श्रंगार - प्रेम >> अन्तर्दृष्टि अन्तर्दृष्टिरामगोपाल वर्मा
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एक सौन्दर्यपरक उपन्यास....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत उपन्यास मानवीय धरातल पर निर्मित है। इसका नायक साधारण युवा है
जो बाह्य और आन्तरिक प्रेरक स्रोतों से ग्रस्त है। एक सामन्य व्यक्ति पर
समाज की क्या प्रतिक्रिया होगी, वही उस पर होती है। उसके आन्तरिक स्रोत
उसमें निरन्तर सौन्दर्य दृष्टि को विकसित करते रहते हैं।
सामाजिक-पारिवारिक परिस्थितियों से जूझता हुआ यह युवक पाठकों को सौन्दर्य
दृष्टि की एक दिशा प्रदान करता है तथा यथार्थ की परख करता हुआ हमारी
बहुत-सी व्यक्तिगत गुत्थियों को सुलझाने में सफल होता है।
उपन्यास का कथानक मनोवैज्ञानिक है। मन में उठीं सत् भावनाएँ कैसे असत् रूप धारण कर लेती हैं, मस्तिष्क के शुद्ध विचार कैसे दूषित हो जाते हैं, यह बताने का प्रयास उपन्यासकार करता है। युवा के मन में प्रेम सकारात्मक है या नकारात्मक इसका सुन्दर एवं सुस्पष्ट विश्लेषण इस उपन्यास में हुआ है। किन परिस्थितियों में प्रेम मानव के विकास का स्रोत बना है और कौन-सी परिस्थितियाँ उसे विनाश की ओर ले जाती हैं, इसका तार्किक विवेचन इस उपन्यास में मिलता है। प्रेम, व्यक्तिगत रूप में क्या है, पारिवारिक रूप में उसकी स्थापना कहाँ होती है, और सामाजिक बद्धता प्रेम को कितनी छूट देती है, इन विषयों पर मनोवैज्ञानिक चर्चा इस उपन्यास में हुई है।
उपन्यास का कथानक मनोवैज्ञानिक है। मन में उठीं सत् भावनाएँ कैसे असत् रूप धारण कर लेती हैं, मस्तिष्क के शुद्ध विचार कैसे दूषित हो जाते हैं, यह बताने का प्रयास उपन्यासकार करता है। युवा के मन में प्रेम सकारात्मक है या नकारात्मक इसका सुन्दर एवं सुस्पष्ट विश्लेषण इस उपन्यास में हुआ है। किन परिस्थितियों में प्रेम मानव के विकास का स्रोत बना है और कौन-सी परिस्थितियाँ उसे विनाश की ओर ले जाती हैं, इसका तार्किक विवेचन इस उपन्यास में मिलता है। प्रेम, व्यक्तिगत रूप में क्या है, पारिवारिक रूप में उसकी स्थापना कहाँ होती है, और सामाजिक बद्धता प्रेम को कितनी छूट देती है, इन विषयों पर मनोवैज्ञानिक चर्चा इस उपन्यास में हुई है।
भूमिका
अन्तर्दृष्टि का निर्माण आन्तरिक स्रोतों से ही सम्भव है। अन्तर्दृष्टि एक
चेतना है जो मनुष्य को दिशा प्रदान करती है। एक व्यक्ति को एक वस्तु कैसे
दिखाई देनी चाहिए, इसका ज्ञान उस व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि ही प्रदान करती
है। दो व्यक्तियों की अन्तर्दृष्टि में एक ही वस्तु भिन्न-भिन्न दिखाई
देगी। हर व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि का स्तर भिन्न होता है। यह स्तर उसके
चिन्तन मनन से ही निर्मित हुआ है। चिन्तन, मनन, ज्ञान, बुद्धि, भावावेग और
आभास की प्रक्रिया मनुष्य के मन और मस्तिष्क से विकारों का निष्कासन करती
हैं। विकार रहित मन-मस्तिष्क सकारात्मक रूप धारण कर अपनी शक्तियों का
विकास करने में सक्षम हो पाते हैं। विकास अभ्यास से ही सम्भव है। इस
अभ्यास को ‘तपस्या’ भी कहते हैं। राम में रामत्व और
कृष्ण में
कृष्णत्व इसी योग और तप के बल पर जागृत हुआ था। योग में सन्तुलन है और तप
में अभ्यास है। बिना सन्तुलन के अभ्यास विकृत भी हो सकता है। जिन मनुष्यों
ने ऐसा किया, वे विकसित होते हुए भी विकृत हो गए। रावण, कंस, हिरण्यकश्यप,
राजा नहुष आदि को ऐसी ही कोटि में रखा जाएगा।
प्रस्तुत उपन्यास मानवीय धरातल पर निर्मित है। इसका नायक साधारण युवा है जो ब्रह्म और आन्तरिक प्रेरक स्त्रोतों से ग्रस्त है। एक सामान्य व्यक्ति पर समाज की क्या प्रतिक्रिया होगी, वही उस पर होती है। उसके आन्तरिक स्रोत उसमें निरन्तर सौन्दर्य दृष्टि को विकसित करते रहते हैं। सामाजिक-परिवारिक परिस्थितियों से जूझता हुआ यह युवक पाठकों को सौन्दर्य दृष्टि की एक दिशा प्रदान करता है तथा यथार्थ की परख करता हुआ हमारी बहुत-सी गुत्थियों को सुलझाने में सफल होता है।
उपन्यास का कथानक मनोवैज्ञानिक है। मन में उठी सत् भावनाएं कैसे असत् रूप धारण कर लेती हैं, मस्तिष्क के शुद्ध विचार कैसे दूषित हो जाते हैं, यह बताने का प्रयास उपन्यासकार करता है। युवा के मन में प्रेम सकारात्मक है या नकारात्मक इसका सुन्दर एवं सुस्पष्ट विश्लेषण इस उपन्यास में हुआ है। किन परिस्थितियों में प्रेम मानव के विकास का स्रोत बनता है और कौन-सी परिस्थितियाँ उसे विनाश की ओर ले जाती हैं, इसका तार्किक विवेचन इस उपन्यास से मिलता है। प्रेम व्यक्तिगत रूप से क्या है, पारिवारिक रूप से उसकी स्थापना कहाँ होती है, और सामाजिक बद्धता प्रेम को कितनी छूट देती है, इन विषयों पर मनोवैज्ञानिक चर्चा इस उपन्यास में हुई है।
