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पांगिरा

विश्वास पाटील

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :239
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3047
आईएसबीएन :81-7055-294-X

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मराठी मूल का एक बहुचर्चित प्रख्यात उपन्यास...

Paangira

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘पांगिरा’ में रोशनी और अँधेरे की वहीं धड़कनें हैं, जिसकी मिट्टी और मौसम के वहीं रंग और मिजाज हैं, वही राग और विराग हैं, आपाधापी और जद्दोजहद हैं धूल-फूल पत्तों की सरसराहट भी वैसी ही है-जो आज के किसी भारतीय गाँव में सहज उजागर है।

‘पांगिरा’- महाराष्ट्र का एक आधुनिक भारतीय गाँव- इस उपन्यास का क्रेन्द्रीय कथानक है। दरअसल पांगिरा एक ऐसा विराट् कैनवास है जिस पर तमाम चलती हुई गतियों में फँसे लोगों का बहुरूपी तसवीरें हैं, जो अपने-अपने तरीके से इस उपन्यास को खुश और उदास अर्थ देते हैं- पूरी आत्मीता और सजगता के साथ। - और शायद इसलिए ‘पांगिरा’ उपन्यास को एक सशक्त सामाजिक दास्तावेज कहना गलत नहीं होगा। क्योंकि मराठी भाषा के प्रख्यात उपन्यासकार श्रीं विश्वास पाटिल ने इस प्रतीकात्मक सामाजिक दस्तावेज के जरिए जीवन की सार्थक परिभाषा को तलाश करना चाहा है।
 
मूल मराठी से आनूदित इस बहुचर्चित उपन्यास को अपनी अनुवादगत सीमाएँ हैं, लेकिन गाँव का यह महाकाव्य हिन्दी के उपन्यास-प्रेमी पाठकों को रोचक, रोमांचित और सुखद अनुभव देगा।

पांगिरा


पांगिरा का मेला और खसम हुए सोला (सोलह) ! सालाना उर्स में इतनी ज्यादा भीड़ उमड़ प़ड़ी थी कि अनामंत्रित लोग भी भारी संख्या में आ पहुँचे थे। गाँव से बाहर बड़-पीपल के साये में बैलगाड़ियों का जमघट लगा था। बैल चारा खा रहे थे, जुगाली कर रहे थे। सभी अतिथि नाले के पानी से उन्मुक्त नहा रहे थे। दिन थोड़ा-सा ऊपर चढ़ आया। आज मेले का तीसरा दिन था। दो दिन ढोलक –लेझिम खेलने से हाथ-पाँव जवाब दे रहे थे। कल दोपहर खेल थम गया था।

हारे हुए पहलवान जल्दी-जल्दी में नहाकर कपड़े पहन रहे थे, तो विजयी वीर पानी से अठखेलियाँ करते हुए खुशबू दार साबुन मल-मलकर लावणी की पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए खूब नहा रहे थे। कई पहलवान लंगोट अपनी पीठ पर फैलाए सुखा रहे थे। हरी-सूखी घास खाते हुए बैल सींग हिला-हिलाकर आनन्द व्यक्त कर रहे थे

 और इसी के साथ उनके गले में बँधी घंटियाँ टनटना रही थीं। हल चली जमीन पर मिट्टी के डेले उभर रहे थे। कई अतिथि चैतन्य चूर्ण मलने लगे थे, तो कुछ अन्य लाल मिट्टी में पान की सुर्खरू पीक डाल रहे थे। कुछेक आलसी अतिथि चाय की प्याली खाली कर, बिना नहाए ही आँगन में लेट-लोट रहे थे। समूचा गाँव और उसके आसपास का परिसर सगे-सम्बन्धियों तथा यार-दोस्तों से खचाखच भरा हुआ  था।

सुबह की सुनहरी किरणें अब धीरे-धीरे तल्ख होने लगीं, तो इसी बीच सिदुबा के मंदिर के सामने माँग—डफली कड़कते हुए गूँजते लगी और डलफी के साथ ढोलक भी। अब तो मँजीरे-चीमटे भी ढोलक-डफली से आ मिले। माडी (मंजिल वाला मकान) की दीवारों से टकराकर आवाज प्रतिध्वनित होने लगी, और उसी के साथ दमदार आवाज में गाया गीत सुनाई पड़ने लगा-
बाहर घरों की ग्वालनें बारह।
हम चले बाजार में ऽऽ।।

