नारी विमर्श >> दौलति दौलतिमहाश्वेता देवी
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स्त्री का क्रय-विक्रय, देह-व्यापार की कसैली विवशताएँ चुकी हुई वेश्याओं की तिरस्कृत वेदनाएँ और सामंती व्यवस्था के दाँवपेंच पर आधारित उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दान-प्रथा का विस्तार सारे भारत में ही रहा है। आंध्र-प्रदेश के मातंगी,
जाग्गाली, माला-जांगम माहार और दूसरी जाति के लोग
‘गोठी’ बनते। बिहार के चमार, नागेसिया, पारहाइया,
दुसाद आदि बनते कामिया या ‘सेवकिया’। गुजरात के
चालवाड़ी, नालिया, ठोरी और दूसरे लोग ‘हालपाति’ बनते।
कर्नाटक के अंत्यज ‘जीथो’ बनते, मध्य प्रदेश में
‘हरवाहा’ बनाये जाते। ओड़िसा में
‘गोठी’ और राजस्थान में ‘सागरी’।
तमिलनाडु के चेट्टि रायत लोग ‘भूमिदास’ रखते। उत्तर
प्रदेश के भूमिदास ‘मात्’ या
‘खण्डित-मुण्डित’ या ‘संजायत’
कहलाते हैं। लाक्षाद्वीप के भूमिदास को ‘नादापू’ कहते
हैं।
दौलति
1
गनोरी नागेसिया को सभी टेढ़ा नागेसिया के नाम से पुकारते थे। पहले वह
टेढ़ा यानी लँगड़ा-लूला नहीं था बल्कि औरों की तरह सीधा समर्थ व्यक्ति था।
बहुत तड़के वह जागता, फिर दातौन करता हुआ लोटा लेकर मैदान की ओर बढ़ जाता।
लौटकर बीबी से पूछता, ‘‘खाने को कुछ नहीं दोगी
?’’
‘‘हाँ, हाँ, हाँ, दाल-भात पूरी कचौड़ी।’’
नागेसिया लोगों को उनकी पत्नियाँ सुबह दाल-भात पूरी कचौड़ी नहीं देतीं। यह उनके लिए गहरे दुख की बात थी। जो सपने कभी भी सच नहीं होते, यह ऐसा ही स्वप्न था। नागेसियाओं की पत्नियाँ हर सुबह अपने पतियों को मकई का सत्तू या कुरथी-उड़द का घाटो ही परोस देतीं। गनोरी की बीबी भी उसे यही देती थी।
खाना खाकर, एक लोटा पानी गटक, खैनी मुँह में डाल गनोरी मालिक के घर भागता। सुबह से रात तक खटता रहता, धान और गेहूँ के बोरे ढोता रहता। यह उसकी किस्मत का ही फेर था कि झुकते-टूटते वह टेढ़ा हो गया था।
नागेसिया उसकी जाति थी। इसी जाति का समाज काफ़ी छोटा था। पलामौ के नागेसिया, पाइहाइया जाति की आबादी अधिक नहीं थी। भूँइया, दुसाद, धोबी, गंजू ओराँब मुंडाओं का समाज कुछ बड़ा था। सेवरा नामक एक गाँव में गुनोरी का मालिक था-मुनावर सिंह, चंदेला राजपूत। मुनावर के बैल-बरघों की देख-रेख करना गनोरी का काम था। वैसे सारे काम उसी के थे। वह इसका हिसाब नहीं रख पाता था कि कौन सा काम उसका है और कौन सा नहीं।
टेढ़ा कभी-कभी कल्पना करता, ‘शहर से गाड़ी में बैठकर, आँखों में ऐनक लगाये कोई बाबू उसका हालचाल पूछने आया है और उसकी बतायी हुई सारी बातें नोट कर रहा है।’ दरअसल टेढ़ा ने सुना है कि सरकार बँधुआ मजदूरी प्रथा को समाप्त कर रही है, शहर से ऐनक पहने बाबू लोग इन गाँवों में आयेंगे और कागज पर सब लिख लेंगे यह भी टेढ़ा का एक सपना ही था।
टेढ़ा अपनी कल्पना में ऐसे ही किसी बाबू से बातें करता।
‘‘मालिक के घर का सारा काम तुम्हारा है ?’’
‘‘क्यों न हो महाराज ? जी हाँ !’’
‘‘मुनावर के घर का सारा काम तुम्हें क्यों करना पड़ता है ?’’
‘‘कैसे न करना पड़े, महाराज ? ओ ऐनक वाले, पढ़े-लिखे शहर के बाबूजी, मुनावर का सारा काम तो टेढ़ा का ही काम है, मैं उसका बँधुआ जो हूँ।’’
‘‘बँधुआ है तूँ ?’
‘‘मैं उसका सेवक हूँ !’’
‘‘मैं तो उसका गुलाम हूँ !’’
‘‘अरे, तू है क्या आख़िर ? बँधुआ, सेवक या गुलाम ?’’
‘‘मैं सब कुछ हूँ, मैं उसका ख़रीदा हुआ गुलाम हूँ ! लो, सब कुछ लिख लो। लिखकर गाड़ी में बैठो और खर्राटे भरते शहर चले जाओ, मैं यही जंगल में पड़ा हूँ। हम दोनों अपनी अपनी दुनिया में रहें ! तुम और मैं दो अलग-अलग दुनिया के इंसान हैं !’’