श्रृंगार को सभी रसों का राजा कहा गया है। मनुष्य मन पर इसका गहरा प्रभाव काम करता है। मानव-मन प्रेम पर जितना शीघ्र केन्द्रित होता है, उतना किसी अन्य भाव पर नहीं। इस प्रतिपादन मन की अवस्था में मानव की विकास की सम्भावनाएं छिपी हैं। उपन्यासकार ने उन संभावनाओं की ओर संकेत कर नायक को सफलता दिलाई है। सौन्दर्य दृष्टि प्रेम से निर्मित होती है। इस सौन्दर्य दृष्टि से उसके कर्म में नकारात्मकता हट जाती है और सकारात्मकता दिखाई देने लगती है। लेखक ने अन्तर्दृष्टि को सौन्दर्य से परिपूर्ण व्यक्ति, परिवार और समाज के हित के मार्ग खोजे हैं। किसी भी पक्ष की अवहेलना नहीं की गई है। तीनों पक्षों को महत्त्वपूर्ण माना है। लेखक मानता है कि सौन्दर्य दृष्टि मानवविकास का प्रमुख साधन है। इसके परिणामस्वरूप मनुष्य को अपने में सौन्दर्य-दृष्टि विकसित करने की सलाह भी दी गयी है। इस सन्दर्भ में उपन्यास के कुछ अंश द्रष्टव्य हैं—
(1) ‘‘बौद्धिक पक्ष के बिना आदमी मूर्खता की ओर अग्रसर होता है। भावनाओं में बहना अनुचित नहीं है, पर भावनाओं में बहते रहना अनुचित है। बुद्धि का सहारा किसी भी भावना को संयमित करता है।’’
(2) ‘‘दैविक क्रोध की स्थिति में सकारात्मक सदा बनी रहती है। राक्षसी क्रोध में व्यक्ति मुख्य है। दैविक क्रोध में समाज मुख्य है। राक्षसी क्रोध का लाभ एक व्यक्ति को होगा। दैविक क्रोध से प्राप्त वस्तु में सभी का हिस्सा है। राम का क्रोध दैविक था जबकि रावण के क्रोध में उसका अपना अहम काम कर रहा था। कृष्ण के क्रोध में जन कल्याण निहित था, दुर्योधन के क्रोध में गद्दी का लोभ था।’’
इन तीनों रूपों की स्थिति सौन्दर्य दृष्टि में आकर सन्तुलित हो जाती है। प्रेम का सकारात्मक रूप स्थितित्रयी को महत्त्व देता है।
लेखक का यह पहला उपन्यास है। इससे पूर्व सैंकड़ों कहानियों के द्वारा लेखक का अच्छा मन्थन प्रयासित हुआ है। आशा है कि सौन्दर्य दृष्टि का प्रतिपादन प्रस्तुत उपन्यास ‘अन्तर्दृष्टि’ पाठकों की संवेदनाओं और बौद्धिकता का सन्तुष्ट करते हुए अपने नाम को सार्थक करेगा।
प्रस्तुत उपन्यास मानवीय धरातल पर निर्मित है। इसका नायक साधारण युवा है जो ब्रह्म और आन्तरिक प्रेरक स्त्रोतों से ग्रस्त है। एक सामान्य व्यक्ति पर समाज की क्या प्रतिक्रिया होगी, वही उस पर होती है। उसके आन्तरिक स्रोत उसमें निरन्तर सौन्दर्य दृष्टि को विकसित करते रहते हैं। सामाजिक-परिवारिक परिस्थितियों से जूझता हुआ यह युवक पाठकों को सौन्दर्य दृष्टि की एक दिशा प्रदान करता है तथा यथार्थ की परख करता हुआ हमारी बहुत-सी गुत्थियों को सुलझाने में सफल होता है।
उपन्यास का कथानक मनोवैज्ञानिक है। मन में उठी सत् भावनाएं कैसे असत् रूप धारण कर लेती हैं, मस्तिष्क के शुद्ध विचार कैसे दूषित हो जाते हैं, यह बताने का प्रयास उपन्यासकार करता है। युवा के मन में प्रेम सकारात्मक है या नकारात्मक इसका सुन्दर एवं सुस्पष्ट विश्लेषण इस उपन्यास में हुआ है। किन परिस्थितियों में प्रेम मानव के विकास का स्रोत बनता है और कौन-सी परिस्थितियाँ उसे विनाश की ओर ले जाती हैं, इसका तार्किक विवेचन इस उपन्यास से मिलता है। प्रेम व्यक्तिगत रूप से क्या है, पारिवारिक रूप से उसकी स्थापना कहाँ होती है, और सामाजिक बद्धता प्रेम को कितनी छूट देती है, इन विषयों पर मनोवैज्ञानिक चर्चा इस उपन्यास में हुई है।
श्रृंगार को सभी रसों का राजा कहा गया है। मनुष्य मन पर इसका गहरा प्रभाव काम करता है। मानव-मन प्रेम पर जितना शीघ्र केन्द्रित होता है, उतना किसी अन्य भाव पर नहीं। इस प्रतिपादन मन की अवस्था में मानव की विकास की सम्भावनाएं छिपी हैं। उपन्यासकार ने उन संभावनाओं की ओर संकेत कर नायक को सफलता दिलाई है। सौन्दर्य दृष्टि प्रेम से निर्मित होती है। इस सौन्दर्य दृष्टि से उसके कर्म में नकारात्मकता हट जाती है और सकारात्मकता दिखाई देने लगती है। लेखक ने अन्तर्दृष्टि को सौन्दर्य से परिपूर्ण व्यक्ति, परिवार और समाज के हित के मार्ग खोजे हैं। किसी भी पक्ष की अवहेलना नहीं की गई है। तीनों पक्षों को महत्त्वपूर्ण माना है। लेखक मानता है कि सौन्दर्य दृष्टि मानवविकास का प्रमुख साधन है। इसके परिणामस्वरूप मनुष्य को अपने में सौन्दर्य-दृष्टि विकसित करने की सलाह भी दी गयी है। इस सन्दर्भ में उपन्यास के कुछ अंश द्रष्टव्य हैं—
(1) ‘‘बौद्धिक पक्ष के बिना आदमी मूर्खता की ओर अग्रसर होता है। भावनाओं में बहना अनुचित नहीं है, पर भावनाओं में बहते रहना अनुचित है। बुद्धि का सहारा किसी भी भावना को संयमित करता है।’’
(2) ‘‘दैविक क्रोध की स्थिति में सकारात्मक सदा बनी रहती है। राक्षसी क्रोध में व्यक्ति मुख्य है। दैविक क्रोध में समाज मुख्य है। राक्षसी क्रोध का लाभ एक व्यक्ति को होगा। दैविक क्रोध से प्राप्त वस्तु में सभी का हिस्सा है। राम का क्रोध दैविक था जबकि रावण के क्रोध में उसका अपना अहम काम कर रहा था। कृष्ण के क्रोध में जन कल्याण निहित था, दुर्योधन के क्रोध में गद्दी का लोभ था।’’
