आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटरश्रीराम शर्मा आचार्य
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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...
मस्तिष्क एक परिष्कृत देव भूमि
अपनी उँगलियों से नापने पर 9६ अंगुल के इस मनुष्य शरीर का वैसे तो प्रत्येक
अवयव गणितीय आधार पर बना और अनुशासित है, पर जितना महत्त्वपूर्ण यंत्र इसका
मस्तिष्क हैसंसार का कोई भी यंत्र न तो इतना जटिल, रहस्यपूर्ण है और न समर्थ।
यों साधारणतया देखने में उसके मुख्य कार्य-१ ज्ञानात्मक, २. क्रियात्मक और ३.
संयोजनात्मक हैं, पर जब मस्तिष्क के रहस्यों की सूक्ष्मतम जानकारी प्राप्त
करते हैं, तो पता चलता है कि इन तीनों क्रियाओं को मस्तिष्क में इतना अधिक
विकसित किया जा सकता है कि (१) संसार के किसी एक स्थान में बैठे-बैठे संपूर्ण
ब्रह्मांड के किसी भी स्थान की चींटी से भी छोटी वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर
सकते हैं। (२) कहीं भी बैठे हुए किसी को कोई संदेश भेज सकते हैं, कोई भार
वाली वस्तु को उठाकर ला सकते हैं, किसी को मूर्छित कर सकते हैं, मार भी सकते
हैं। (३) संसार में जो कुछ भी है, उस पर स्वामित्व और वशीकरण भी कर सकते हैं।
अष्ट सिद्धियाँ और नव-निधियाँ वस्तुतः मस्तिष्क के ही चमत्कार हैं, जिन्हें
मानसिक एकाग्रता और ध्यान द्वारा भारतीय योगियों ने प्राप्त किया था।
ईसामसीह अपने शिष्यों के साथ यात्रा पर जा रहे थे। मार्ग में वे थक गये, एक
स्थान पर उन्होंने अपने एक शिष्य से कहा-"तुम जाओ, सामने जो गाँव दिखाई देता
है, उसके अमुक स्थान पर एक गधा चरता मिलेगा, तुम उसे सवारी के लिए ले आना।"
शिष्य गया और उसे ले आया। लोग आश्चर्यचकित थे कि ईसामसीह की इस दिव्य दृष्टि
का रहस्य क्या है ? पर यह रहस्य प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान
है, बशर्ते कि हम भी उसे जाग्रत् कर पायें।
जिन शक्तियों और सामर्यों का ज्ञान हमारे भारतीय ऋषियों ने आज से हजारों वर्ष
पूर्व बिना किसी यंत्र के प्राप्त किया था, आज विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र
(बायोलॉजी) द्वारा उसे प्रमाणित किया जाना यह बताता है कि हमारी योग-साधनाएँ,
जप और ध्यान की प्रणालियाँ समय का अपव्यय नहीं वरन् विश्व के यथार्थ को जानने
की एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रणाली है।
मस्तिष्क नियंत्रण प्रयोगों द्वारा डॉ० जोजे डेलगाडो ने भी यह सिद्ध कर दिया
है कि मस्तिष्क के दस अरब न्यूरोन्स के विस्तृत अध्ययन और नियंत्रण से न केवल
प्राणधारी की भूख-प्यास, काम-वासना आदि पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है
वरन् किसी के मन की बात जान लेना, अज्ञात रूप से कोई बिना तार की तरह संदेश
और प्रेरणाएँ भेजकर कोई भी कार्य करा लेना भी संभव है। न्यूरोन मस्तिष्क से