इस तरह की बातचीत कभी नहीं हुई। यह सब टेढ़ा की कोरी कल्पना थी। हाँ, यदि ऐसी कोई घटना घटती है, यदि ऐनकधारी कोई बाबू सचमुच वहाँ पहुँचता तो टेढ़ा नागेसिया से ऐसी ही बातें सुन पाता।
नागेसिया मुनावर सिंह चन्देला का बँधुआ था। टेढ़ा जैसे लोग कितने दिनों से मुनावर जैसे लोगों के बँधुआ (गुलाम) बने हुए थे, इसका शायद ही किसी के पास हिसाब हो। यह सिलसिला तो शताब्दियों से जारी था। न जाने कब इस जंगली पहाड़ी इलाके में बाहर से राजपूत-ब्राह्मण आ बसे और कब सारी भूमि उनके कब्जे में चली गयी। फिर सस्ते खेत मजूरों की ज़रूरत पड़ने लगी। ब्याज पर ऋण देकर गुलाम बनाने की प्रथा की शुरुआत भी तभी हुई थी।
टेढ़ा नागेसिया मुनावर का बँधुआ था। मुनावर सिंह चन्देला अमीर था। चार गाँव पार करने के बाद बड़ी सड़क के किनारे की बस्ती में उसका भव्य मकान और विशाल बाग था। मुनावर का लायक बेटा, जो सरकारी नौकरी में बड़े ओहदे पर था, वहीं रहता था। ज़माना पहले जैसा नहीं रहा। भू-सम्पत्ति या खेती बारी पर क़ब्ज़ा जमाये रखने के लिये सरकारी दफ़्तरों में अपना आदमी होना ज़रूरी है। बेटा सरकारी नौकरी में है, उस पर ऊँचे ओहदे पर। मुनावर की जड़ इससे और भी मज़बूत हो गयी थी।
वह मकान मुनावर सिंह चन्देला ने बनवाया था किन्तु स्वयं उस मकान में न रहकर वह सेवरा गाँव में ही रहता। दुसाद, घासी, नागेसिया, मुंडा, लोहार, औहाँव, भुँइया, चमार, पारहाइयाओं को उसने बँधुआ बना लिया था। कितनों को उसने कर्ज देकर बँधुआ बना लिया था, इसका कोई हिसाब नहीं था। किस बूते पर वह ऐसा कर पाया ? उसकी ताकत क्या थी ? इस बात की जानकारी बँधुआ लड़कियों को थी। जाड़े की रातों में बँधुआ वृद्धाएँ आग जलाकर हाथ-पाँव सेंकती और कहतीं-
‘‘हाँ, हाँ, हाँ, दाल-भात पूरी कचौड़ी।’’
नागेसिया लोगों को उनकी पत्नियाँ सुबह दाल-भात पूरी कचौड़ी नहीं देतीं। यह उनके लिए गहरे दुख की बात थी। जो सपने कभी भी सच नहीं होते, यह ऐसा ही स्वप्न था। नागेसियाओं की पत्नियाँ हर सुबह अपने पतियों को मकई का सत्तू या कुरथी-उड़द का घाटो ही परोस देतीं। गनोरी की बीबी भी उसे यही देती थी।
खाना खाकर, एक लोटा पानी गटक, खैनी मुँह में डाल गनोरी मालिक के घर भागता। सुबह से रात तक खटता रहता, धान और गेहूँ के बोरे ढोता रहता। यह उसकी किस्मत का ही फेर था कि झुकते-टूटते वह टेढ़ा हो गया था।
नागेसिया उसकी जाति थी। इसी जाति का समाज काफ़ी छोटा था। पलामौ के नागेसिया, पाइहाइया जाति की आबादी अधिक नहीं थी। भूँइया, दुसाद, धोबी, गंजू ओराँब मुंडाओं का समाज कुछ बड़ा था। सेवरा नामक एक गाँव में गुनोरी का मालिक था-मुनावर सिंह, चंदेला राजपूत। मुनावर के बैल-बरघों की देख-रेख करना गनोरी का काम था। वैसे सारे काम उसी के थे। वह इसका हिसाब नहीं रख पाता था कि कौन सा काम उसका है और कौन सा नहीं।
टेढ़ा कभी-कभी कल्पना करता, ‘शहर से गाड़ी में बैठकर, आँखों में ऐनक लगाये कोई बाबू उसका हालचाल पूछने आया है और उसकी बतायी हुई सारी बातें नोट कर रहा है।’ दरअसल टेढ़ा ने सुना है कि सरकार बँधुआ मजदूरी प्रथा को समाप्त कर रही है, शहर से ऐनक पहने बाबू लोग इन गाँवों में आयेंगे और कागज पर सब लिख लेंगे यह भी टेढ़ा का एक सपना ही था।
टेढ़ा अपनी कल्पना में ऐसे ही किसी बाबू से बातें करता।
‘‘मालिक के घर का सारा काम तुम्हारा है ?’’
‘‘क्यों न हो महाराज ? जी हाँ !’’
‘‘मुनावर के घर का सारा काम तुम्हें क्यों करना पड़ता है ?’’
‘‘कैसे न करना पड़े, महाराज ? ओ ऐनक वाले, पढ़े-लिखे शहर के बाबूजी, मुनावर का सारा काम तो टेढ़ा का ही काम है, मैं उसका बँधुआ जो हूँ।’’
‘‘बँधुआ है तूँ ?’
‘‘मैं उसका सेवक हूँ !’’
‘‘मैं तो उसका गुलाम हूँ !’’
‘‘अरे, तू है क्या आख़िर ? बँधुआ, सेवक या गुलाम ?’’
‘‘मैं सब कुछ हूँ, मैं उसका ख़रीदा हुआ गुलाम हूँ ! लो, सब कुछ लिख लो। लिखकर गाड़ी में बैठो और खर्राटे भरते शहर चले जाओ, मैं यही जंगल में पड़ा हूँ। हम दोनों अपनी अपनी दुनिया में रहें ! तुम और मैं दो अलग-अलग दुनिया के इंसान हैं !’’
