सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
|
2 पाठकों को प्रिय 349 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
हाँ, तब शशि काम करता था। भूषण नहीं आया था। देबू तो आया ही नहीं था। शुद्धाचारिणी चचिया सास के लिए की जानेवाली यह सारी व्यवस्था आन्तरिक थी। प्रनति बस एक ही बात बोलना जानती थीं, 'ये लोग क्या बार-बार आते हैं?
प्रनति के अपने मायके में ज्यादा कोई नहीं था-प्रवासजीवन के ही रिश्तेदार ज्यादा थे।
'देखो, मझली चाची तो कम ही आती हैं और फिर हम दे भी नहीं पाते हैं। तुम एक जोड़ी थान ले आना।'
इससे क्या प्रवासजीवन की आर्थिक दशा डावाँडोल होने लगती थी? नहीं। यही जीवन था प्रवासजीवन का।
और अब? लाबू के लड़के को निचली मंजिल के खाली पड़े कमरे में न रख सके प्रवासजीवन।
क्या विधवा होने के बाद लड़कियाँ, औरतें ही असहाय होती हैं? पुरुष नहीं?
अब तो घर में आम, लीची आने पर कोई सोच ही नहीं सकता है कि काम करने वालों को भी देना चाहिए। सबको बराबर हिस्सा न सही, कछ तो दिया जा सकता है।
पूछने की हिम्मत नहीं होती है। 'इनको दिया है?
इतना कहते ही कहीं सारा का सारा सामने लाकर न पटक दे और कहे, 'आप ही दे दीजिए जितना देने की इच्छा हो।'
कभी-कभार अपने प्लेट से, वह भी चोरी से, आम या मिठाई उठाकर देबू को देते हुए कहते हैं, 'आज कुछ भूख नहीं है रे देबू, तू खा ले। इतना न खा सकूँगा, उठा ले जाओ कहने में झंझट है।'
लेकिन यह सब बातें, क्या छोटे लड़के से कह सकते हैं? कह सकते हैं क्या". ‘सौम्य, सबसे बड़ी तकलीफ़ है पराधीनता। असहायपन। भगवान ने मुझे हार्ट का
रोगी बनाकर और भी असहाय बना दिया है।'
खैर जो बात कह सकते हैं और जो सचमुच सबसे ज़्यादा कष्टकर हो रहा है वह है अकेलापन।
कोई नहीं है जिससे दिल खोलकर दो बात कर सकें।
बात करने लायक बातें भले न हों फिर भी वाक्शक्ति के रहते हुए भी गूंगे बनकर बैठ रहना क्या कम तकलीफ़ देह है?
मन तो करता है किसी से देश के आजकल के हालात पर बातें करें, या अखबार में पढ़ी किसी बात की किसी के साथ आलोचना करें। शुरू-शुरू में ऐसा किया भी था।
'आज का अख़बार देखा है दिव्य?
दिव्य मुँह बिगाड़कर कहता, 'आपकी तरह अख़बार पढ़ने का मुझे कोई शौक नहीं है। दफ़्तर में जाकर एक आध दफ़ा उलटकर देख भर लेता हूँ सुबह कहाँ पढ़ने का वक्त मिलता है? |
‘अखबार पढ़ने का वक्त नहीं मिलता है? क्या कहता है रे तू? मैं क्या कभी दफ़्तर नहीं जाता था? ...चैताली तुमने पढ़ा है?
‘पढ़ना क्या है? देश भर में कितनी बहुएँ खून हुईं और कितनी बहुएँ कट मरी, कितनी आत्महत्या करके स्वर्ग सिधारी, यही सब खबरें हैं न? वह आप ही पढ़िए।'
|