इन तीनों रूपों की स्थिति सौन्दर्य दृष्टि में आकर सन्तुलित हो जाती है। प्रेम का सकारात्मक रूप स्थितित्रयी को महत्त्व देता है।
लेखक का यह पहला उपन्यास है। इससे पूर्व सैंकड़ों कहानियों के द्वारा लेखक का अच्छा मन्थन प्रयासित हुआ है। आशा है कि सौन्दर्य दृष्टि का प्रतिपादन प्रस्तुत उपन्यास ‘अन्तर्दृष्टि’ पाठकों की संवेदनाओं और बौद्धिकता का सन्तुष्ट करते हुए अपने नाम को सार्थक करेगा।
अन्तर्दृष्टि
आँखें खुल गईं। नज़र घड़ी पर गई। एक बजा है। आँखें मलीं, फिर घड़ी देखी,
अब भी एक बजा है। घड़ी की टिक-टिक बता रही है कि घड़ी बन्द भी नहीं है; और
न ही शरीर में कहीं दर्द है फिर नींद क्यों टूटी ! यह मैंने अपनी आँखों से
पूछा। आँखों ने नींद टूटने का कारण तुरन्त बताया और मेरे चिन्तन को भावना
में बदल दिया। मेरी आँखें जा गड़ीं कॉलेज के नुक्कड़ पर जहाँ उसे मैंने
पहले दिन कई बार खड़े देखा था। देखा था तो क्या हुआ ! आँखों से मैंने पुनः
प्रश्न किया कि नींद क्यों टूटी ! मैं तर्क करता पर आँखें सहज में उत्तर
देतीं कि मैंने ही नहीं उसने भी मुझे निहारा था। उसकी सुन्दर आँखें मेरी
आँखों से टकराई नहीं थी बल्कि मेरी आँखों को परास्त कर गईं थीं। मोटी,
बड़ी और कजरारी आँखें अब भी मेरी आँखों को तंग कर रही हैं। घोड़े बेचकर
सोने वाला मैं आँखों से परास्त हो खो बैठा हूँ अपनी नींद।
अब करवटें बदलने के अतिरिक्त मेरे पास कोई काम नहीं था। जब भी सोने के लिए अपनी आँखें बन्द करता, वे आँखें सामने आ जातीं। मन को समझाता कि मेरा उन आँखों से कोई सम्बन्ध नहीं है, मुझे सोने दो। फिर करवट बदलता, फिर वही स्थिति बन जाती। दोष मेरी आँखों में नहीं था, दोष था उसका मुझे निहारना। बड़ी आँखों में ही सौन्दर्य छिपा रहता है। उन्हें सजाने के भी अच्छे उपमान खोज लिए गये हैं। काजल लगाते ही आँखों में चार-चाँद लग जाते हैं। ऊपर की भवें तो मैं देख भी नहीं पाया था, आँखों की बनावट पर ही मेरी आँखें जाकर टिक गई थीं। उनमें सन्तुलित पुतलियाँ एक पल में ही मेरे प्रश्न का उत्तर देकर दूसरी दिशा की ओर मुड़ जाती थीं। उनमें सन्तुलित पुतलियाँ एक पल में ही मेरे प्रश्न का उत्तर देकर दूसरी दिशा की ओर मुड़ जाती थीं। उस दिशा में शून्य को पाकर पुनः मेरी ओर मुड़तीं, तब तक मैं चार कदम चल चुका था। उन पुतलियों ने एक ही उत्तर दिया था। उस उत्तर में सम्भावनाएँ नहीं थीं। आशा भरे उस उत्तर ने आज मेरी नींद छीन ली। कल मैं पुनः उन आँखों को देखूँगा। उन मोटी, काजल से भरी आँखों को देखूँगा। पुनः मिलन की कल्पना से मिले सुख ने मेरे मन को विकारों से निवृत्त किया और मैं गहरी नींद में सो गया।
अगले दिन फिर वही हुआ। वही कॉलेज का नुक्कड़। वही पात्रा। वही आँखें। काजल से आज भी सजी थीं। मैं जैसे ही उसके पास से निकलता, मैं उन आँखों को निहारना चाहता। पर मेरे अन्दर बैठी शर्म मुझे बेशर्म कह देती। मेरी आँखें उन आँखों पर से हट जातीं। मन कहता कि मैं मुड़कर देखूँ, शर्म तुरन्त मेरा कान खींच शर्म का पाठ पढ़ा देती। कई चक्कर मैंने लगाए, पर मैं भरपूर न देख पाया। अन्तिम बार मैंने मन को थामा और थोड़ा बेशर्म बनने का साहस जुटाया। मैं बहुत धीमी चाल से उस ओर चला। यह क्या धीमी गति से मैं उस स्थान से गुज़र गया, पर आँखें नहीं देख पाया। उसने आँखें उठाई ही नहीं। उसकी आँखें नीचे की ओर देखती रहीं। इस बार मुझे पलकें दिखाई दीं। बन्द आँखों पर पड़े ये पट भी कम सुन्दर नहीं थे। इन पलकों के मध्य में ऊपर की ओर गोल उभार था। इस उभार के नीचे मोटी पुतलियाँ छिपकर भी मानो मुझे देख रही थीं। चौड़ाई में पलकें औसतन अधिक थीं और लम्बाई में कम चौड़ी होती हुई कोनों से जुड़ गई थीं। किसी कुशल चित्रकार की बनावट प्रतीत होती थी।
पलकों से जुड़े बाल गोल घूमकर ऊपर की ओर अनुशासन में मुड़े थे। उनका एक साथ ऊपर की ओर घूम जाना बहुत सुन्दर लग रहा था। उन पर लगे काजल ने उन्हें और अत्यधिक काला ही नहीं बनाया था बल्कि अनुशासित भी कर दिया था। वे सख्त होकर स्थिर थे। इन बालों के मध्य बचे स्थान में से काजल की एक रेखा झाँक रही थी जो आँख की निचली छोटी सहायक पलक को सजाने में समर्थ थी। काजल की एक और रेखा जो पलकों के किनारे-किनारे खींची गई थी वह पलकों के बन्द होने पर ही मुझे दिखाई दी। एक बार के लिए तो मुझे भ्रम हुआ कि मैं किसी पात्रा की आँखें देख रहा हूँ या किसी चित्रकार की बनाई आँखें निहार रहा हूँ। जिस समय मेरी आँखें उन बन्द पलकों पर थीं, उस समय उसकी पुतलियाँ बेचैन थीं। वे हल्के से कभी इधर और कभी उधर हिल जाती थीं। इनका हिलना पलकें स्पष्ट कर देती थीं। पलकों में हो रही हलचल मुझे छू जाती थी