इस तरह की बातचीत कभी नहीं हुई। यह सब टेढ़ा की कोरी कल्पना थी। हाँ, यदि ऐसी कोई घटना घटती है, यदि ऐनकधारी कोई बाबू सचमुच वहाँ पहुँचता तो टेढ़ा नागेसिया से ऐसी ही बातें सुन पाता।
नागेसिया मुनावर सिंह चन्देला का बँधुआ था। टेढ़ा जैसे लोग कितने दिनों से मुनावर जैसे लोगों के बँधुआ (गुलाम) बने हुए थे, इसका शायद ही किसी के पास हिसाब हो। यह सिलसिला तो शताब्दियों से जारी था। न जाने कब इस जंगली पहाड़ी इलाके में बाहर से राजपूत-ब्राह्मण आ बसे और कब सारी भूमि उनके कब्जे में चली गयी। फिर सस्ते खेत मजूरों की ज़रूरत पड़ने लगी। ब्याज पर ऋण देकर गुलाम बनाने की प्रथा की शुरुआत भी तभी हुई थी।
टेढ़ा नागेसिया मुनावर का बँधुआ था। मुनावर सिंह चन्देला अमीर था। चार गाँव पार करने के बाद बड़ी सड़क के किनारे की बस्ती में उसका भव्य मकान और विशाल बाग था। मुनावर का लायक बेटा, जो सरकारी नौकरी में बड़े ओहदे पर था, वहीं रहता था। ज़माना पहले जैसा नहीं रहा। भू-सम्पत्ति या खेती बारी पर क़ब्ज़ा जमाये रखने के लिये सरकारी दफ़्तरों में अपना आदमी होना ज़रूरी है। बेटा सरकारी नौकरी में है, उस पर ऊँचे ओहदे पर। मुनावर की जड़ इससे और भी मज़बूत हो गयी थी।
वह मकान मुनावर सिंह चन्देला ने बनवाया था किन्तु स्वयं उस मकान में न रहकर वह सेवरा गाँव में ही रहता। दुसाद, घासी, नागेसिया, मुंडा, लोहार, औहाँव, भुँइया, चमार, पारहाइयाओं को उसने बँधुआ बना लिया था। कितनों को उसने कर्ज देकर बँधुआ बना लिया था, इसका कोई हिसाब नहीं था। किस बूते पर वह ऐसा कर पाया ? उसकी ताकत क्या थी ? इस बात की जानकारी बँधुआ लड़कियों को थी। जाड़े की रातों में बँधुआ वृद्धाएँ आग जलाकर हाथ-पाँव सेंकती और कहतीं-
‘‘ऋण के बल पर, ऋण के बल पर
दो रुपये, दस रुपये सौ रुपये
दस सेर गेहूँ, पाँच सेर चावल
मुनावर हमें देता है उधार
हमें क्या मालूम कि करना है क्या
हम ताकते रह जाते हैं बेवकूफों की तरह
और उसके पालतू लोग हमारी बाँहें थाम
बाँये अँगूठे पर लगाते हैं स्याही
और सफ़ेद काग़ज़ पर लगवाते हैं निशान !
वह काग़ज़ सन्दूकों में रहता है सुरक्षित
उसके पास इस तरह के हजारों हैं काग़ज़
ऋण के बल पर ही वह बना है महाराज
ऋण के बल पर ही वह बना है सरकार।
वह खुद ही पटवारी है, जंगल का अफ़सर भी,
थाना भी वही है, सिपाही भी,
वही है हाकिम और हुकूमत और अदालत !
अगर वह चाहता है कभी शहर को जाना
तो उस दिन रेलगाड़ी भी रुकती है चौकिपुरा हॉल्ट पर
उसके निमंत्रण पर
मंत्री भी आ जाते हैं सेवरा गाँव में !
उधार देकर वह सरकार बन गया
और वह हम बन गये बँधुआ
हम कभी भी मुक्त नहीं हो सकते !
दो रुपये, दस रुपये सौ रुपये
दस सेर गेहूँ, पाँच सेर चावल
मुनावर हमें देता है उधार
हमें क्या मालूम कि करना है क्या
हम ताकते रह जाते हैं बेवकूफों की तरह
और उसके पालतू लोग हमारी बाँहें थाम
बाँये अँगूठे पर लगाते हैं स्याही
और सफ़ेद काग़ज़ पर लगवाते हैं निशान !
वह काग़ज़ सन्दूकों में रहता है सुरक्षित
उसके पास इस तरह के हजारों हैं काग़ज़
ऋण के बल पर ही वह बना है महाराज
ऋण के बल पर ही वह बना है सरकार।
वह खुद ही पटवारी है, जंगल का अफ़सर भी,
थाना भी वही है, सिपाही भी,
वही है हाकिम और हुकूमत और अदालत !
अगर वह चाहता है कभी शहर को जाना
तो उस दिन रेलगाड़ी भी रुकती है चौकिपुरा हॉल्ट पर
उसके निमंत्रण पर
मंत्री भी आ जाते हैं सेवरा गाँव में !
उधार देकर वह सरकार बन गया
और वह हम बन गये बँधुआ
हम कभी भी मुक्त नहीं हो सकते !
टेढ़ा नागेसिया के नाम से परिचित होने से पहले गनोरी ने अँगूठा निशान
लगाकर मुनावर सिंह से तीन सौ रुपये का क़र्ज़ लिया था। यह सोचते हुए भी
उसका सिर चकराने लगता है कि उसकी हिम्मत कितनी बढ़ गयी थी जब उसने तीन सौ
रुपये का क़र्ज़ लिया था। उस वक़्त ज़रूरत ही कुछ ऐसी थी। हाट से भैंस
चुराने के इलज़ाम में अन्य लोगों के साथ उसे भी जेल की हवा खानी पड़ी थी।
सामाजिक परंपरा के अनुसार सजायाफ़्ता क़ैदी जब छूटकर घर लौटता तो गाँव
बिरादरी को भोज देना पड़ता। उसके समाज में यह एक ऐसा नियम था जिससे बचने
का कोई उपाय नहीं था।
उन दिनों एक ही साथ उसकी बड़ी लड़की और बड़े लड़के की शादी हुई जात बिरादरी को बार-बार भोज देना पड़ा। जेल से लौटने का प्रायश्चित भी करना था। दामाद को एक बकरी देनी पड़ी। ऐसे कई कारण थे जिनके चलते गनोरी को इतने रुपये का क़र्ज़ लेना पड़ा। सारा काम करने के बाद कुछ आटा बच गया था जिसे पानी में उबालकर कई दिनों तक खाना-पीना चला। उस क़र्ज़ के कारण ही गनोरी को बँधुआ बनाना पड़ा।
बँधुआ बनना उस समय गनोरी को विशेष दुर्भाग्यपूर्ण नहीं लगा था। वह जन्म के बाद से ही अपने चारों ओर बँधुआ मज़दूर देखता आया था। बँधुआ बनाना तो विधि का विधान था। विधाता-पुरुष सिर घुटाये बामन के वेष नवजात शिशु के ललाट को लिपिबद्ध करने आते हैं। वे जो कुछ लिख जाते हैं, उसे कोई टाल नहीं सकता।
ऊँची जाति के बच्चों की क़िस्मत में से वे जगह जमीन गाय भैंस विषय भोग और कारोबार लिख देते हैं। शिक्षा नौकरी और ठेकेदारी भी उन्हीं के भाग्य में लिखते हैं।
नीच जाति के बच्चों के भाल पर लिख देते हैं-बँधुआ मज़दूरी।
विधाता के विधान से ही आकाश में चाँद और सूर्य उगते। उनकी इच्छा से सेवरा गाँव के निर्धन बच्चे मुनावरों के बँधुआ बनते।
इस विधान को कौन बदलेगा ?