मधुर गीत की ये रसभरी पक्तियाँ सुनकर प्रकृति के दिल में भी मानो उमंग जाग उठी। ईख की फुलक लहराने लगी। इसी के साथ नाले के पास सुस्ता रहे मेलाइयों ने हल्ला-गुल्ला शुरू किया, ‘तमाशा (नौटंकी) शुरू हो गया लगता हैं’ ‘चलो, जल्दी करो, डफली बजने लगी है। कई लोगों ने जल्दी-जल्दी में गीली धोतियाँ लपेट लीं और ऐवाज की दिशा में वे दोड़ पड़े। कुछ लोग राह चलते, अपना साफा ठीक-ठाक करते रहे। कुछ लोगों को साफें के तुर्रे की चिंता अधिक थी।

गली-कूचों में बित्ता-भर लौंडे भी चलो ‘चलो, जल्दी करो बे, तमाशा शुरू हो गया है’ कहकर मंदिर की ओर चल पड़े। मंदिर के सामने ही इमली के पेड़ के तले मंच बना था। काँध पर पड़ा गमछा-तौलिया जमीन-पत्थर पर बिछाकर आसनस्थ होना भी पसन्द किया। जिनके पास टोपी भी नहीं थी वे धूल-मिट्टी पर ही पालथी मारकर जम गये। डफली दस-पंद्रह मिनट बजती रही तो उसका चमड़ा ढीला पड़ गया। डफलीवाले ने फौरन काड़ी-पुलाव इकट्ठा किया और उसकी आग पर तीन-चार बार डफली सेंकते ही चमड़ा पूर्ववत् तन गया। उसने तनिक थपली देकर उसे आजमाया।

 समाप्त हुआ। अब सजी –सँवरी ग्वाल-बालाएँ दही-दूध के मटके सिर पर लिए मथुरा की ओर चल पड़ने की फिराक में थीं। बस, रादा का इन्जार था। इस वजह से मौसी बने गजू विदूषकग की हिम्मत जवाब दे रही थी। उसने खानदानी औरत की तरह पल्लू तो सिर पर से बराबर लिया था पर उसकी लच्छेदार मूछें यथास्थान बरकरार थीं। दर्शकों में हँसी का फव्वारा फूटने के लिए इतना मसाला काफी था। तमाशा की मालकिन सुंदरा पंढरपुरकरीण मंच के पीछे चम्पक-पेड़ की आड़ में सज रही थी। उसने नौ गली रेशमी साड़ी करीने से पहन रखी थी। उसने संदूक खोलकर शीशा निकाल लिया।
 हथेली पर सुगंधित पाउडर लेकर साँवले चेहरे पर वह थापने लगी। शीशे में दो –तीन बार मुँह टेढ़ा-मेढा कर अपनी छवि निहारने के बाद उसने माँग में सिंदूर भरा। पाँव में घुँघरू बाँधे और मंच पर आने के लिए वह तैयार हो गयी।  इस बीच दो-चार मदारिनें मंच पर अपने करतब दिखाती रहीं। लेकिन अब दर्शक दिल थामकर सुंदरा की प्रतीक्षा में थे। इसन्या ढोल्या को भी सुंदरा का ही इन्तजार था।
ढोल्या ने ढोलक को सहेजकर देखा, जैसे छोटे बच्चे को पुचकार रहा हो। गोविंद शायर के इशारे के साथ ही पल्लू हवा में पसारकर सुंदरा ने ठसकते हुए अंदाज में मंच पर प्रवेश किया। ढोल्या तो तैयार खड़ा था, तैश में आकर वह भी ढोलक ढमकाने लगा। इकतारा भी उसकी सोबत में टयांयऽऽ-ट्यांय करने लगा। सुंदरा मयूरी-सी थिरकने लगी, तो दर्शकों ने सीटियों-तालियों से उनका भरपूर स्वागत किया।
लोगों में जैसे चेतना जाग गयी। ग्वाल- बालाओं को प्रिय सखी राधा के दर्शन हुए तो उनके बदन में भी फुरेरी-सी हुई। टांग ऽ टांग ऽऽ तिंकिड धिंगऽ तिकिड धिंग.....ढोलक गूँजने लगी। हारमोनियम वादक भी सजग होकर पाँव से धौंकनी चलाने लगा और उसकी। उँगलियाँ बटनों पर नाचने गलीं। चंचल-चपल, ठसकदार, चक्करदार नृत्य करते हुए ग्वाल-बालाएँ मंच पर अवतरित हुईं। नाचते-फुदकते हुए वे मथुरा का रास्ता नापने लगीं। सुंदरा आँखें मटकाकर नाचते हुए गाना भी गाने लगी-