पर समय नहीं था। क़दम रुकते-रुकते चलते चले गए। मानो घंटी बज गई। पीरियड समाप्त हो गया। समय के इन पलों ने मुझे तृप्ति दी। उन पलकों का सुन्दर चित्र मेरी आँखों में उतर आया। आज की रात भी मैं सो नहीं पाया। बार-बार वे गोल, मोटी काजल से श्रंगारित और बालों से पल्लवित उसकी आँखे मेरी आँखों में उभर आतीं और मेरी नींद टूट जाती। उसका पलकों का झुकाना मुझे बहुत अच्छा लगा था। मुझे जब यह महसूस हुआ कि उसने मुझसे शर्माकर अपनी पलकें झुका ली थीं और मैं पलकों का सौन्दर्य निहार सका था, तब मुझे सन्तोष मिला। मैं उससे जुड़ गया। उसका शर्माना मुझे भाया। उस शर्माने में मुझे अपनापन झाँकता दिखाई दिया। मैं उन पलकों को कल फिर निहारूँगा। इन भावों से भरी कल्पना ने मुझे सुख दिया और मुझे नींद आ गई।
आज जब मैं उस गलियारे से गुज़रा तो वे पलकें झुकी थीं। अधखुली पलकों में से उन पुतलियों ने मुझे ज़रा देखा तो मैं रुक गया। पलकें फिर झुक गईं और मैं आगे बढ़ गया। मुड़कर फिर देखा कि शायद पलकें उठी हों। पलकें तो नहीं उठीं, पर उसकी भौंहों ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। बन्द आँखों का सौन्दर्य इन भौंहों से प्रेरित था। काले रंग में रंगी गोल आकार मानो इन्द्रधनुष के दो टुकड़े काले रंग में रंग कर चिपका दिए गए हों। एक ओर से गोल और दूसरी ओर से आँखों के साथ झुकती पतली-पतली पलकें सुन्दर लग रही थीं। प्रकृति ने इन्हें बनाने से पूर्व कितने डिजाइन बनाए होंगे। दोनों पलकों की समानता में तनिक भी अन्तर नहीं था। पलकों का एक-एक बाल दायरे में सन्तुलित था। मानो किसी भी बाल को दायरे से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी। क्या सौन्दर्य था इनमें। काले फूल की दो पतली पंखुड़ियाँ थीं। मन कर रहा था कि अभी छू कर देख लूँ। पर नहीं, हल्की-सी शर्म और ढेर सारे डर ने मुझे आशा नहीं दी और मन की बात मन में लिए आगे बढ़ गया।
रात को फिर नींद बिखर गई। नहीं आई, आई ही नहीं। मेरी आँखों को अब नींद पसन्द नहीं थी। मेरी आँखों में समा गई थीं वे आँखें, पसन्द थीं। देर रात तक मैं देखता रहा उन सुन्दर आँखों को। बन्द आँखों में से पलकों के मध्य उभार लेती मोटी-मोटी पुतलियाँ हलचल कर मुझे स्थिर कर देतीं। भौंहों के सौन्दर्य की भाषा तो मैं पढ़ पाता, पर इन पलकों में क़ैद पुतलियाँ क्या कह रही हैं समझ नहीं पाता। कोई मीठी-सी उलझन अवश्य है। सुन्दर भौंहें मेरे नज़दीक आतीं और मेरी पलकों को झकझोर कर मेरी नींद उड़ा देतीं। भौंहों, पलकों, पुतलियों और काजल ने मुझे पूरी रात सताया। मैं सुबह देर तक सोता रहा। कॉलेज पहुँचा तो पहली पीरियड निकल चुका था। कॉलेज में पहुँचकर पढ़ने में रुचि कम हो जाती और उन आँखों को निहारने की लालसा बढ़ जाती।
आज वह अकेली नहीं थी। अपनी किसी मित्र के साथ खड़ी थी। वे दोनों आपस में बातें कर रही थीं। मुझे बातों से क्या लेना। मुझे तो चाहिए थीं उसकी वे मनमोहक आँखें। मैं जैसे ही पास से गुज़रा वैसे ही उन आँखों ने एक पल मुझे निहारा। उसकी गर्दन अपनी ओर से हटकर मेरी ओर मुड़ी। कितना आकर्षक था वह पल। उन आँखों में आज मुझे कुछ नयापन दिखाई दिया। काजल उसी तरह शोभायमान था। उन बड़ी-बड़ी आँखों में आज मुझे भारी खिंचाव लगा। पलकें जब उठीं तो उन पर अनुशासित घुमाव लेते हुए बाल हल्के से एक साथ उठे थे। इन बालों ने पुतलियों को इशारा किया था कि मैं आ गया हूँ और पुतलियाँ मानो मेरा पहले से इन्तजार कर रही हों, मेरी ओर आहिस्ता से घूमीं और फिर पलकें शर्म के बोझ से उन पर गिर पड़ीं। उन्हें पलकों ने अपने आगोश में बन्द कर लिया। निष्ठुर गर्दन भी घूम गई मेरी ओर से। इस प्रक्रिया ने मुझमें सिहरन पैदा कर दी। मेरी गर्दन इस ओर थी और क़दम सामने की ओर मैं टकरा गया किसी से। गिर गई मेरी पुस्तकें मेरे हाथ से। यह टकराहट मेरे पक्ष में थी। मैंने कुछ पल अपनी आँखें पुस्तकों को उठाने में लगाए। पुस्तकें मैं ऐसे उठा रहा था मानो नेत्रहीन हूँ। मेरी आँखें पुस्तकों पर नहीं, उन आँखों की ओर थीं। कुछ पल आवश्यकता से अधिक लगे पुस्तकें बटोरने में।
इन कुछ पलों में आँखों के साथ उसकी पेशानी दिखाई दी। पेशानी का रूप आँखों के सौन्दर्य में बहुत कुछ जोड़ रहा था। इस पेशानी से ही उभर कर आई सुन्दर आकार लिए भौंहें पेशानी के गोरे रंग को उभार रही थीं। गोरे रंग की चौड़ी उभरी हुई पेशानी मुझे भा गई। पेशानी का आकार मानो देखकर बनाया गया। उसमें उचित उभार भी सोच-समझकर बनाने वालों ने रखा है। इसका क्या फार्मूला ऊपर वाले का है, यह तो इन्सान को नहीं पता पर आँखों का उभार पेशानी के उभार से ऐसी समता बनाए हुए है कि सुन्दर समन्वय में तनिक भी त्रुटि नहीं हुई है : पलकें जैसे ही उठती हैं उनके घुमावदार सुन्दर बाल भौंहों को छूते हैं और भौंहें पेशानी के सम्पूर्ण सौन्दर्य में खो जाती हैं। पेशानी के दोनों कोने घूम कर जब नीचे की ओर आते हैं तो भौंहों के कोनों छूते हुए आँखों के कोनों से मिलकर आँखों के सौन्दर्य में समा जाते हैं। आँखों की पुतलियाँ दायें-बायें घूमकर चोरी से मानो पेशानी के इन कोनों को चूम लेती हैं और पेशानी को भी वैसी ही सुखात्मक अनुभूति होती होगी