गनोरी नागेरिया ऐसा व्यक्ति नहीं था जो विधाता के इस विधान को बदलता। मालिक के लाखों काम वह करता, हल बैल संभालता। शाम को कीमती बैल भैंस, गोशाला में बाँधने के बाद उसका काम ख़त्म होता। तब वह अपनी झोपड़ी में लौटता। झोपड़ी से बेहतर किसी आवास की व्यवस्था उसे कभी नसीब नहीं हुई। शायद कभी होगी भी नहीं। बनो नागेसिया ने अच्छा बनाने की कोशिश की थी, उसके बाद ही दुर्दशाओं से ग्रस्त हो गया था।
नागेसियाओं को यह बात अच्छी तरह मालूम है कि किसी नागेसिया शिशु की उम्र जिस दिन छह दिन की हो जाती है, उस दिन विधाता-पुरुष आकाश से हल्दी से रँगा एक पीला सूट लटका देते हैं और उसी के सहारे धरती पर उतर आते हैं। उस समय उनका चेहरा सिर घुटाये बामन जैसा होता है।
नागेसिया शिशु और उसकी माँ जिस झोपड़ी में हो उस झोपड़ी में वे क़तई दाखिल नहीं होते। झोपड़ी के बाहर रुककर मोटे कलम से कैथी हिन्दी में शिशु की क़िस्मत के खाते में लिख देते हैं, जैसा जन्म लिया है, वैसी ही ज़िन्दगी बिताओगे। झोपड़ी के अलावा अच्छा मकान कभी नहीं बनाओगे।’
सेवरा गाँव के बनो नागेसिया ने इस विधान की परवाह नहीं की थी। उसके पाँव-तले मानो पहिये लगे थे। यहाँ जाता, वहाँ जाता। ‘बिहार की हवा में रुपये उड़ते हैं’, ऐसा वह कहता। ‘ऊँची जाति के लोगों को यह गुण मालूम है, तभी वे हवा से रुपये बटोर लेते हैं। मैं तो नागेसिया हूँ, बहुत ही नगण्य व्यक्ति। किन्तु प्रयत्न करने में हर्ज क्या है ? जैसा जनम, वैसा करम...नहीं मैं यह बात नहीं मानता।’
कोयले की खान में काम करने के लिए बनो धनबाद चला गया था। एक ठेकेदार उसे ले गया था। ठेकेदार ने कहा था, ‘‘राँची जिले के मुंडाओं को ले जा रहा हूँ कोयला-खदान में। उनकी तरह तेरा नाम भी मुंडा कहकर लिख लेता हूँ, पता लिख ले रहा हूँ-झुरांडा थाना। चल, चल कोयला खदान में बहुत पैसे मिलेंगे !’’
कोयला काटकर, रुपये बटोरकर गाँव लौट आया था बनो। रुपये की गर्मी से उसका दिमाग़ फिर गया था। दिमाग़ क्यों न फिरता ? रुपये, नकद रुपये सेवरा गाँव के किस नागेसिया ने देखे थे ? और फिर किस नागेसिया ने कभी पाताल में झाँककर देखा था ? धरती के ऊपर की दुनिया उन्होंने देखी थी, धरती के नीचे पाताल के रहस्य की क्या उन्हें जानकारी थी ? वनो कहता-‘‘अरि ब्बाप ! आकाश का अँधेरा तो देखा था, कोयला खदान में देख आया पाताल का अँधेरा ! दूना अँधेरा। इतने नीचे उतरता...जैसे पातालपुरी !’’
‘‘क्या देखा ?’’
‘‘देखने को क्या था ? अँधेरा देख आया।’’
धनबाद से लौटकर बनो ने मकान बनवाने की योजना बनायी। कच्ची ईटों का मकान। वह मकान पक्का और मजबूत होगा।
कच्ची ईंटों से उसने खूबसूरत मकान बनवाया था। धनबाद से जो रुपये वह कमाकर लाया था, सारा उस मकान पर ही ख़र्च कर दिया था। यह देखकर दूसरे नागेसियाओं ने दीर्घ श्वाँस छोड़ा था। ईर्ष्या से नहीं। सेवरा गाँव के नागेसिया लोग द्वेष से दीर्घ श्वाँस नहीं छोड़ते। वे मुनावर की बीवी नहीं थे जो ईर्ष्या से उसाँस भरते !
मुनावर की बीवी औरों का भला देखकर कुढ़ती। वह सीधी-सादी औरत थी, मुटापे के कारण परेशान रहती। हुक्का पीती। कोई बात वह छिपा नहीं पाती थी। हमेशा खुद ही कहती-‘‘औरों का भला मैं देख नहीं पाती !’’
कभी-कभी वह बेटे के घर जाती। जाते वक़्त कहकर जाती कि एक महीना वहाँ रहेगी। चार दिनों के बाद ही लौट आती।
‘‘क्यों लौट आयीं, मालकिन ?’’
‘‘रह नहीं पायी।’’
‘‘क्यों मालकिन, क्यों ?’’
‘‘बहू ने रहने नहीं दिया।’’
‘‘बहू ने क्या किया ?’’
‘‘नहीं, मुझे कुछ नहीं किया। मुझे क्या करेगी ? हलुआ बनाती तो ढेर-सा घी डाल देती। धोती फट गयी तो वह दाई को दे दी। साधू संत भीख माँगने आये तो एक रुपया ही दे डाला ! यह सब देखकर मुझे बहुत जलन होती थी, छाती जलने लगती मेरी तो।’’
‘‘इसीलिए लौट आयीं ?’’
‘‘और देखा, नये कमरे बनवा रही है, गाय ख़रीद रही है। मुझसे औरों का भला नहीं देखा जाता, जलन होती है।’’
‘‘और कहाँ, तुम्हारा ही तो बेटा है।’’
‘‘अजी, खुद को छोड़कर सभी ग़ैर होते हैं।’’
मुनावर की बीवी खुले दिल की औरत थी, जो बात मन में होती, उगल देती। औरों का भला देखकर उसे कष्ट होता, इसलिए वह देखे जाती ही नहीं। घर बैठी मुटापे की तकलीफ़ में हाय-तोबा करती औरों को श्राप देती रहती।
मुनावर असाधु व्यक्ति था।
सेवरा के नागेसियाओं ने बनो नागेसिया को मकान बनाते देखकर दीर्घ श्वाँस छोड़ा था। यह क्या कर रहा है बनो ? ऐसा काम तो नागेसिया लोग नहीं करते। उसने दो सौ रुपये की पूँजी इकट्ठी कर ली, इसलिए मकान बनवायेगा ?