आमी गवकयाच्या ग नारी ऽ
निघालू बाजारी ऽ जी जी ग जी जी ऽऽ

(हम ग्वालने हैं और मथुरा के बाजार में जा रहे हैं)

ढोल्या पूरे तैस में आकर ढोलक बजा रहा था, तो पगड़ी वाला एक दर्शन जोरों से सीटी बजाकर चिल्लाया, ‘बहुत खूब, हाय मैं सदके जाऊँ.....’ खुले आसमान तले तमाशा धीरे-धीरे रंग जमाने लगा; और नर्तकियाँ आत्मविभोर होकर गोल-गोल नाचने लगीं। अग्रिम पंक्तियों में बैठे लौंडें नर्तकियों की हलचल से उड़ने वाली धूल से पटने लगे। यदाकदा किसी नर्तकी के पाँव में कंकर चुभते ही वह तिलमिलाने लगती थी। ऐसे तकलीफदेह कंकरों को फौरन उठाने का काम धर्म्या माँग को सौंपा गया था। इस बीच ग्वाल-बालाएँ अपने मटको के साथ मथुरा के प्रवेश द्वार तक पहुँच गयीं।
 पेंद्या ने उन्हें गली के मुँहाने पर ही रोक लिया था और मौसी के साथ उनकी कहासुनी हो रही थी। उसके पीछे खड़ा कृष्ण बीच-बीच में पेंद्या से कानाफूसी कर रहा था। चतुर राधा की निगाह से उसकी यह हरकत बच नहीं पायी। वह बाकायदा कृष्ण की ओर उँगली उठाकर नाचने लगी-

नेसली ग बाई चंद्ररळा ठिपक्याची ऽ ठिपक्याची तिरपी नजर माज्यावर या काकया किसन्याची।

(मैंने बुंदकेवाली सुर्खलाल साड़ी पहन रखी है, तो श्याम कृष्ण मुआ मुझ लगातार घूर रहा है।)
राधा-कृष्ण के बीच में जोरदार नोंक-झोंक हुई। कृष्ण खिसियाने से अंदाज में फिकरा कसा-‘राधा ऽऽ तुम में से किसी ग्वालिन के दूध में अब पहले जसी मिठास नहीं रही।’

‘आजमाकर तो देखों। हमारा दही-दूध तो अमृत तुल्य है। एक बार चस्का लगा तो आखिर दम तक खाते रहोगे।’
ग्वालनों ने दही-दूध के मटके उतारकर नीचे रखे, तो कृष्ण के साथियों ने उन पर अपना कब्जा जमा लिया। कृष्ण ने दही का पूरा मटका खाली किया और ऊपर से डकार भी दी। इतने में उसका ध्यान धर्म्या माँग की ओर गया। वह श्रीकृष्ण के पास में ही खड़ा था, तो कृष्ण का खून खौलने लगा। उसने कड़ककर कहा, ‘अबे गधो, तमाशा शुरू हुए एक घंटा हो गया है, लेकिन चाय क्यों नहीं आयी अभी तक ? ज्यादा चिल्लाने से गला सूख रहा है मेरा.....’