जैसी मुझे हो रही है। मेरी आँखें उन पुतलियों में से निकल पलकों का सहारा ले भौंहों को चूम कर इन सुन्दर पेशानी में समा गई हैं। पेशानी का रंग आँखों के रंग से विषमता उत्पन्न कर रहा है। भौंहों, पलकें, पुतलियाँ और इन सब पर चढ़ा काला रंग पेशानी के गोरे रंग में सुन्दरता पैदा करता है। गोरे रंग का विरोधी होते हुए भी काला रंग पेशानी के सौन्दर्य में चार-चाँद लगा रहा है। मेरी आँखें ठहर नहीं पा रही हैं। पेशानी पर लगातार घूमे जा रही हैं। भौंहों को चूमकर वे उन कजरारी आँखों में उतर जाना चाहते हैं। कुछ पल कितने लम्बे हो गए, मुझे पता भी न चला। पुस्तकें उठाकर मुझे चलना था, मैं चल पड़ा, उस पेशानी की स्निग्धता को अपनी उंगलियों के स्पर्श में छिपाए।
आँखें सो नहीं पाईं। पूरी रात कल्पनाओं में गई। किसी ऐसे सुख की कल्पना जो लौकिक होते हुए भी लौकिक नहीं है। वह सुख जो लौकिक धरातल पर जन्मा और अलौकिक में जाकर समा गया। वे पलकें, वे भौंहों, वे पुतलियाँ, वह काजल, वह पेशानी सब लौकिक हैं, पर जिस सुख का आभास मुझमें जन्म ले रहा है, उसमें अलौकिकता के तत्व विद्यमान हैं। जितना भी एकात्म बढ़ता जाएगा, उतना ही सुख अलौकिक होता जाएगा। मुझे नींद न आना स्वाभाविक है। नींद न आने का सुख, नींद आने के सुख से बड़ा है। मैंने नींद को पास नहीं आने दिया और मुझे नींद नहीं आई। जब पेशानी की तरह-तरह की कल्पनाओं ने मुझमें अपार सुख भर दिया, तब मुझे नींद आ गई।
अगले दिन कॉलेज जाने के लिए जब तैयार हो रहा था तो बड़ा खुश था। मेरे हर काम में खुशी ज़ाहिर हो रही थी। मुझे खुश देख घर की दीवारें भी खुश थीं। मुझे खुश देख माँ मन ही मन मुसकुरा रही थी। पिता जी सन्तुष्ट थे। मेरी बहन थोड़ी चंचल है। वह ताड़ गई और पूछ बैठी, ‘‘भैया, आज आपने मुझे एक बार भी नहीं डाँटा। एक बार भी अपनी झुँझलाहट नहीं निकाली। रुमाल प्रेस न होने पर आप मुझे एक अफ़सर की तरह डाँटते। आज आप बहुत खुश हैं न’’ अनुजा की बात सुनते ही मुझे रात याद आ गई। रात से अब तक की मेरी दिनचर्या में मुझे बदलाव नज़र आया। आज का मेरा व्यवहार बदला हुआ है। मन में सन्तुष्टि है। मस्तिष्क में डर नहीं। मुझमें मानो ज़िन्दा रहने की इच्छा पैदा हो गई है। मुझे सब कुछ भाने लगा। जब मैं कुछ बोला तो अनुजा ने पुनः प्रश्न किया ‘‘बोलो न भैया, है न ज़रूर कोई बात ?’’
मैं मानो जागा। आसमान से उतर कर धरती पर आया। अब मैंने अपने स्वभाव के अनुसार डाँट लगाई, ‘‘अब तू ज़्यादा बातें बनाने लगी है। जितनी है उतनी ही बात किया कर।’’ मैं पकड़ा गया। वह चुप हो गई, पर समझ गई। वह ही नहीं माँ और पिता जी भी समझ गए। मेरे उत्तर से वह बात प्रकट हो गई जिसे मैं छिपाना चाहता था। उसका प्रश्न कुछ और था और मैंने उत्तर ऐसा दिया कि मैं अपने मिलन के सुख में बहन का दखल नहीं चाहता। यदि यही उत्तर अनजान बनकर दिया होता या खुशी का कोई बहाना बनाकर दिया जाता तो सम्भवतः चोरी न पकड़ी जाती। चोरी तो पकड़ी ही गई, भले ही अभी चोर हाथ नहीं आया। मैं सन्तुष्ट हुआ कि अनुजा ने लौटकर कोई और प्रश्न नहीं किया। प्रसन्नता का बोझ लेकर जब मैं घर से निकला तो आसमान बिलकुल साफ़ था। साफ़ ही नहीं, बहुत सुन्दर भी लग रहा था।
कॉलेज पहुँचते ही मैं असामान्य हो गया। उस उभरी और गोरी पेशानी को ढूँढ़ने लगा जिसने सुन्दर भौंहों को पनाह देकर कजरारी आँखों के अपने आगोश में भरा हुआ था। फिर मैं उसी स्थान से अपने तेज़ क़दमों को धीरे बनाता हुआ निकला। मेरी नज़र उस पेशानी पर गई। उस पेशानी की स्निग्धता स्पष्ट चमक रही थी। भौंहों आकार लिए आँखों का सौन्दर्य बढ़ा रही थीं। पलकें यथावत झुकी पुतलियों को ढँके हुए थीं। पलकों के बाल काजल से सख्त होकर अपना आकार लिए सुन्दरता बिखेर रहे थे। काजल की रेखा पलक के ऊपर इन बालों के सहारे स्पष्ट दिखाई दे रही थी। आँखों की कोरों से काजल की पतली छोटी रेखा सुन्दरता को दुगुना कर रही थी।
मेरे पहुँचते ही एक बार आँखें उठीं। इस बार आँखों ने मुझे भरपूर निहारा। अपनी पलकों को पूरी तरह भौंहों से छुआ दिया था। पुतलियों का आकार पूर्ण दिखाई पड़ रहा था। सफ़ेद आँखों के नीचे वाली पलकों पर काजल रेखा कोरों को छूटी हुई बाहर तक आकर पेशानी के अन्तिम छोर तक अंकित थी। आँखें क्या थीं, सौन्दर्य का सागर था जो मुझे अपने में डुबोने के लिए तैयार था। एक पल में ही पलकें गिर गईं। उन पुतलियों ने शर्माती और प्रश्न करती पुतलियों को ढँक लिया। पलकों के गिरने के साथ मेरी नज़रें भी नीचे की ओर आई और नाक पर आकर अटक गई। नाक पर मेरा ध्यान पहले न गया था। अब नाक को देखा तो मुझे कवियों की कल्पना याद आ गई। किस आधार पर कवियों ने कहा कि तोते की चोंच जैसे नाक सुन्दर होती है। गरुण की नाक भी तोते की तरह झुकी होती है, उसकी नाक को सुन्दर नहीं कहा गया। तोता स्वभाव से क्रूर नहीं। कवियों की मान्यताओं के काव्य सत्य के रूप में तोते की नाक को सबसे सुन्दर बता दिया।