शरीर और शरीर से मस्तिष्क में संदेश लाने, ले जाने वाले बहुत सूक्ष्म कोषों
(सेल्स) को कहते हैं, इनमें से बहुत पतले श्वेत धागे से निकले होते हैं, इन
धागों से ही इन कोषों का परस्पर संबंध और मस्तिष्क में जाल-सा बिछा हुआ है।
यह कोष जहाँ शरीर के अंगों से संबंध रखते हैं, वहाँ उन्हें ऊर्ध्वमुखी बना
लेने से प्रत्येक कोषाणु सृष्टि के दस अरब नक्षत्रों के प्रतिनिधि का काम कर
सकते हैं, इस प्रकार मस्तिष्क को ग्रह-नक्षत्रों का एक जगमगाता हुआ यंत्र कह
सकते हैं।
डॉ० डेलगाडो ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए कई सार्वजनिक प्रयोग करके
भी दिखाये। अली नामक एक बंदर को केला खाने के लिए दिया गया। जब वह केला खा
रहा था, तब डॉ० डेलगाडो ने 'इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राफ' के द्वारा बंदर के
मस्तिष्क को संदेश दिया कि केला खाने की अपेक्षा भूखा रहना चाहिए, तो बंदर
भूखा होते हुए भी केला फेंक दिया। 'इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राफ' एक ऐसा यंत्र
है, जिसमें विभिन्न क्रियाओं के समय मस्तिष्क में उठने वाली भावतरंगों को
अंकित कर लिया गया है। किसी भी प्रकार की भाव तरंग को विद्युत् शक्ति द्वारा
तीव्र कर देते हैं तो मस्तिष्क के शेष सब भाव दब जाते हैं और वह एक ही भाव
तीव्र हो उठने से मस्तिष्क केवल वही काम करने लगता है।
डॉ० डेलगाडो ने इस बात को एक अत्यंत खतरनाक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध करके
दिखाया। एक दिन उन्होंने इस प्रयोग की सार्वजनिक घोषणा कर दी। हजारों लोग
एकत्रित हुए। सिर पर इलेक्ट्रोड जुड़े हुए दो खूखार सांड़ लाये गये।
इलेक्ट्रोड एक प्रकार का एरियल है, जो रेडियो ट्रांसमीटर द्वारा छोड़ी गई
तरंगों को पकड़ लेता है। जब दोनों सांड़ मैदान में आये तो उस समय की भयंकरता
देखते ही बनती थी, लगता था दोनों सांड़ डेलगाडो का कचूमर निकाल देंगे, पर वे
जैसे ही डेलगाडो के पास पहुंचे उन्होंने अपने यंत्र से संदेश भेजा कि युद्ध
करने की अपेक्षा शात रहना अच्छा है, तो बस फुसकारते हुए दोनों सांड़ ऐसे
प्रेम से खड़े हो गये, जैसे दो बकरियाँ खड़ी हों। उन्होंने कई ऐसे प्रयोग
करके रोगियों को भी अच्छा किया।
सामान्य व्यक्ति के मस्तिष्क में २० वाट विद्युत शक्ति सदैव संचालित होती
रहती है, पर यदि किसी प्रविधि (प्रोसेस) से प्रत्येक न्यूरोन को सजग किया जा
सके तो दस अरब न्यूरोन, दस अरब डायनमो का काम कर सकते हैं। उस गर्मी, उस
प्रकाश, उस विद्युत् क्षमता का पाठक अनुमान लगायें कितनी अधिक हो सकती होगी।
विज्ञान की यह जानकारियाँ बहुत ही सीमित हैं। मस्तिष्क संबंधी भारतीय ऋषियों
की शोधे इससे कहीं अधिक विकसित और आधुनिक हैं। हमारे यहाँ मस्तिष्क को
देवभूमि कहा गया है और बताया है कि मस्तिष्क में जो सहस्र दल कमल है, वहाँ