धीरे-धीरे धूप चढ़ने लगी। गवकप (स्तवन) का दौर दो घंटे चलता रहा। उसके बाद अल्मूनियम के बरतन में, खड़े-खड़े ही चाय पीकर कलाकारों ने अगला दौर शुरू किया। डफली फिर से कड़कने लगी। ढोलक गूँजने लगी। सुंदरा नाचन-गाने लगी।

 बुगडी माझी सांडली ग जाता सातार्याला
ग बाई सातार्याला।
चुगली न का सांगू ग माझ्या म्यातार्याला
ग बाई सातार्याला।।


(सतारा शहर में मेरा झुमका गिरा, सो मिला नहीं। लेकिन तुम लोग मेरे बुड्ढ़े से मेरी शिकायत न करना।)
तेज धूप बदन पर वार करने लगी। दोपहर हो चली थी। तमासगीरों को लेने-के-देने पड़ रहे थे। इमली के पेड़ तले अब साया नहीं रहा था। नर्तकियाँ भी अपनी साड़ी के आँचल से पसीना पोछने लगीं। ढोल्या तो पसीने से पूरी तरह भींग गया। डफली टूटने का सीमा तक कड़कती रही। इकतारा बजा-बजाकर हाथ की ऊँगली में दर्द होने लगा। मेले में अपार भीड़ थी। चारों ओर जनता का सैलाब-सा दिखाई दे रहा पड़ रहा था।

मेले का आज आखिरी दिन था और आज शाम वहाँ के मशहूर, विशाल रथ में सिंदुबा की महान रथयात्रा आयोजित की जानेवाली थी। भाग्यवानों को ही रथ के दर्शन होते हैं और रथ के सामने लोटने का अवसर मिलता है। पांगरी तथा उनके आसपास के इलाके में तो सिदुबा की यही ख्याति थी कि वह हर एक की मनोकामना पूरी करता है। फसल चौपट हो जाती हो, तबेले का विस्तार न होता, कोई झाड़-फूँक का शिकार हो गया हो तो जलिम उपाय एक ही है- रथ दर्शन करो और सिदुबा से मन्नत माँग लो; यकीनन काम बन जाएगा।

 भरी बस्ती में सिदुबा का मंदिर था, जहाँ भक्तगड़ मानो उमड़ पड़े थे। पौ फटने के साथ ही वहाँ दर्शनार्थियों का ताँता लग गया था। गर्भगृह में तो अपार भीड़ थी। वहाँ धकापेल तथा हल्ला-गुल्ला चरम सीमा पर थे। उमस भी होने लगी थी। भक्तगणों की तरह भगवान भी उत्साह से अभिभूत नजर आ रहे थे किन्तु उनके भी जैसे पसीना छूट रहा था। मंदिर में नारियल और केसर का ढ़ेर लगा था। नारियल फोड़ते रहने से सत्ता गुख की हथेली में छाले हो गये थे।

पांगिरा की छोटी बहन डोंगरवाड़ी गाँव के पश्चिम में आधे मील के फासले पर स्थिति थी। वहाँ के कुलदेवता भी सिदुबा ही थे। मेले के दिनों गाँव की अपेक्षा वाड़ी में उत्साह उछाल पर रहता था। आज अलस्मबह वाड़ी जाग गयी थी। शोर से पहले ही गोबर-चारा, दोहन-वितरण आदि से निपटकर घर-घर में मेले की जोरदार तैयारियाँ चल रही थीं। बैलों की सींगों में रंग-रोगन, उनकी पीठ पर अच्छा-सा नया वस्त्र ओढ़ाना और उन्हें अच्छा-सा खिलाना-पिलाना ! इस तरह से सजी-सँवरी बैलगाड़ियाँ गन्ना-बागानों को पीछे छोड़कर गाँव की ओर दौड़ने लगे थीं।