अव्वल तो नागेसिया के पास रुपया होना ही नहीं चाहिए। और हो तो उस रुपये से मकान नहीं बनवाना चाहिए। मकान बनवाओ या भैंस ख़रीदो तो मालिक की निगाह पड़ेगी। ज़मीन ख़रीदो तो मालिक छीन लेगा। गाय भैंस ख़रीदो तो भी मालिक छीन लेगा। छाता या पाँव के जूते ख़रीदो तो मालिक घर आँगन के खूँटे से बाँधकर पीटेगा। इसलिए बनो को मकान बनाते देखकर दूसरे नागेसियाओं ने उसाँस भरा था। बनो को यह क्या सूझा मुनावर सिंह चन्देला तो इसे बिलकुल बर्दाश्त नहीं करेगा और इसे भयंकर उदण्डता मान लेगा। जैसे भी हो, वह बनो को अवश्य सजा देगा।
बूढ़े भुनेश्वर ने कहा था, ‘‘परिवार में तेरे एक बुआ, बीवी और लड़का ही है। रुपये के साथ इन्हें लेकर तू और कहीं चला जाता तो कितना अच्छा करता।’’
‘‘कहाँ जाता ?’’
‘‘फिर धनबाद ही जाता।’’
‘‘वहाँ जाकर क्या करता ?’’
‘‘खदान में काम करता।’’
‘‘खदान ! काम !’’
‘‘वाह रे, उस काम की बदौलत ही तो तूने इतने रुपये बटोरे। बार रे बाप ! कितने ढेर सारे रुपये !’’
‘मैं सारी बातें बताना नहीं चाहता था। अब तो ख़ैर बता देना ही ठीक होगा। मैं तो ठेकेदार का मज़दूर था। ठेकेदार जिसे लेगा, वही मज़दूर खदान में काम कर पाएगा। मज़दूरों के बहुत थोड़े ही पैसे मिलते हैं मज़दूरी के नाम पर।
‘‘क्या कह रहा है तू ?’’
‘‘ठीक ही कह रहा हूँ। ठेकेदार बहुत ठगता है। यूनियन से यह बात बतायी तो बाबू लोगों ने मुँह-ज़बानी सारी बातें मान लीं किन्तु इसके निदान के लिए उन्होंने कुछ भी नहीं किया। ठेकेदार और यूनियन में अन्दर-ही-अन्दर गहरी छनती है। कोयला खदानें सरकार ने ले लीं,। किन्तु स्थायी मज़दूर कितने हैं ? मज़दूर तो ठेकेदार लाता है। स्थायी मज़दूरों के लिए यूनियन है। ठेकेदार के मज़दूरों को स्थायी नौकरी देने की माँग कोई यूनियन नहीं उठाएगी।’’
‘‘तो इसका क्या मतलब निकला ?’’
‘‘यही तो स्थिति है ! सरकार-यूनियन-ठेकेदार-बस्ती- मालिक-आढ़तिये-दुकानदार-डाक-बाबू सभी एक थैले के चट्टे-बट्टे हैं-सभी एक दूसरे के दोस्त हैं। खदान में उतरता था। उफ़्फ़ ! क्या ही अँधेरा रहता था वहाँ ! और हफ़्तावारी मज़दूरी जिस दिन मिलती, उस दिन तो खदान के बाहर भी दूना अँधेरा दिखता ! ठेकेदार के मस्तान बन्दूकें लिये तैनात रहते थे। हमें जो मिलता उसमें उनका सभी हिस्सा होता। न दो तो छीन लें।’’
‘‘तुझे तो बहुत तकलीफ़ झेलनी पड़ी होगी।’’
‘‘यूनियन कोई हल नहीं निकालती। सरकारी अफ़सरों से कहो तो वे हँसते हैं। बस्ती मालिक घर का किराया काट लेंगे। आढ़तिये दुकानदार भूखे भेड़िये की तरह टूटे पड़ेंगे। औसत के हिसाब से अपना हिसाब समझ लेंगे वे। कुली मज़दूर का शोषण हर कोई करता है। घर से चिट्ठी-पत्री आये तो डाकिया खत नहीं देता, कहता है, रुपया दो। घर पर रुपया भेजना हो तो डाक बाबू कहते हैं, मेरा बट्टा लाओ !
‘‘तो तू रुपये लाया कैसे ? तेरी बुआ तो तेरे लिए बहुत रोती थी। मैं उसे ढाढ़स देता, रो-रो कर बनो के लिए अमंगल क्यों ढाती हो, वह मज़े में है।’’
‘‘नहीं चाचा, मज़े में नहीं था।’’
‘‘रुपये लाया कैसे ?’’
‘‘बहुत तकलीफ़ें झेलकर। तुम क्या समझते हो कि सिर्फ़ सेवरा के लोग ही क़र्ज़ लेकर बँधुआ वन जाते हैं ? खदानों में भी लोग क़र्ज़ लेते हैं और महाजन के बँधुआ बन जाते हैं।’’
‘‘तू अपने रुपये की बात बोल।’’
‘‘कुलियों की बस्ती में एक मस्तान आया करता था। वह बस्ती में घूमता। उसके पास काफ़ी रुपये थे। उसकी जेबें रुपयों से भरी रहतीं। सिगरेट ख़रीदने के लिए भी सौ का नोट निकालता। उस जैसे दौलतमन्द विरले ही होंगे।’’
‘‘वह कुली-बस्ती में क्यों जाता ?’’
‘‘औरत के लालच में। किसी जबान औरत को वह नहीं छोड़ता था। अपनी हविश मिटाता, फिर किसी कुली-मज़ूर की कोठी में घुसकर सो जाता उस दिन बहुत रात हो गयी थी। वह शराब के नशे में धुत था आख़िर लड़खड़ाता हुआ मेरे यहाँ आया और निढाल होकर पड़ गया। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सो जायें तो बच्चे की तरह दिखते हैं। ऐसा चेहरा देखकर ममत्व जागता है। लगता है कि वह किसी माँ का दुलारा होगा। किन्तु मस्तान सोते हैं तो उनके लिए ममता नहीं जागती। उनकी ओर देखने पर वे माँ के दुलारे भी नहीं लगते। यह मस्तान भी वैसा ही था।’’
‘‘उसका रुपया लिया तूने ?’’
