सामाजिक >> ग्राम बांग्ला ग्राम बांग्लामहाश्वेता देवी
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ग्राम बांग्ला में सात उपन्यासिकाएँ- ग्राम बांग्ला, सीमांत अँधेरे की, संतान, राजा, स्वदेश की धूलि, लाइफर और तेपांतरी
Gram Bagla
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
ग्राम बांग्ला में सात उपन्यासिकाएँ- ग्राम बांग्ला, सीमांत अँधेरे की, संतान, राजा, स्वदेश की धूलि, लाइफर और तेपांतरी। कहने को ये अलग-अलग उपन्यासिकाएँ हैं लेकिन समग्रता में ये ग्रामीण बंगाल की ताजा तस्वीर बनाती हैं। वैसे ग्रामीण बंगाल भारत के किसी ग्रमीण समाज से अलग नहीं दीखता। थोड़े-बहुत भौगोलिक-सांस्कृतिक अंतर के बावजूद वह भारतीय ग्रामीण समाज जैसा ही लगता है। हिंदीभाषी समाज की तो विशेष निकटता बंगाल से रही है।
समाज क्या सिर्फ मुख्यधारा-यानी खाते-पीते-अघाए लोगों का होता है ? क्या लेखक सिर्फ इन्हीं के जीवन के इर्द-गिर्द ध्यान रखता रहेगा ? प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी के सामने स्पष्ट रहा है कि मुख्य धारा समृद्ध है, मगर संख्या में छोटी है। समाज में बृहत्तर हिस्सा हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों का है। और, ऐसे लोग साहित्य की उपेक्षा के भी शिकार रहे हैं। इसीलिए वे समाज के सीमांत पर बसे लोगों को अपनी संवेदना-सहानुभूति का केंद्र बनाती हैं।
इसीलिए वे स्टेशन के फेरीवालों, आदिवासियों, छोटी जगहों के राजनीतिक कार्यकरताओं, सपेरों, डायन करार दी गई स्त्रियों जैसे चरित्रों एवं छोटी-छोटी संख्यावाले समुदायों पर लिखती हैं। खूब लिखती हैं और कलात्मक उत्कर्ष की परवाह किए बगैर लिखती हैं। ‘‘अब मुझमें साहित्य के शिल्पगत उत्कर्ष का कोई आग्रह नहीं रहा।’’ लेकिन नई विषय-वस्तु के संधान का उत्साह और साहस उनमें हमेशा बरकरार रहा।
पूरे संकलन में यह साहस दीखता है। पश्चिम बंगाल में लोकप्रिय वामपंथी सरकार द्वारा बटाईदारों के पक्ष में चलाए गए आपरेशन वर्गा की असलियत वह बेहिचक सामने लाती हैं। वर्ग-संघर्ष के बारे में वे सवाल करती हैं-यह कैसा वर्ग-संघर्ष है जिसमें एक ही वर्ग के लोग एक-दूसरे के शत्रु बन रहे हैं ? ‘सीमांत’ में वे कहती हैं-‘सती-साध्वी होना एक प्रकार का रोग है। एक बार पकड़ लेता है तो कभी छोड़ता नहीं।’ यह संकलन बिरल लेखकीय साहस का प्रतिमान है।
समाज क्या सिर्फ मुख्यधारा-यानी खाते-पीते-अघाए लोगों का होता है ? क्या लेखक सिर्फ इन्हीं के जीवन के इर्द-गिर्द ध्यान रखता रहेगा ? प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी के सामने स्पष्ट रहा है कि मुख्य धारा समृद्ध है, मगर संख्या में छोटी है। समाज में बृहत्तर हिस्सा हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों का है। और, ऐसे लोग साहित्य की उपेक्षा के भी शिकार रहे हैं। इसीलिए वे समाज के सीमांत पर बसे लोगों को अपनी संवेदना-सहानुभूति का केंद्र बनाती हैं।
