपयोग किया, परन्तु इन दोनों ने भी इरादतन नेताजी का नामोल्लेख नहीं किया, अलबत्ता सुभाषचंद्र का चित्रांकन केवल एक शब्द- ‘अ रिबेल’ (एक बागी)- से करते हुए हाथ झाड़ लिये। इन दृष्टान्तों से ऐसी भावना बनती है कि हो न हो, यहाँ सुभाषचन्द्र और आजाद हिन्द सेना के सम्पूर्ण विषय को ही जान-बूझकर विस्मृति के गर्त में ढकेलने के लिए निरन्तर एक कुचक्रपूर्ण होड़ चल रही थी। परन्तु साथ ही लुई अलेन, जॉम्स लेब्रा, आर्थर स्वीन्सन, मिलान हॉर्नर, टी.एस. सरीन, पीटर फ़े, गॉडविन नागासकी नोबुकी प्रभृति विश्व-भर के अनेक विद्वान और शोधकर्ता आजाद हिन्द सेना और नेता जी के कर्तृत्व के विविध पहलुओं को प्रकाश में ला रहे थे। यह और बात है कि भारतीयों को इसकी पर्याप्त जानकारी नहीं थी।
विस्तृत अध्ययन के उपरान्त मेरा ऐसा मत बना है कि जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक घबराते रहे नेताजी की सामर्थ्य से, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश घबराते रहे जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से ! भोले-भाले भक्तों ने उन्हें देवासन पर आसीन कर दिया। नेताजी द्वारा दिये गये ‘दिल्ली चलो’ के नारे को कीर्तन शैली में इतना सहज सरल बना दिया गया जैसे कि सुभाषचन्द्र एक तड़के ही उठकर सिंगापुर गये दर्जी के यहाँ, उससे सिलाया फौजी गणवेश, और फौजी बानक बनाकर सहज भाव से चल पड़े दिल्ली की ओर ! यथार्थ में सुभाष के हिस्से में आया जीवन रोमहर्षक होने के साथ ही अत्यन्त वेदनामय भी था। अथाह साहस के फिसलनभरे कगारों पर पाँव जमाकर दौड़ते, स्वाभिमान की सुगन्धि का जतन करते, निर्भय होकर दृढ़तापूर्वक लक्ष्य की और बढ़ते रहने की चाह में उन्हें जीवन-भर भटकते रहना पड़ा। सन्त-सज्जनों के आश्रमों में उन्होंने नम्रता से शीश झुकाया, परन्तु उनसे व्यर्थ की प्रशंसा पाने के लिए वे कभी भी झुके नहीं। शैतानों की भयावाह कन्दराओं में निर्भयतापूर्वक विचरण करते हुए उन्होंने अपने स्वाभिमान के कवचकुण्डल को निस्तेज नहीं होने दिया।
स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी। सुभाषचन्द्र का जीवन-संघर्ष अनेक भिन्न स्तरों से होकर आगे बढ़ा- हिन्दुस्तान के स्वतन्त्र्य आंदोलन में सक्रियता और गाँधी-नेहरू के साथ प्रेमभाव रखते हुए भी उनके साथ सतत संघर्ष, महायुद्ध की अवधि में पीड़ादायक जर्मनी-निवास और अन्त में पूर्वी एशिया में तेजोपुंज कर्तृत्व के शिखर पर आरोहण ! जापान ने 1941-42 में भी इम्फाल अभियान की योजना को लाल झण्डी दिखा दी थी, परन्तु एकमेव नेताजी के आग्रह का मान रखने के लिए ही 1944 में उस योजना को पुन: झाड़-पोंछकर अमल में लाया गया। नेताजी को व्यक्ति नहीं, अपितु युद्धकाल का एक ‘मित्रराष्ट्र’ मानकर जापान ने भरपूर सहायता दी। आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो। सुभाषचन्द्र के जीवन में गाँधी-नेहरू-टैगोर के साथ ही हिटलर-मुलोलिनी-तीजो जैसे तानाशाही वृत्ति के लोग भी आये। शिवाजी महाराज को जिस प्रकार तानाजी, बाजीप्रभु, शेलारमामा जैसे बहादुर सरकारी मिले थे, वैसे ही नेताजी के संघर्ष में भी सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज़, कर्नल लक्ष्मी, बै. भल्लाप्पा जैसे वीर योद्धा सहभागी बने। भारत में ऐसे किसी भी चरित्रग्रन्थ का प्रवेश तक नहीं हो पाया जिसमें ‘द स्टोरी ऑफ सुभाष