मेले के बहाने समूचा परिवेश हर तरह से जैसे खिल उठा था। मांगोला तहसील का पांगिरा गाँव गन्ना उत्पादन में अग्रणी था। यहाँ पैसे की कमी नहीं थी। मेले के बहाने-सगे-सम्बन्धियों, यार-दोस्तों के प्रत्याशित आगमन का अंदेशा पाकर घर-घर में गोश्त पक रहा था। गाँव में कम-से-कम दस-बीस बकरे हलाल हुए थे। कुछेक अतिथि सीना तानकर यहाँ-वहाँ आ जा-रहे थे। मन्दिर के पास वाली दोनों गलियों में मिठाई की दूकानें सजी थीं।
आइस कैंडी बेचनेवालों का भी बोलबाला वहाँ था। इसके अलावा झूल, गिराँव, पगहे-तगनी भी बिक्री के लिए वहाँ उपलब्ध थे। केले खरबूजों के ढेर थे। पताशे, रेवड़ी मुरमुरे से लेकर बुड्ढ़ी के बाल तक....खाने की हर चीज पर बच्चें मानो टूट पड़े थे।
पकौड़े और जलेबी की भी खूब धूम मची थी। गाँव की औरतों को वस्त्र तथा कटलरी की चीजों में अधिक रुचि थी। चोली-झंपर के लिए कपडा, शीशा, कुंकुम पात्र, कंघे आदि की मनपसंद खरीदारी में औरतें अधिक व्यस्त थीं। रंग-बिरंगी चूड़ियाँ पहनने के लिए। चूड़ीहारे की दुकानों में भी औरतों की खूब चहल-पहल थी।

 ग्राम पंचायत कार्यालय में बीसियों खसम इकट्ठा  हुए थे। सरपंच सोकाजी-राव डोकरे, पुलिस पाटील, भिकू अण्णा,  सदा वाणी, विचारे गुरुजी, शिरपा अडीसरा, चिणू गुणाजी, तान्या भिलारे, तायन्या कांबले आदि चुनिंदा लोग वहाँ इकट्ठा हुए थे। डोंगरवाड़ी का सरपंच बच्या चोरगे भी गाँववालों में घुल-मिल गया था। कुछ वर्ष पहले वाडी में अलग से ग्राम पंचायत की स्थापना हुई।
गाँव के वाडी के कट जाने के बावजूद आपसी एक-जुट तथा एक ही संयुक्त मेले के लिए कट जाने के बावजूद आपसी एक-जुट तथा एक ही संयुक्त मेले के लिए जैसे कृत संकल्प थे। बाज्यां वाड़ी के लोगों से मेले का शुल्क वसूल कर लाया था। पंच-नेताओं के सामने पान-सुपारी के थाल सजे थे, बीड़ी के बंडल पड़े थे, चैतन्य चूर्ण के पैकेट
 पड़े थे और वे बड़े चाव से इन चीजों का आस्वाद भी ले रहे थे।

पांगरी नदी की उपत्यका में यह बात सर्वविदित थी कि पांगिरा गाँव के लोगों के दो गुट थे। सत्तारूढ़ दल की पूँछ पकड़कर कारोबार चलानेवाले सरपंच सोकाजीराव डोकरे का एक गुट तो विरक्ष का आशीर्वाद प्राप्त पुलिस-पाटील ज्ञानू सावला का दूसरा गुट। विगत दस-पंद्रह वर्षों से दोनों गुटों की स्थिति यथाबत् थी। अब इस मेले के बहाने दोनों गुटों के लोग एकत्रित हुए थे। सोकाजीराव कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रहा था। उसके मुँह में पान भी था।

उसके गुट को डेयरी प्रकल्प की मंजूरी मिल चुकी थी और यह खबर लोगों तक कभी भी पहुँच गयी थी। इसलिए तो वह ज्यादा खुश और उसके चेले-चपाटे चहकते नजर आ रहे थे। डोंगरवाडी के पताशा चोरगे की निगाहों से यह बात छुपी नहीं थी। ज्ञानू सावला और मुरार पाटिल को वहाँ देखकर उन्हें उकसाने के उद्देश्य से पताशा ने अनायास उन्हें छेड़ते हुए कहा-
‘सरपंच साहब ऽऽ बधाई !’
‘किस बात के लिए ?’

‘अजी साहब, डेयरी की मंजूरी जो आपको मिली ! ज्ञानू सावला की तो नाक कट गयी...’