‘‘उसे देखकर भी मन में कोई ममता नहीं जगी। उस मस्तान को सोते हुए देखते तो तुम्हें भी लगता कि कोई शैतान सो रहा है।’’
‘‘उसे मारा ?’’
‘‘नहीं चाचा, उसे मैंने नहीं मारा। मैं बैठकर उसे देख रहा था और सोच रहा था, ‘मज़दूरों के शोषण के लिए बस्ती में अवैध शराब का कारोबार फैलाये हो, मज़दूरों की बहू बेटियों की इज़्ज़त लूट रहे हो, तुम अत्यंत नीच हो, शैतान हो !’ और तभी...।’’
‘‘और तभी...क्या हुआ ?’’
‘‘मेरे दोनों हाथ थिरक उठे। हाथ कह रहे थे-गला दबा दूँ। मैंने हाथों को बहुत समझाया, पर वे माने नहीं। हाथ कह रहे थे, हम खदान में कोयला काटते हैं, हमारी जो इच्छा होगी, वही करेंगे।’’
‘‘उसके बाद ?’’
‘‘मेरे हाथ नाच उठे ! दोनों हाथ जैसे दौड़ पड़े ! नींद में शराबी कितना वजनी हो जाता है...मरने के बाद और भी वजनी किन्तु हाथों की भी अपनी कितनी शक्ति होती है ! मेरे शरीर में तो ताक़त है नहीं। दुबला पतला आदमी हूँ मैं। इन हाथों से ही तो उस गाढ़ी अँधेरी रात में उसे खींचकर ले गया था बहुत दूर काफ़ी दूर एक नाले के पास उसे पटका, फिर नाले में धकेल दिया। उस समय मन में सिर्फ़ एक ही चिंता थी कि बस्ती में उसकी लाश मिलने पर मज़दूरों पर हमले होंगे।’
‘‘तूने उसके रुपये भी ले लिये ?’’
‘‘नहीं। रुपये के लिए मैंने यह हत्या नहीं की थी। घर लौटते वक़्त देखा।
उन दिनों एक ही साथ उसकी बड़ी लड़की और बड़े लड़के की शादी हुई जात बिरादरी को बार-बार भोज देना पड़ा। जेल से लौटने का प्रायश्चित भी करना था। दामाद को एक बकरी देनी पड़ी। ऐसे कई कारण थे जिनके चलते गनोरी को इतने रुपये का क़र्ज़ लेना पड़ा। सारा काम करने के बाद कुछ आटा बच गया था जिसे पानी में उबालकर कई दिनों तक खाना-पीना चला। उस क़र्ज़ के कारण ही गनोरी को बँधुआ बनाना पड़ा।
बँधुआ बनना उस समय गनोरी को विशेष दुर्भाग्यपूर्ण नहीं लगा था। वह जन्म के बाद से ही अपने चारों ओर बँधुआ मज़दूर देखता आया था। बँधुआ बनाना तो विधि का विधान था। विधाता-पुरुष सिर घुटाये बामन के वेष नवजात शिशु के ललाट को लिपिबद्ध करने आते हैं। वे जो कुछ लिख जाते हैं, उसे कोई टाल नहीं सकता।
ऊँची जाति के बच्चों की क़िस्मत में से वे जगह जमीन गाय भैंस विषय भोग और कारोबार लिख देते हैं। शिक्षा नौकरी और ठेकेदारी भी उन्हीं के भाग्य में लिखते हैं।
नीच जाति के बच्चों के भाल पर लिख देते हैं-बँधुआ मज़दूरी।
विधाता के विधान से ही आकाश में चाँद और सूर्य उगते। उनकी इच्छा से सेवरा गाँव के निर्धन बच्चे मुनावरों के बँधुआ बनते।
इस विधान को कौन बदलेगा ?
गनोरी नागेरिया ऐसा व्यक्ति नहीं था जो विधाता के इस विधान को बदलता। मालिक के लाखों काम वह करता, हल बैल संभालता। शाम को कीमती बैल भैंस, गोशाला में बाँधने के बाद उसका काम ख़त्म होता। तब वह अपनी झोपड़ी में लौटता। झोपड़ी से बेहतर किसी आवास की व्यवस्था उसे कभी नसीब नहीं हुई। शायद कभी होगी भी नहीं। बनो नागेसिया ने अच्छा बनाने की कोशिश की थी, उसके बाद ही दुर्दशाओं से ग्रस्त हो गया था।
नागेसियाओं को यह बात अच्छी तरह मालूम है कि किसी नागेसिया शिशु की उम्र जिस दिन छह दिन की हो जाती है, उस दिन विधाता-पुरुष आकाश से हल्दी से रँगा एक पीला सूट लटका देते हैं और उसी के सहारे धरती पर उतर आते हैं। उस समय उनका चेहरा सिर घुटाये बामन जैसा होता है।
नागेसिया शिशु और उसकी माँ जिस झोपड़ी में हो उस झोपड़ी में वे क़तई दाखिल नहीं होते। झोपड़ी के बाहर रुककर मोटे कलम से कैथी हिन्दी में शिशु की क़िस्मत के खाते में लिख देते हैं, जैसा जन्म लिया है, वैसी ही ज़िन्दगी बिताओगे। झोपड़ी के अलावा अच्छा मकान कभी नहीं बनाओगे।’
सेवरा गाँव के बनो नागेसिया ने इस विधान की परवाह नहीं की थी। उसके पाँव-तले मानो पहिये लगे थे। यहाँ जाता, वहाँ जाता। ‘बिहार की हवा में रुपये उड़ते हैं’, ऐसा वह कहता। ‘ऊँची जाति के लोगों को यह गुण मालूम है, तभी वे हवा से रुपये बटोर लेते हैं। मैं तो नागेसिया हूँ, बहुत ही नगण्य व्यक्ति। किन्तु प्रयत्न करने में हर्ज क्या है ? जैसा जनम, वैसा करम...नहीं मैं यह बात नहीं मानता।’
कोयले की खान में काम करने के लिए बनो धनबाद चला गया था। एक ठेकेदार उसे ले गया था। ठेकेदार ने कहा था, ‘‘राँची जिले के मुंडाओं को ले जा रहा हूँ कोयला-खदान में। उनकी तरह तेरा नाम भी मुंडा कहकर लिख लेता हूँ, पता लिख ले रहा हूँ-झुरांडा थाना। चल, चल कोयला खदान में बहुत पैसे मिलेंगे !’’