बोस’ अथवा ‘सुभाष बोस’ शीर्षक से एक भी अध्याय शामिल रहा हो। अपनी अल्प-सी आयु में अपने कर्तृत्व व व्यक्तित्व के बल पर नेताजी ने विश्न के अनेक कर्मठ व्यक्तियों के मन के कक्ष को व्याप्त कर लिया था। आधुनिकता का आग्रही एक विचारशील और साहसी जननेता, सैनिक विद्यालय का एक भी सबक सीखे बिना बर्मी मोर्चे पर माउंटबेटन-स्टीलविल कू संयुक्ति कमान से लोहा लेनेवाला अप्रतिम सेनानी, उस संघर्षमय कालावधि में ही ऑस्ट्रियन तरुणी एमिली के सहवास में पल्लवित-पुष्पित अनोखे प्रणय का नायक, और इतिहास के तारांगण में अटल स्थान बनाने वाला एक धीरोदात्त महानायक-विचारक योद्धा-प्रणयी-माहनायक ! ये हैं नाना रूप उनके बहुमुखी व्यक्तित्व के।
भाग्य और प्रकृति प्रायः विश्व के समस्त पुरुषों की सत्वपरीक्षा लेते रहते हैं। नेताजी के जीवन में भी भाग्य और प्रकृति निरन्तर आड़ा-तिरछा ताण्डव करते रहे। धराशायी होते गिरिशिखर पर भी पाँव टिकाये रखनेवाले पुरुषसिंह ने कभी अपना धैर्य और गाम्भीर्य नहीं छोड़ा। पन्थनर्पेक्ष, सुदृढ़, सशक्त, श्रेष्ठ और सुसंस्कृत भारत के निर्माण का स्वप्न साकार करने के लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया ! यही कारण था कि उपन्यास का रूपाकार ग्रहण करने के लिए यह विषय अनेक वर्षों से मुझे इशारे करता आ रहा था। हमारी इस भारतभूमि पर कुछ अध्येताओं ने चरित्रप्रधान अथवा ऐतिहासिक उपन्यास की नाक मरोड़ने का एक सस्ता-सा सूत्र गढ़ रखा है। ‘नॉस्थ्ल्जिया’ जैसे एक विदेशी भाषा के शब्द का शिखण्डी जैसा उपयोग करते हुए वे उसकी आड़ लेकर सतत शरसन्धान करते रहते हैं। परन्तु पश्चिम के अनेक साहित्य की इस विधा-उपन्यास-को नदी के प्रवाह की उपमा देते हैं। नदी के प्रवाह भी क्या सदा एक-सा रहता है ?
कभी वह ब्रह्मपुत्र और मिसिसिपी की भाँति अनेक प्रान्तों से होती हुई, बहते-बहते अपने तटस्थ क्षेत्रों की संस्कृति का भी वहन करती काफी लम्बी दूरी तय करती है, कभी नर्मदा-तापी की तरह उलटे मोड़ ले-कर बहती है तो कभी वह कोंकण की नदियों की तरह पर्वतीय कगारों से छलाँग लगाती, उछलती-कूदती, सागर की गोद में समा जाने के लिए व्यग्र मदमस्त प्रेमिका जैसी दिखती है। महत्त्व नदी के प्रकार का उतना नहीं है जितना उसमें कलकल बहनेवाली जीवन-रस की जाति का, उसके कुल का।
‘पांगिरा’ और ‘झाडाझडती’ जैसे सामाजिक उपन्यास लिखने के बाद इस चरित्रप्रधान उपन्यास का लेखन-कार्य हाथ में लेने पर मुझे शीघ्र ही यह प्रतीत हो गया कि यह कार्य उतना सहज सरल नहीं है जितना मैंने सोचा था। ऐसी रचना के लिए अनेक स्थितियों से होते हुए यात्रा करनी पड़ती है। सर्वप्रथम तो लेखक को चरित्रनायक का चरित्रकार ही बनाना होता है। चरित्र के उत्तप्त मरुभूमि की रेत में, विस्तारों की अँधेरी कन्दराओं में दिनों-दिन भूत की तरह भटकते रहना होता है। फिर चरित्रनायक के साथ ही उसके समकालीन मित्रों व विरोधियों के भी चरित्र का अध्ययन करना होता है। जिस कालदण्ड पर उन्होंने पींगे लीं, उसी दण्ड से चिपककर कई-कई दिन झूलते रहना होता है। इतनी दीर्घ भटकन के बाद कहीं धीरे-धीरे उन तिमिराच्छन्न कन्दराओं के बाहर साहित्य का सिवान दिखने लगता है, सुनहरे किरणपुंज बुलाने लगते हैं और चेतना के निर्झर से होकर जंगल-बीहड़ों की सिसकारियाँ सुनाई देने लगती हैं।
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