मेरी मान्यता में जो नाक मैंने देखी वह सबसे सुन्दर है। उसकी नाक की बनावट मेरी आँखों को भा गई। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आँखों का सौन्दर्य एक उभरी हुई मोटी रेखा पर बैठ नाक के छोर तक पहुँच गया है। उसका आकार औसतन आँखों की शोभा में चार-चाँद लगा रहा था। आँखों के मध्य से उभरती हुई नाक मुझे बहुत सुन्दर लग रही थी। उसकी ऊँचाई पेशानी की ऊँचाई से थोड़ी ऊँची हो गई थी। नाक तो ऊँची होनी ही चाहिए। पेशानी को छूकर भौंहों और पलकों के सौन्दर्य को निहारती हुई मेरी नज़रों ने मानो नाक को छू लिया। मैं सौन्दर्य में खो सा गया।
अब करवटें बदलने के अतिरिक्त मेरे पास कोई काम नहीं था। जब भी सोने के लिए अपनी आँखें बन्द करता, वे आँखें सामने आ जातीं। मन को समझाता कि मेरा उन आँखों से कोई सम्बन्ध नहीं है, मुझे सोने दो। फिर करवट बदलता, फिर वही स्थिति बन जाती। दोष मेरी आँखों में नहीं था, दोष था उसका मुझे निहारना। बड़ी आँखों में ही सौन्दर्य छिपा रहता है। उन्हें सजाने के भी अच्छे उपमान खोज लिए गये हैं। काजल लगाते ही आँखों में चार-चाँद लग जाते हैं। ऊपर की भवें तो मैं देख भी नहीं पाया था, आँखों की बनावट पर ही मेरी आँखें जाकर टिक गई थीं। उनमें सन्तुलित पुतलियाँ एक पल में ही मेरे प्रश्न का उत्तर देकर दूसरी दिशा की ओर मुड़ जाती थीं। उनमें सन्तुलित पुतलियाँ एक पल में ही मेरे प्रश्न का उत्तर देकर दूसरी दिशा की ओर मुड़ जाती थीं। उस दिशा में शून्य को पाकर पुनः मेरी ओर मुड़तीं, तब तक मैं चार कदम चल चुका था। उन पुतलियों ने एक ही उत्तर दिया था। उस उत्तर में सम्भावनाएँ नहीं थीं। आशा भरे उस उत्तर ने आज मेरी नींद छीन ली। कल मैं पुनः उन आँखों को देखूँगा। उन मोटी, काजल से भरी आँखों को देखूँगा। पुनः मिलन की कल्पना से मिले सुख ने मेरे मन को विकारों से निवृत्त किया और मैं गहरी नींद में सो गया।
अगले दिन फिर वही हुआ। वही कॉलेज का नुक्कड़। वही पात्रा। वही आँखें। काजल से आज भी सजी थीं। मैं जैसे ही उसके पास से निकलता, मैं उन आँखों को निहारना चाहता। पर मेरे अन्दर बैठी शर्म मुझे बेशर्म कह देती। मेरी आँखें उन आँखों पर से हट जातीं। मन कहता कि मैं मुड़कर देखूँ, शर्म तुरन्त मेरा कान खींच शर्म का पाठ पढ़ा देती। कई चक्कर मैंने लगाए, पर मैं भरपूर न देख पाया। अन्तिम बार मैंने मन को थामा और थोड़ा बेशर्म बनने का साहस जुटाया। मैं बहुत धीमी चाल से उस ओर चला। यह क्या धीमी गति से मैं उस स्थान से गुज़र गया, पर आँखें नहीं देख पाया। उसने आँखें उठाई ही नहीं। उसकी आँखें नीचे की ओर देखती रहीं। इस बार मुझे पलकें दिखाई दीं। बन्द आँखों पर पड़े ये पट भी कम सुन्दर नहीं थे। इन पलकों के मध्य में ऊपर की ओर गोल उभार था। इस उभार के नीचे मोटी पुतलियाँ छिपकर भी मानो मुझे देख रही थीं। चौड़ाई में पलकें औसतन अधिक थीं और लम्बाई में कम चौड़ी होती हुई कोनों से जुड़ गई थीं। किसी कुशल चित्रकार की बनावट प्रतीत होती थी।
पलकों से जुड़े बाल गोल घूमकर ऊपर की ओर अनुशासन में मुड़े थे। उनका एक साथ ऊपर की ओर घूम जाना बहुत सुन्दर लग रहा था। उन पर लगे काजल ने उन्हें और अत्यधिक काला ही नहीं बनाया था बल्कि अनुशासित भी कर दिया था। वे सख्त होकर स्थिर थे। इन बालों के मध्य बचे स्थान में से काजल की एक रेखा झाँक रही थी जो आँख की निचली छोटी सहायक पलक को सजाने में समर्थ थी। काजल की एक और रेखा जो पलकों के किनारे-किनारे खींची गई थी वह पलकों के बन्द होने पर ही मुझे दिखाई दी। एक बार के लिए तो मुझे भ्रम हुआ कि मैं किसी पात्रा की आँखें देख रहा हूँ या किसी चित्रकार की बनाई आँखें निहार रहा हूँ। जिस समय मेरी आँखें उन बन्द पलकों पर थीं, उस समय उसकी पुतलियाँ बेचैन थीं। वे हल्के से कभी इधर और कभी उधर हिल जाती थीं। इनका हिलना पलकें स्पष्ट कर देती थीं। पलकों में हो रही हलचल मुझे छू जाती थी
पर समय नहीं था। क़दम रुकते-रुकते चलते चले गए। मानो घंटी बज गई। पीरियड समाप्त हो गया। समय के इन पलों ने मुझे तृप्ति दी। उन पलकों का सुन्दर चित्र मेरी आँखों में उतर आया। आज की रात भी मैं सो नहीं पाया। बार-बार वे गोल, मोटी काजल से श्रंगारित और बालों से पल्लवित उसकी आँखे मेरी आँखों में उभर आतीं और मेरी नींद टूट जाती। उसका पलकों का झुकाना मुझे बहुत अच्छा लगा था। मुझे जब यह महसूस हुआ कि उसने मुझसे शर्माकर अपनी पलकें झुका ली थीं और मैं पलकों का सौन्दर्य निहार सका था, तब मुझे सन्तोष मिला। मैं उससे जुड़ गया। उसका शर्माना मुझे भाया। उस शर्माने में मुझे अपनापन झाँकता दिखाई दिया। मैं उन पलकों को कल फिर निहारूँगा। इन भावों से भरी कल्पना ने मुझे सुख दिया और मुझे नींद आ गई।