कोयला काटकर, रुपये बटोरकर गाँव लौट आया था बनो। रुपये की गर्मी से उसका दिमाग़ फिर गया था। दिमाग़ क्यों न फिरता ? रुपये, नकद रुपये सेवरा गाँव के किस नागेसिया ने देखे थे ? और फिर किस नागेसिया ने कभी पाताल में झाँककर देखा था ? धरती के ऊपर की दुनिया उन्होंने देखी थी, धरती के नीचे पाताल के रहस्य की क्या उन्हें जानकारी थी ? वनो कहता-‘‘अरि ब्बाप ! आकाश का अँधेरा तो देखा था, कोयला खदान में देख आया पाताल का अँधेरा ! दूना अँधेरा। इतने नीचे उतरता...जैसे पातालपुरी !’’
‘‘क्या देखा ?’’
‘‘देखने को क्या था ? अँधेरा देख आया।’’
धनबाद से लौटकर बनो ने मकान बनवाने की योजना बनायी। कच्ची ईटों का मकान। वह मकान पक्का और मजबूत होगा।
कच्ची ईंटों से उसने खूबसूरत मकान बनवाया था। धनबाद से जो रुपये वह कमाकर लाया था, सारा उस मकान पर ही ख़र्च कर दिया था। यह देखकर दूसरे नागेसियाओं ने दीर्घ श्वाँस छोड़ा था। ईर्ष्या से नहीं। सेवरा गाँव के नागेसिया लोग द्वेष से दीर्घ श्वाँस नहीं छोड़ते। वे मुनावर की बीवी नहीं थे जो ईर्ष्या से उसाँस भरते !
मुनावर की बीवी औरों का भला देखकर कुढ़ती। वह सीधी-सादी औरत थी, मुटापे के कारण परेशान रहती। हुक्का पीती। कोई बात वह छिपा नहीं पाती थी। हमेशा खुद ही कहती-‘‘औरों का भला मैं देख नहीं पाती !’’
कभी-कभी वह बेटे के घर जाती। जाते वक़्त कहकर जाती कि एक महीना वहाँ रहेगी। चार दिनों के बाद ही लौट आती।
‘‘क्यों लौट आयीं, मालकिन ?’’
‘‘रह नहीं पायी।’’
‘‘क्यों मालकिन, क्यों ?’’
‘‘बहू ने रहने नहीं दिया।’’
‘‘बहू ने क्या किया ?’’
‘‘नहीं, मुझे कुछ नहीं किया। मुझे क्या करेगी ? हलुआ बनाती तो ढेर-सा घी डाल देती। धोती फट गयी तो वह दाई को दे दी। साधू संत भीख माँगने आये तो एक रुपया ही दे डाला ! यह सब देखकर मुझे बहुत जलन होती थी, छाती जलने लगती मेरी तो।’’
‘‘इसीलिए लौट आयीं ?’’
‘‘और देखा, नये कमरे बनवा रही है, गाय ख़रीद रही है। मुझसे औरों का भला नहीं देखा जाता, जलन होती है।’’
‘‘और कहाँ, तुम्हारा ही तो बेटा है।’’
‘‘अजी, खुद को छोड़कर सभी ग़ैर होते हैं।’’
मुनावर की बीवी खुले दिल की औरत थी, जो बात मन में होती, उगल देती। औरों का भला देखकर उसे कष्ट होता, इसलिए वह देखे जाती ही नहीं। घर बैठी मुटापे की तकलीफ़ में हाय-तोबा करती औरों को श्राप देती रहती।
मुनावर असाधु व्यक्ति था।
सेवरा के नागेसियाओं ने बनो नागेसिया को मकान बनाते देखकर दीर्घ श्वाँस छोड़ा था। यह क्या कर रहा है बनो ? ऐसा काम तो नागेसिया लोग नहीं करते। उसने दो सौ रुपये की पूँजी इकट्ठी कर ली, इसलिए मकान बनवायेगा ?
अव्वल तो नागेसिया के पास रुपया होना ही नहीं चाहिए। और हो तो उस रुपये से मकान नहीं बनवाना चाहिए। मकान बनवाओ या भैंस ख़रीदो तो मालिक की निगाह पड़ेगी। ज़मीन ख़रीदो तो मालिक छीन लेगा। गाय भैंस ख़रीदो तो भी मालिक छीन लेगा। छाता या पाँव के जूते ख़रीदो तो मालिक घर आँगन के खूँटे से बाँधकर पीटेगा। इसलिए बनो को मकान बनाते देखकर दूसरे नागेसियाओं ने उसाँस भरा था। बनो को यह क्या सूझा मुनावर सिंह चन्देला तो इसे बिलकुल बर्दाश्त नहीं करेगा और इसे भयंकर उदण्डता मान लेगा। जैसे भी हो, वह बनो को अवश्य सजा देगा।
बूढ़े भुनेश्वर ने कहा था, ‘‘परिवार में तेरे एक बुआ, बीवी और लड़का ही है। रुपये के साथ इन्हें लेकर तू और कहीं चला जाता तो कितना अच्छा करता।’’
‘‘कहाँ जाता ?’’
‘‘फिर धनबाद ही जाता।’’
‘‘वहाँ जाकर क्या करता ?’’
‘‘खदान में काम करता।’’
‘‘खदान ! काम !’’
‘‘वाह रे, उस काम की बदौलत ही तो तूने इतने रुपये बटोरे। बार रे बाप ! कितने ढेर सारे रुपये !’’
‘मैं सारी बातें बताना नहीं चाहता था। अब तो ख़ैर बता देना ही ठीक होगा। मैं तो ठेकेदार का मज़दूर था। ठेकेदार जिसे लेगा, वही मज़दूर खदान में काम कर पाएगा। मज़दूरों के बहुत थोड़े ही पैसे मिलते हैं मज़दूरी के नाम पर।
‘‘क्या कह रहा है तू ?’’