इसीलिए वे स्टेशन के फेरीवालों, आदिवासियों, छोटी जगहों के राजनीतिक कार्यकरताओं, सपेरों, डायन करार दी गई स्त्रियों जैसे चरित्रों एवं छोटी-छोटी संख्यावाले समुदायों पर लिखती हैं। खूब लिखती हैं और कलात्मक उत्कर्ष की परवाह किए बगैर लिखती हैं। ‘‘अब मुझमें साहित्य के शिल्पगत उत्कर्ष का कोई आग्रह नहीं रहा।’’ लेकिन नई विषय-वस्तु के संधान का उत्साह और साहस उनमें हमेशा बरकरार रहा।
पूरे संकलन में यह साहस दीखता है। पश्चिम बंगाल में लोकप्रिय वामपंथी सरकार द्वारा बटाईदारों के पक्ष में चलाए गए आपरेशन वर्गा की असलियत वह बेहिचक सामने लाती हैं। वर्ग-संघर्ष के बारे में वे सवाल करती हैं-यह कैसा वर्ग-संघर्ष है जिसमें एक ही वर्ग के लोग एक-दूसरे के शत्रु बन रहे हैं ? ‘सीमांत’ में वे कहती हैं-‘सती-साध्वी होना एक प्रकार का रोग है। एक बार पकड़ लेता है तो कभी छोड़ता नहीं।’ यह संकलन बिरल लेखकीय साहस का प्रतिमान है।
लेखिका की ओर से
‘ग्राम बांग्ला’ नाम निश्चय ही अपना परिचय स्वयं दे रहा है। मैं समझती हूँ इस पुस्तक में संकलित रचनाओं के लिए यही नाम ठीक रहेगा। यहाँ जो रचनाएँ संकलित हैं वही ग्राम बांग्ला का पूरा परिचय देने को पर्याप्त हैं, ऐसा मैं नहीं मानती। मैंने जैसा देखा, वैसा लिखा है।
काफी दिनों से मैं कुछ जन-संगठनों से जुड़ी हुई हूँ। इनमें जैसे संथाल, मुंडा, लोधाशबर, भूमिज, खेड़ियाशबर जैसे आदिवासी समाज-कल्याण संगठन हैं, वैसे ही कुछ दलित जन कल्याण समितियाँ और जाति धर्म-निरपेक्ष ग्रामाधार वाली कल्याण समितियों सहित, पालामऊ जिला भूमिदास मुक्तिमोर्चा और कुछ ईंट-भट्ठा श्रमिक यूनियनें भी हैं। इन सभी संगठनों में से कई की स्थापना से भी मैं जुड़ी रही हूँ—जैसे पालामऊ संगठन और पुरुलिया में स्थापित खेड़ियाशबर कल्याण समिति। लोधाशबर कल्याण समिति का रजिस्ट्रेशन 1962 में हुआ, पर वह सक्रिय नहीं थी, इसलिए तीनेक वर्ष पहले पुनरुज्जीवित किया गया। मुंडा समाज में दो संगठन हैं। सुगाड़गठड़ाँ 20-22 वर्ष पुरानी है। उसका रजिस्ट्रेशन 1981 में कराया गया। सुगाड़ समिति दो वर्ष पुरानी है।
ये सब समितियाँ क्यों गठित की गईं, यह प्रश्न यदि उन लोगों से किया जाय, जिनका यह संगठन है, तो वे कहेंगे कि ज़िंदा रहने के लिए। इन सभी संगठनों से जुड़े हुए लोगों में से नब्बे प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से बहुत नीचे अवस्थित हैं। यह पश्चिम बंगाल की चलायमान जन-संख्या है, क्योंकि काम की तलाश में पूरे साल इधर-उधर फिरते रहते हैं। इनके घरों में आग है, इसीलिए ये ज़िंदा रहने के लिए जान खपाते हैं। संगठन क्यों, इसका उत्तर तथ्य और डेटा बताते हैं। लोधाशबर और खेड़ियाशबर दोनों ही शबर जातियाँ हैं। सरकारी गणना में लोधा और खेड़िया एक में गिने जाते हैं। दोनों ही जातियाँ किसी समय ‘अपराध प्रवण’ (यह नाम ब्रिटिश सदाशयता का उपहार है) कहकर विवेचित हुईं, जिसका अभिशाप वे आज भी ढो रही हैं। लोधा हत्या की घटना बीच-बीच में ‘खबर’ बनती है और खेड़ियाशबर ने पुरुलिया जिला के स्वाधीनता संग्राम में अत्यंत दुस्साहसिक भूमिका निभाई थी। कुछ दिनों पहले तक ये पुरुलिया शहर में साधारणतः कमर में रस्सी और हाथ में कड़े के अलावा और कुछ पहनकर नहीं घुसते थे। अभी कुछ दिनों पहले स्वाधीनता संघर्ष के लिए पेंशन प्राप्त कानूराम शबर का घर वन विभाग ने गिरा दिया। बहुत-से स्वाधीनता संग्रामी शबर आज भी सरकार से कोई वृत्ति नहीं पाते। हाथ में कुल्हाड़ी और कमर में कौपीन पहने शबरों की जीविका है लकड़ी इकट्ठा करना।