आज जब मैं उस गलियारे से गुज़रा तो वे पलकें झुकी थीं। अधखुली पलकों में से उन पुतलियों ने मुझे ज़रा देखा तो मैं रुक गया। पलकें फिर झुक गईं और मैं आगे बढ़ गया। मुड़कर फिर देखा कि शायद पलकें उठी हों। पलकें तो नहीं उठीं, पर उसकी भौंहों ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। बन्द आँखों का सौन्दर्य इन भौंहों से प्रेरित था। काले रंग में रंगी गोल आकार मानो इन्द्रधनुष के दो टुकड़े काले रंग में रंग कर चिपका दिए गए हों। एक ओर से गोल और दूसरी ओर से आँखों के साथ झुकती पतली-पतली पलकें सुन्दर लग रही थीं। प्रकृति ने इन्हें बनाने से पूर्व कितने डिजाइन बनाए होंगे। दोनों पलकों की समानता में तनिक भी अन्तर नहीं था। पलकों का एक-एक बाल दायरे में सन्तुलित था। मानो किसी भी बाल को दायरे से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी। क्या सौन्दर्य था इनमें। काले फूल की दो पतली पंखुड़ियाँ थीं। मन कर रहा था कि अभी छू कर देख लूँ। पर नहीं, हल्की-सी शर्म और ढेर सारे डर ने मुझे आशा नहीं दी और मन की बात मन में लिए आगे बढ़ गया।
रात को फिर नींद बिखर गई। नहीं आई, आई ही नहीं। मेरी आँखों को अब नींद पसन्द नहीं थी। मेरी आँखों में समा गई थीं वे आँखें, पसन्द थीं। देर रात तक मैं देखता रहा उन सुन्दर आँखों को। बन्द आँखों में से पलकों के मध्य उभार लेती मोटी-मोटी पुतलियाँ हलचल कर मुझे स्थिर कर देतीं। भौंहों के सौन्दर्य की भाषा तो मैं पढ़ पाता, पर इन पलकों में क़ैद पुतलियाँ क्या कह रही हैं समझ नहीं पाता। कोई मीठी-सी उलझन अवश्य है। सुन्दर भौंहें मेरे नज़दीक आतीं और मेरी पलकों को झकझोर कर मेरी नींद उड़ा देतीं। भौंहों, पलकों, पुतलियों और काजल ने मुझे पूरी रात सताया। मैं सुबह देर तक सोता रहा। कॉलेज पहुँचा तो पहली पीरियड निकल चुका था। कॉलेज में पहुँचकर पढ़ने में रुचि कम हो जाती और उन आँखों को निहारने की लालसा बढ़ जाती।
आज वह अकेली नहीं थी। अपनी किसी मित्र के साथ खड़ी थी। वे दोनों आपस में बातें कर रही थीं। मुझे बातों से क्या लेना। मुझे तो चाहिए थीं उसकी वे मनमोहक आँखें। मैं जैसे ही पास से गुज़रा वैसे ही उन आँखों ने एक पल मुझे निहारा। उसकी गर्दन अपनी ओर से हटकर मेरी ओर मुड़ी। कितना आकर्षक था वह पल। उन आँखों में आज मुझे कुछ नयापन दिखाई दिया। काजल उसी तरह शोभायमान था। उन बड़ी-बड़ी आँखों में आज मुझे भारी खिंचाव लगा। पलकें जब उठीं तो उन पर अनुशासित घुमाव लेते हुए बाल हल्के से एक साथ उठे थे। इन बालों ने पुतलियों को इशारा किया था कि मैं आ गया हूँ और पुतलियाँ मानो मेरा पहले से इन्तजार कर रही हों, मेरी ओर आहिस्ता से घूमीं और फिर पलकें शर्म के बोझ से उन पर गिर पड़ीं। उन्हें पलकों ने अपने आगोश में बन्द कर लिया। निष्ठुर गर्दन भी घूम गई मेरी ओर से। इस प्रक्रिया ने मुझमें सिहरन पैदा कर दी। मेरी गर्दन इस ओर थी और क़दम सामने की ओर मैं टकरा गया किसी से। गिर गई मेरी पुस्तकें मेरे हाथ से। यह टकराहट मेरे पक्ष में थी। मैंने कुछ पल अपनी आँखें पुस्तकों को उठाने में लगाए। पुस्तकें मैं ऐसे उठा रहा था मानो नेत्रहीन हूँ। मेरी आँखें पुस्तकों पर नहीं, उन आँखों की ओर थीं। कुछ पल आवश्यकता से अधिक लगे पुस्तकें बटोरने में।
इन कुछ पलों में आँखों के साथ उसकी पेशानी दिखाई दी। पेशानी का रूप आँखों के सौन्दर्य में बहुत कुछ जोड़ रहा था। इस पेशानी से ही उभर कर आई सुन्दर आकार लिए भौंहें पेशानी के गोरे रंग को उभार रही थीं। गोरे रंग की चौड़ी उभरी हुई पेशानी मुझे भा गई। पेशानी का आकार मानो देखकर बनाया गया। उसमें उचित उभार भी सोच-समझकर बनाने वालों ने रखा है। इसका क्या फार्मूला ऊपर वाले का है, यह तो इन्सान को नहीं पता पर आँखों का उभार पेशानी के उभार से ऐसी समता बनाए हुए है कि सुन्दर समन्वय में तनिक भी त्रुटि नहीं हुई है : पलकें जैसे ही उठती हैं उनके घुमावदार सुन्दर बाल भौंहों को छूते हैं और भौंहें पेशानी के सम्पूर्ण सौन्दर्य में खो जाती हैं। पेशानी के दोनों कोने घूम कर जब नीचे की ओर आते हैं तो भौंहों के कोनों छूते हुए आँखों के कोनों से मिलकर आँखों के सौन्दर्य में समा जाते हैं। आँखों की पुतलियाँ दायें-बायें घूमकर चोरी से मानो पेशानी के इन कोनों को चूम लेती हैं और पेशानी को भी वैसी ही सुखात्मक अनुभूति होती होगी जैसी मुझे हो रही है। मेरी आँखें उन पुतलियों में से निकल पलकों का सहारा ले भौंहों को चूम कर इन सुन्दर पेशानी में समा गई हैं। पेशानी का रंग आँखों के रंग से विषमता उत्पन्न कर रहा है। भौंहों, पलकें, पुतलियाँ और इन सब पर चढ़ा काला रंग पेशानी के गोरे रंग में सुन्दरता पैदा करता है। गोरे रंग का विरोधी होते हुए भी काला रंग पेशानी के सौन्दर्य में चार-चाँद लगा रहा है। मेरी आँखें ठहर नहीं पा रही हैं। पेशानी पर लगातार घूमे जा रही हैं। भौंहों को चूमकर वे उन कजरारी आँखों में उतर जाना चाहते हैं। कुछ पल कितने लम्बे हो गए, मुझे पता भी न चला। पुस्तकें उठाकर मुझे चलना था, मैं चल पड़ा, उस पेशानी की स्निग्धता को अपनी उंगलियों के स्पर्श में छिपाए।