इंद्र और सविता विद्यमान हैं। सिर के पीछे के हिस्से में रुद्र और पूषन देवता
बताये हैं। इनके कार्यों का विवरण देते हुए शास्त्रकार ने इंद्र और सविता को
चेतन शक्ति कहा है और रुद्र एवं पूषन को अचेतन। दरअसल वृहत् मस्तिष्क
(सेरिब्रम) ही वह स्थान है, जहाँ शरीर के सब भागों से हजारों नस-नाड़ियाँ आकर
मिली हैं। यही स्थान शरीर पर नियंत्रण रखता है, जबकि पिछला मस्तिष्क
स्मृति-शक्ति का केंद्र है। अचेतन कार्यों के लिए यहीं से एक प्रकार के
विद्युत् प्रवाह आते रहते हैं।
मस्तिष्क का यह चेतन भाग सदैव क्रियाशील रहता है। जन्म के समय भी शरीर रचना
का विकास यहीं से होता है और इसके क्षतिग्रस्त होने पर ही संपूर्ण मृत्यु
होती है। शारीरिक मृत्यु (क्लिनिकल डेथ) हो जाने पर भी जब तक यह भाग जीवित
रहता है, तब तक व्यक्तित्व मुर्दा नहीं होता। इसके अनेक उदाहरण भी पाये गये
हैं।
सन् १८9६ में कलकत्ता में फ्रैंक लेसली नामक एक अंग्रेज का हृदयगति रुक जाने
से निधन हो गया। उसके परिवार में औरों की भी हृदयगति रुकने से मृत्यु हुई थी,
इसलिए उसकी मृत्यु निश्चित मानकर उसे ताबूत में बंद कर कब्रिस्तान में गाड़
दिया गया। उसके परिवार वाले उसे उटकमंड के सेंट जॉन चर्च के कब्रिस्तान में
उसे गाड़ना चाहते थे, किंतु इसके लिए आवश्यक आज्ञा ६ माह बाद मिली। जब ताबूत
को बाहर निकाला गया और रस्म के अनुसार उसे खोलकर देखा गया तो लोग घबड़ाकर
पीछे हट गये, ६ माह पूर्व लाश जिस स्थिति में रखी थी, अब उससे बिलकुल भिन्न
थी। लेसली की लाश चित्त और दोनों हाथों का क्रास बनाते हुए लिटाई गई थी,
किंतु अब वह औंधी पड़ी थी, पेंट और कमीज फाड़े हुए थे, मुख के पास खून गिरा
था, कई जगह से उँगलियाँ चबाई हुई थी।
मृत्यु के पूर्व डॉक्टरों ने सारी परीक्षा ठीक-ठीक कर ली थी, कब्र और ताबूत
के अंदर कोई कीड़ा भी न जा सकता था, फिर यह स्थिति कैसे हुई। निःसंदेह उसकी
अंतिम चेतना जब मस्तिष्क के अदृश्य भाग में थी तभी उसे दफना दिया गया, पर जब
चेतना लौटी होगी तो उस समय शरीर साँस लेने की स्थिति में न था। भय और क्रोध
में ही उसने निकलने का प्रयत्न किया होगा, तभी कपड़े फटे होंगे और अंत में
रक्त-वमन के साथ उसकी मृत्यु हुई होगी।
एडिनबरा में लड़कियों के होस्टल में एक बार एक लड़की बीमार पड़ी। डॉक्टरी
उपचार के बावजूद उसके शरीर के जीवन के सब लक्षण लुप्त हो गये। नाड़ी चलना बंद
हो गई, श्वास की गति रुक गई। डॉक्टरों ने लड़की को मृत घोषित कर दिया और उसकी
अंत्येष्टि की आज्ञा दे दी गई।
किंतु सप्रसिद्ध डॉक्टरों की घोषणा के बाद भी होस्टल संरक्षिका (वार्डन) ने
लड़की की अंत्येष्टि क्रिया करने से इंकार कर दिया। उसने कहा-"इसके शरीर से
जब तक दुर्गंध नहीं. आती, मैं इसे मृतक नहीं मानती, भले ही डॉक्टर कुछ कहें।"
दस दिन तक लड़की उसी अवस्था में पड़ी रही। शरीर में सड़ने या दुर्गंध के कोई