दांतन थाना के अंतर्गत 2 नंबर अंचल के शांखारीडांगा ग्राम के लोधाओं का विवरण निम्नलिखित है : परिवार 87, बालक 123, बालिका 82, स्कूल जाने वाले बच्चे 44, संपूर्ण भूमिहीन 26(कृषियोग्य भूमि और आवासविहीन। उपरोक्त गणना के समय तक किसी परिवार को आदिवासी सहायता योजना के तहत कोई मदद नहीं मिली थी। रोजगार की स्थिति यह है कि बाँका कोटाल के परिवार, जिसकी सदस्य संख्या 7 है, की आमदनी 60 रु. महीना है। मेरे पास ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ प्रति व्यक्ति 4 से 5 रु. महीने की आमदनी है।
पुरुलिया के अत्यंत दरिद्र खेड़ियाशबर लोग जबला गाँव में जड़ नदी का शासनडी-बाँधडी गाँव में हनुमाता नदी का, निश्चिन्दपुर गाँव में कुमारी नदी का और शारगअ गाँव में नेंसाई नदी का पानी पीते हैं। सभी ज़गह मैंने नहीं देखी हैं, फिर भी यह बात जानती हूँ कि पुरुलिया के असंख्य गाँवों में पानी का संकट है।
इन सभी समितियों की चर्चा मैंने यह जताने के लिए की है कि ग्राम बांग्ला के साथ मेरा परिचय खूब घनिष्ठ है। इनकी दुख-दुर्दशा की जानकारी मेरे पास सीधे पहुँचती है। ऊपर जो विवरण दिये गये हैं उनसे यह समझने का भी अनुरोध करती हूँ कि जो आज संगठन बना रहे हैं वे पीने और सिंचाई के पानी, शिक्षा भूमि, जीवरक्षा के साधनों आदि से वंचित हैं, इसीलिए संगठन बना रहे हैं। ऐसे परिवारों की संख्या अगणित है जो आज भी कुछेक फल, लकड़ी और पत्ते देने वाले पेड़ और 4-5 बकरियों के सहारे जीवन-यापन कर सकते हैं । लोधा और खेड़िया लोगों की चर्चा इसलिए की है कि (क) वे आदिवासी हैं, (ख) मर्दुमशुमारी में लोधाखेड़िया नाम एक साथ हैं, (ग) लोधाओं को खेड़िया से विच्छिन्न करके उन्हें ‘विशेष रूप से संरक्षित आदिवासी’ नाम दिया गया है, (घ) खेड़िया आदिवासी खाते की कोई सुविधा नहीं पाते और (च) लोधाओं के बारे में सरकार अब सचेत हो रही है, वह भी लोधा समाज में जागरण आने के बाद। इसी तरह इनकी कृपा से बांग्ला के समाचार मेरे पास आते हैं और सरकारी दफ्तरों को, जिलाधिकारियों को पानी दो, शिक्षा तथा आवास की व्यवस्था करो, सागर तक फैली भारतभूमि इन्हें नहीं चाहिए, कुछेक फलदार वृक्ष और बकरियाँ दो, घृणित ठेकेदारी प्रथा समाप्त करो और इनके द्वारा गठित समितियों के माध्यम से विकास योजनाओं पर अमल करो—इन्हीं मसविदों की पाँच-सात सौ चिट्ठियाँ मुझे प्रतिवर्ष लिखनी पड़ती हैं। चूँकि मेरे पास घटनाओं के विवरण प्रत्यक्ष रूप से आते हैं, इसलिए इन रचनाओं में वर्णित छोटी घटनाओं के तथ्य और उनसे संबंधित डाकुमेंट मेरे पास हैं। जो गाँव मैंने देखे हैं और जो नहीं देखे हैं—उन सभी को लेकर ग्राम बांग्ला की रचना की गई है। अवश्य ही साल-भर मुझे नाना प्रकार के अभियोग सुनने पड़ते हैं। जो कहते हैं कि मैं पाश्चात्य ढंग से भोगविलास से भरपूर जीवन बिताती हूँ, उनके साथ मेरा परिचय भी नहीं है, उनकी बातों का उत्तर मैं नहीं दूँगी। पर जो कहते हैं कि यह सब करके तो सिर्फ़ गरीबों को थोड़ी-बहुत मदद पहुँचाई जा रही है, उनको मैं उत्तर देना चाहूँगी।