आँखें सो नहीं पाईं। पूरी रात कल्पनाओं में गई। किसी ऐसे सुख की कल्पना जो लौकिक होते हुए भी लौकिक नहीं है। वह सुख जो लौकिक धरातल पर जन्मा और अलौकिक में जाकर समा गया। वे पलकें, वे भौंहों, वे पुतलियाँ, वह काजल, वह पेशानी सब लौकिक हैं, पर जिस सुख का आभास मुझमें जन्म ले रहा है, उसमें अलौकिकता के तत्व विद्यमान हैं। जितना भी एकात्म बढ़ता जाएगा, उतना ही सुख अलौकिक होता जाएगा। मुझे नींद न आना स्वाभाविक है। नींद न आने का सुख, नींद आने के सुख से बड़ा है। मैंने नींद को पास नहीं आने दिया और मुझे नींद नहीं आई। जब पेशानी की तरह-तरह की कल्पनाओं ने मुझमें अपार सुख भर दिया, तब मुझे नींद आ गई।
अगले दिन कॉलेज जाने के लिए जब तैयार हो रहा था तो बड़ा खुश था। मेरे हर काम में खुशी ज़ाहिर हो रही थी। मुझे खुश देख घर की दीवारें भी खुश थीं। मुझे खुश देख माँ मन ही मन मुसकुरा रही थी। पिता जी सन्तुष्ट थे। मेरी बहन थोड़ी चंचल है। वह ताड़ गई और पूछ बैठी, ‘‘भैया, आज आपने मुझे एक बार भी नहीं डाँटा। एक बार भी अपनी झुँझलाहट नहीं निकाली। रुमाल प्रेस न होने पर आप मुझे एक अफ़सर की तरह डाँटते। आज आप बहुत खुश हैं न’’ अनुजा की बात सुनते ही मुझे रात याद आ गई। रात से अब तक की मेरी दिनचर्या में मुझे बदलाव नज़र आया। आज का मेरा व्यवहार बदला हुआ है। मन में सन्तुष्टि है। मस्तिष्क में डर नहीं। मुझमें मानो ज़िन्दा रहने की इच्छा पैदा हो गई है। मुझे सब कुछ भाने लगा। जब मैं कुछ बोला तो अनुजा ने पुनः प्रश्न किया ‘‘बोलो न भैया, है न ज़रूर कोई बात ?’’
मैं मानो जागा। आसमान से उतर कर धरती पर आया। अब मैंने अपने स्वभाव के अनुसार डाँट लगाई, ‘‘अब तू ज़्यादा बातें बनाने लगी है। जितनी है उतनी ही बात किया कर।’’ मैं पकड़ा गया। वह चुप हो गई, पर समझ गई। वह ही नहीं माँ और पिता जी भी समझ गए। मेरे उत्तर से वह बात प्रकट हो गई जिसे मैं छिपाना चाहता था। उसका प्रश्न कुछ और था और मैंने उत्तर ऐसा दिया कि मैं अपने मिलन के सुख में बहन का दखल नहीं चाहता। यदि यही उत्तर अनजान बनकर दिया होता या खुशी का कोई बहाना बनाकर दिया जाता तो सम्भवतः चोरी न पकड़ी जाती। चोरी तो पकड़ी ही गई, भले ही अभी चोर हाथ नहीं आया। मैं सन्तुष्ट हुआ कि अनुजा ने लौटकर कोई और प्रश्न नहीं किया। प्रसन्नता का बोझ लेकर जब मैं घर से निकला तो आसमान बिलकुल साफ़ था। साफ़ ही नहीं, बहुत सुन्दर भी लग रहा था।
कॉलेज पहुँचते ही मैं असामान्य हो गया। उस उभरी और गोरी पेशानी को ढूँढ़ने लगा जिसने सुन्दर भौंहों को पनाह देकर कजरारी आँखों के अपने आगोश में भरा हुआ था। फिर मैं उसी स्थान से अपने तेज़ क़दमों को धीरे बनाता हुआ निकला। मेरी नज़र उस पेशानी पर गई। उस पेशानी की स्निग्धता स्पष्ट चमक रही थी। भौंहों आकार लिए आँखों का सौन्दर्य बढ़ा रही थीं। पलकें यथावत झुकी पुतलियों को ढँके हुए थीं। पलकों के बाल काजल से सख्त होकर अपना आकार लिए सुन्दरता बिखेर रहे थे। काजल की रेखा पलक के ऊपर इन बालों के सहारे स्पष्ट दिखाई दे रही थी। आँखों की कोरों से काजल की पतली छोटी रेखा सुन्दरता को दुगुना कर रही थी।
मेरे पहुँचते ही एक बार आँखें उठीं। इस बार आँखों ने मुझे भरपूर निहारा। अपनी पलकों को पूरी तरह भौंहों से छुआ दिया था। पुतलियों का आकार पूर्ण दिखाई पड़ रहा था। सफ़ेद आँखों के नीचे वाली पलकों पर काजल रेखा कोरों को छूटी हुई बाहर तक आकर पेशानी के अन्तिम छोर तक अंकित थी। आँखें क्या थीं, सौन्दर्य का सागर था जो मुझे अपने में डुबोने के लिए तैयार था। एक पल में ही पलकें गिर गईं। उन पुतलियों ने शर्माती और प्रश्न करती पुतलियों को ढँक लिया। पलकों के गिरने के साथ मेरी नज़रें भी नीचे की ओर आई और नाक पर आकर अटक गई। नाक पर मेरा ध्यान पहले न गया था। अब नाक को देखा तो मुझे कवियों की कल्पना याद आ गई। किस आधार पर कवियों ने कहा कि तोते की चोंच जैसे नाक सुन्दर होती है। गरुण की नाक भी तोते की तरह झुकी होती है, उसकी नाक को सुन्दर नहीं कहा गया। तोता स्वभाव से क्रूर नहीं। कवियों की मान्यताओं के काव्य सत्य के रूप में तोते की नाक को सबसे सुन्दर बता दिया।
मेरी मान्यता में जो नाक मैंने देखी वह सबसे सुन्दर है। उसकी नाक की बनावट मेरी आँखों को भा गई। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आँखों का सौन्दर्य एक उभरी हुई मोटी रेखा पर बैठ नाक के छोर तक पहुँच गया है। उसका आकार औसतन आँखों की शोभा में चार-चाँद लगा रहा था। आँखों के मध्य से उभरती हुई नाक मुझे बहुत सुन्दर लग रही थी। उसकी ऊँचाई पेशानी की ऊँचाई से थोड़ी ऊँची हो गई थी। नाक तो ऊँची होनी ही चाहिए। पेशानी को छूकर भौंहों और पलकों के सौन्दर्य को निहारती हुई मेरी नज़रों ने मानो नाक को छू लिया। मैं सौन्दर्य में खो सा गया।
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