सोकाजीराव के  भीतर ही भीतर बुलबुले फूट रहे थे। ज्ञानू सावला की ओर मुखातिब होकर पताशा ने कहा, ‘क्यों आबाजी सुना है कि डेयरी के लिए आपने भी अर्जी दी थी ? क्या हुआ उसका ? लगता है कि तहसील के रजिस्ट्रार ने आपकी अर्जी को रद्दी की टोकरी दिखा दी !’
उसकी फिकरेबाजी से पंचायत के लोगों में हँसी का दौर चला। सरपंच के लोग तो जैसे ठठाकर हँस रहे थे। ज्ञानू सावला आँख तरेर कर पताशा को घूरने लगा, तो मुरार पाटील ज्ञानू सावला को। शायद आँखों ही आँखों में मुरार पाटील उसे कहना चाहता हो, ‘देखों ज्ञानबा, पताशा की हिम्मत कहां तक पहुँच गयी है ! यह मत भूलो कि डोंगरवाड़ी के इस मुर्गें सरपंच के जेब में कर लिया है !’

लेकिन दोनों गुटों ने डेयरी की बात को यहीं तक सीमित रखा तथा इधर-उधर के अन्य विषयों पर बातचीत होती रही। मेले के लिए चंदा उगाही पर बात आ पहुँची। आज शाम तमाशा कंपनी का बिल चुकाना था। कल पहलवानों में काफी रुपये बाँटे गए थे यथापि, गाँव के कई लोगों ने अभी चंदा आना बाकी था।

सोकाजी ने नेताई अंदाज में रौब के साथ कहा, ‘जिस गाँव में रहना है उसे चाहिए कि वह फौरन चंदा जमा करें।’
‘यदि कोई गरीब व्यक्ति न दे सके तो...? मुरार पाटिल ने प्रतिप्रश्न किया ।

‘उसे पंढरपुर की शरण में जाना चाहिए, सोकाजी।’ बीच-बचाव करते हुए ज्ञानू सावला ने एक उपाय बताया, ‘हर एक को अपने सम्बन्धियों का जिम्मा ले लेना चाहिए। यदि कोई चंदा नहीं देता तो गली के मुखिया की जिम्मेदारी होगी....’
चंदा-शुल्क की ओर ध्यान दिए बिना भिकुण्शी बड़े ही अदब के साथ बैठे थे। तथापि अपने कपड़ो की स्त्री खराब न होने देने के प्रति वे प्रति वे पूर्णतया सतर्क थे। अण्णा की निगाहें सड़क की ओर थीं एकाध जीप-वीप की आवाज आते ही वे फौरन उठ खड़े होते ! गरदन उचका-उचकाकर गौर से देखते तहसील बाबू, हवलदार बाबू, हवलदार तो क्या अदालत के पेशकार तथा बेलीफ आदि सभी को उन्होंने मेले में आमंत्रित किया था। घर में पकाये गये गोश्त के शोरबे को चखकर तथा अलमारी में रखी बोतलों की संख्या गिनने के बाद ही वे चावड़ी में आते थे। सिर की टोपी बार –बार तिरछी करते हुए वे अतिथि का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे।

मुरार पाटील मुँह सिलकर बैठा था; मेले का चंदा भरने में उसे हद दर्जे की जोड़-तोड़ करनी पड़ी थी। घर में रुपये-पैसे न होने से उसकी बीवी राधाई ने मुर्गें का दडब बेच दिया था। उससे सौ-सवा सौ का जुगाड़ हो सका था। मेले का चन्दा सात रुपये, अतिथियों के खान-पान आदि के लिए पंद्रह-बीस रुपये। हनुमंत अब कॉलेज में प्रवेश लेने की फिराक में था और विगत चार वर्षों से फुल पैंट खरीदने की रट लगाये था; सो मेले में ही इस काम को निपटाने में क्या हर्ज था ? इसी बीच बड़ा बेटा बाजीराव भुनभुनाने लगा।
उसे पाजामा, कमीज चाहिए था। उसकी बीवी लक्ष्मी जंपर (ब्लाउज) के लिए आसमानी रंग के कपड़े की माँग कर रही थी, बल्कि जिद्द कर रही थी। घर की इज्जत की सरेआम धज्जियाँ न उड़ने देने की दृष्टि से राधाई –मुरारी ने बाजी-लक्ष्मी की माँग पूरी की। आज नये कपड़े पहनकर बाजी रुआब के साथ चहलकदमी कर रहा था, अपने मोहल्ले की औरतों के सामने लक्ष्मी का आँचल अनायास ढल जाता था, ताकि उसका नया जंपर उन्हें दिखाई पड़े। हनुमंत सिर लटकाये मुँह फुलाकर, मैले-कुचैले कपड़ो की नुमाइश लगाकर चबूतरें के पास बैठा था।