‘‘ठीक ही कह रहा हूँ। ठेकेदार बहुत ठगता है। यूनियन से यह बात बतायी तो बाबू लोगों ने मुँह-ज़बानी सारी बातें मान लीं किन्तु इसके निदान के लिए उन्होंने कुछ भी नहीं किया। ठेकेदार और यूनियन में अन्दर-ही-अन्दर गहरी छनती है। कोयला खदानें सरकार ने ले लीं,। किन्तु स्थायी मज़दूर कितने हैं ? मज़दूर तो ठेकेदार लाता है। स्थायी मज़दूरों के लिए यूनियन है। ठेकेदार के मज़दूरों को स्थायी नौकरी देने की माँग कोई यूनियन नहीं उठाएगी।’’
‘‘तो इसका क्या मतलब निकला ?’’
‘‘यही तो स्थिति है ! सरकार-यूनियन-ठेकेदार-बस्ती- मालिक-आढ़तिये-दुकानदार-डाक-बाबू सभी एक थैले के चट्टे-बट्टे हैं-सभी एक दूसरे के दोस्त हैं। खदान में उतरता था। उफ़्फ़ ! क्या ही अँधेरा रहता था वहाँ ! और हफ़्तावारी मज़दूरी जिस दिन मिलती, उस दिन तो खदान के बाहर भी दूना अँधेरा दिखता ! ठेकेदार के मस्तान बन्दूकें लिये तैनात रहते थे। हमें जो मिलता उसमें उनका सभी हिस्सा होता। न दो तो छीन लें।’’
‘‘तुझे तो बहुत तकलीफ़ झेलनी पड़ी होगी।’’
‘‘यूनियन कोई हल नहीं निकालती। सरकारी अफ़सरों से कहो तो वे हँसते हैं। बस्ती मालिक घर का किराया काट लेंगे। आढ़तिये दुकानदार भूखे भेड़िये की तरह टूटे पड़ेंगे। औसत के हिसाब से अपना हिसाब समझ लेंगे वे। कुली मज़दूर का शोषण हर कोई करता है। घर से चिट्ठी-पत्री आये तो डाकिया खत नहीं देता, कहता है, रुपया दो। घर पर रुपया भेजना हो तो डाक बाबू कहते हैं, मेरा बट्टा लाओ !
‘‘तो तू रुपये लाया कैसे ? तेरी बुआ तो तेरे लिए बहुत रोती थी। मैं उसे ढाढ़स देता, रो-रो कर बनो के लिए अमंगल क्यों ढाती हो, वह मज़े में है।’’
‘‘नहीं चाचा, मज़े में नहीं था।’’
‘‘रुपये लाया कैसे ?’’
‘‘बहुत तकलीफ़ें झेलकर। तुम क्या समझते हो कि सिर्फ़ सेवरा के लोग ही क़र्ज़ लेकर बँधुआ वन जाते हैं ? खदानों में भी लोग क़र्ज़ लेते हैं और महाजन के बँधुआ बन जाते हैं।’’
‘‘तू अपने रुपये की बात बोल।’’
‘‘कुलियों की बस्ती में एक मस्तान आया करता था। वह बस्ती में घूमता। उसके पास काफ़ी रुपये थे। उसकी जेबें रुपयों से भरी रहतीं। सिगरेट ख़रीदने के लिए भी सौ का नोट निकालता। उस जैसे दौलतमन्द विरले ही होंगे।’’
‘‘वह कुली-बस्ती में क्यों जाता ?’’
‘‘औरत के लालच में। किसी जबान औरत को वह नहीं छोड़ता था। अपनी हविश मिटाता, फिर किसी कुली-मज़ूर की कोठी में घुसकर सो जाता उस दिन बहुत रात हो गयी थी। वह शराब के नशे में धुत था आख़िर लड़खड़ाता हुआ मेरे यहाँ आया और निढाल होकर पड़ गया। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सो जायें तो बच्चे की तरह दिखते हैं। ऐसा चेहरा देखकर ममत्व जागता है। लगता है कि वह किसी माँ का दुलारा होगा। किन्तु मस्तान सोते हैं तो उनके लिए ममता नहीं जागती। उनकी ओर देखने पर वे माँ के दुलारे भी नहीं लगते। यह मस्तान भी वैसा ही था।’’
‘‘उसका रुपया लिया तूने ?’’
‘‘उसे देखकर भी मन में कोई ममता नहीं जगी। उस मस्तान को सोते हुए देखते तो तुम्हें भी लगता कि कोई शैतान सो रहा है।’’
‘‘उसे मारा ?’’
‘‘नहीं चाचा, उसे मैंने नहीं मारा। मैं बैठकर उसे देख रहा था और सोच रहा था, ‘मज़दूरों के शोषण के लिए बस्ती में अवैध शराब का कारोबार फैलाये हो, मज़दूरों की बहू बेटियों की इज़्ज़त लूट रहे हो, तुम अत्यंत नीच हो, शैतान हो !’ और तभी...।’’
‘‘और तभी...क्या हुआ ?’’
‘‘मेरे दोनों हाथ थिरक उठे। हाथ कह रहे थे-गला दबा दूँ। मैंने हाथों को बहुत समझाया, पर वे माने नहीं। हाथ कह रहे थे, हम खदान में कोयला काटते हैं, हमारी जो इच्छा होगी, वही करेंगे।’’
‘‘उसके बाद ?’’
‘‘मेरे हाथ नाच उठे ! दोनों हाथ जैसे दौड़ पड़े ! नींद में शराबी कितना वजनी हो जाता है...मरने के बाद और भी वजनी किन्तु हाथों की भी अपनी कितनी शक्ति होती है ! मेरे शरीर में तो ताक़त है नहीं। दुबला पतला आदमी हूँ मैं। इन हाथों से ही तो उस गाढ़ी अँधेरी रात में उसे खींचकर ले गया था बहुत दूर काफ़ी दूर एक नाले के पास उसे पटका, फिर नाले में धकेल दिया। उस समय मन में सिर्फ़ एक ही चिंता थी कि बस्ती में उसकी लाश मिलने पर मज़दूरों पर हमले होंगे।’
‘‘तूने उसके रुपये भी ले लिये ?’’
‘‘नहीं। रुपये के लिए मैंने यह हत्या नहीं की थी। घर लौटते वक़्त देखा।
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