लक्षण नहीं थे। डॉक्टर इस घटना से स्वयं भी आश्चर्यचकित थे। आश्चर्य उस समय
और बढ़ गया, जब तेरहवें दिन लड़की जीवित हो गई और कुछ ही दिन में स्वस्थ भी
हो गई।
संत हरिदास ने सिख राजा रणजीतसिंह के आग्रह पर अंग्रेज जनरल वेंट्ररा को १०
दिन और ४० दिन की योग समाधि जमीन में जीवित गड़कर दिखाई थी। जब वे मिट्टी से
निकले थे, तब उनका चोटी के पास वाला स्थान अग्नि की तरह गर्म था।
यह स्थान सप्तधार सोम रोदसी' कहलाता है। रोदसी का अर्थ होता है दो खंडों
वाला-दोनों खंड इंद्र और सविता, मध्य भाग को अंतरिक्ष और अनुमस्तिष्क को
पृथ्वी कहा है। इनमें क्रमश: अग्नि, स्वर्गद्वार, अत्रि, द्रोणकलश और अश्विनी
आदि सात प्रमुख शक्तियाँ काम करती हैं। इन सात शक्तियों को पैरासेल्सस ने भी
अपोलो और डैविड दो भागों में विभक्त किया है और स्वीकार किया है कि यह सात
पुष्प मस्तिष्क की सूक्ष्म आध्यात्मिक भावनाओं से संबंध रखते हैं। इन सात
भागों को शरीर रचना शास्त्र अब सात शून्य स्थानों (वेन्ट्रिकिल्स) के रूप में
जानने लगा है। पहला, दूसरा और चौथा खाली स्थान मस्तिष्क के दायें और बायें।
तीसरा उसके उसके नीचे पीनियल और पिट्यूटरी ग्रंथि से जुड़ा होता है। पाँचवां
तीसरे के नीचे सेरीबेलम के स्थान पर है, छठवां मस्तिष्क से निकलता है एवं
नीचे रीढ़ में होता हआ सैक्रोकोक्सिजियल गैग्लियन अर्थात रीढ़ के निचले भाग
में पहुँचता है। सातवां खोपड़ी के दायें भाग में बादल की तरह छाया रहता है।
वरुण देवता को तीनों लोकों में व्याप्त बताया गया-
यस्य श्वेता विचक्षणा विस्रो भूमीरधिक्षितः थिरुत्तराणि
पप्रतुः वरुणस्य ध्रुवं सदः। स सप्तानाभिरज्यति।।
अर्थात-वरुण देव की रहस्यमयी धारणा किये हुए शिरायें तीनों लोकों में व्याप्त
हैं, तीनों उत्तर दिशा के स्नायु-केंद्रों से बँधी हैं, यहाँ वरुणदेव का मूल
निवास है और यहीं से निकले हुए सात स्नायु केंद्र सारे शरीर और मानसिक चेतना
का नियंत्रण करते हैं। शरीर रचना शास्त्रियों ने भी इसे सेरीब्रोस्पाइनल
फ्लूइड के नाम से स्वीकार किया है और यह माना है कि इसमें ६६ प्रतिशत जल ही
होता है, एक प्रतिशत विभिन्न लवण होते हैं।
विज्ञान और अध्यात्म की यह तुलनात्मक जानकारियाँ यद्यपि अपूर्ण हैं, पर वे एक
ऐसे दर्शन के द्वार अवश्य खोलती हैं, जिनमें वैज्ञानिक भी यह स्वीकार कर सकते
हैं कि मनुष्य मस्तिष्क से नितांत शरीर ही नहीं वरन् एक विचारविज्ञान भी है
और उस दिशा में शोध के लिए अभी विज्ञान का सारा क्षेत्र अधूरा पड़ा है। लोग
चाहें तो उसे आध्यात्मिक और यौगिक क्रियाओं द्वारा खोजकर एक महत्तम शक्ति के
स्वामी होने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं। देवताओं के नाम से विख्यात इन
खाली स्थानों (वेन्टिकिल्स) में शक्ति के अज्ञात स्रोत छुपे हुए हैं।
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