मुरार का जी मानो मिचला रहा था।
पंच मंडली सख्ती से चंदा उगाहने की हिदायतें एक-दूसरे को दे रही थी। सोकाजी के भय से उसके रिश्तेदारों ने छोटी-मोटी चीजें बेच-बेचकर चंदे की रकम जैसे-तैसे आखिरकार जुटा ही ली। पंचों में अभी मशविरा चल ही रहा था कि शोर सुनाई पड़ा। सोकाजी का बेटा संपत शिरप्या की धुनाई कर रहा  था बारह साल का शिरप्या तिलमिलाकर आहें भर रहा था। संपतराव के हाथ में पेड़ की कच्ची छड़ी थी। पीठ पर छड़ी की मार पड़ते ही शिरप्या चीखने लगता था। संपतराव की इस ज्यादती से ग्रामवासी आतंकित हो उठे वे मायूस होकर सोकाजी की ओर देखने लगे। सोकाजीराव जानकर भी अनजान बनते हुए इत्मीनान से पूछने लगा, ‘क्या हुआ, बेटे ?’
 
‘अण्णा, शिरप्या की माँ ने भी चंदा नहीं दिया। और यह कमबख्त तमाशा देखता है फोगट में....’
मुरार पाटील ने सहानुभूति जतलाते हुए कहा, ‘गरीबों को इस तरह कष्ट देना उचित नहीं, संपा।’
‘इतनी दया आती है तो भरो उसका चंदा।’

यह सोचकर, कि कीचड़ में पत्थर फेंकने से छींटे अपने ही बदन पर उड़ेंगे, ग्रामवासियों ने संयम से काम लिया। मुरार पाटिल ने गुस्से में भरकर होंठ चबाया। उसकी पैनी निगाहों ने नोट किया कि सरपंच के बेटे की ज्यादातियाँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं।

सूर्य ढलने को हुआ, तो भी पेड़ के नीचे तमाशा जारी था। वग (लोक नाट्य) इस वक्त चरम सीमा पर था। संडल-बंडल की जोड़ी हल्के-फुल्के फिकरे कसते हुए दर्शकों को हँसा रही थी। तारा नायकीय के साथ उसकी अठखेलियाँ चल रही थीं। बदन से चू रहे पसीने को पगड़ी के सिरे से पोंछते हुए ढोल्या ढोलक पर बखूबी जमा हुआ था। सुबह से चिल्ला-चिल्लाकर साथ निभानेवाले समूह गायन बार-बार ठंडा पानी पीकर प्यास बुझा रहे थे। और तनिक रुककर जान की बाजी लगाते हुए पुनः लय-सुर की सोहबत कर रहे थे।

ढमढमपुर का राजा बना गोविंद शायर चम्पक वृक्ष की ओट में पोटली खोलकर अपने मूल्यवान वस्त्र ढूँढ़ने में लगा हुआ था। अन्ततः दरबार लगा। कमर के पास सेला कसते हुए ढमढमपुर के महाराजा जनता के सामने प्रकट हुए। उनकी बगल में राजकन्या भी आसनस्थ हुई। दानवीर राजा की कीर्ति सुनकर एक जोगी बाबा दरबार में आये। महाराजा ने उनसे दरबार  में आने का प्रयोजन पूछा, तो दाढ़ी के बाल सहलाते हुए जोगी ने कहा-

‘हे महादानी नृप श्रेष्ठ, मेरी नौ लाख गायें है; उन्हें चरने के लिए अपना आधा राज्य मुझे दे दीजिए।’

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