मैं थोड़ा और गहराई में जाना चाहूँगी। अभी तक हमने इतिहास से सीखा है कि संघर्ष के क्षेत्र में एकजुटता और बहुत दिनों से अपनी माँगों को लेकर संघर्ष करना (जो ‘मेन स्ट्रीम’ करता है), संघर्ष के इस स्तर तक गरीबी की सीमा से नीचे के आदमी को नहीं लाया गया है। यह बात उन्हें इसलिए जाननी होगी कि लोधा-मुंडा-खेड़िया-संथाल आदि को आदिम साम्यवाद स्तर की समाज-व्यवस्था में वापस नहीं ले जाया जा सकता। यह एक ठोस यथार्थ है कि उन्हें इस वर्तमान हिंस्र तथा बर्बर समय के साथ चलना होगा। इसीलिए जब खेड़िया लोग पंचायत से कुँआ मंजूर कराने के बाद ठेकेदार को हटाकर, पत्थर काटकर खुद अपने हाथों कुआँ तैयार करते हैं, उसके पानी से घर से सटी ज़मीन पर परंपरागत धान की खेती न करके भुट्टा, कुरथीकलाई की खेती करते हैं और साल में कई महीनों के लिए भोजन के लिए जुगाड़ कर लेते हैं, तो यह उनका अर्जित फल है, भिक्षा पाना नहीं है। लोधा और खेड़िया आज एकताबद्ध होकर निर्मम समाज को जता रहे हैं कि दूसरों के अपराध उनकी गर्दन पर डालकर अत्याचार करने के दिन लद गये। वे अब लड़ रहे हैं। लड़ाई का मतलब हमेशा हथियार उठाना नहीं होता। उनकी सारी कोशिशें जब व्यर्थ हो जाती हैं तब भी ये लड़ाई ही सीखते हैं। दुश्मन को पहचानते हैं और इनका गुस्सा कण-कण जमा होता हुआ और कठोर होता जाता है। मैं समझती हूँ कि भारत का गरीब आदमी निरक्षर भले हो, अशिक्षित नहीं है। उसने युगों-युगों से अन्याय सहा है, वह सफेद और काले का अर्थ समझता है। किस चीज के लिए लड़ना होगा—वह जानता है और उस लड़ाई का संदर्भ क्या होगा यह वही तय करेगा। गाँव के गरीब को हम बताने और सिखाने जायेंगे, उससे कुछ सीखेंगे नहीं, यह हमारी भूल है। बहुत बड़ी भूल। उसके पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि महीने में 4-5 रु. की आमदनी करके, पत्ते और कंदमूल खाकर भी वह ज़िंदा रहता है और इस तरह साबित करता है कि वह ज़िंदा रहना, टिका रहना जानता है। वह यह भी जानता है कि बिना किसी अन्य समाज के सीखे, अपनी ही कोशिश और स्फूर्ति से सिधूकानू और विरसा और दूसरे असंख्य लोगों ने एक सार्थक संग्राम का गठन किया था। जो यह कहते हैं कि साहित्यिक दृष्टि से मेरी रचनाशीलता व्यर्थ हो रही है, ‘आपरेशन ? वसाइटुडू’ अथवा ‘स्तनदायिनी’ की शैली-भाषा-शिल्प के निर्माण में मैं असफल हो रही हूँ—उनसे मेरा निवेदन है कि अब मुझे साहित्य के शिल्पगत उत्कर्ष का कोई आग्रह नहीं रहा। जो इसमें सक्षम हैं, वे करें। इसके साथ ही विनम्रतापूर्वक यह भी बता दूँ कि चूँकि सारा साल दूसरे तरह के क्रियाकलापों में कटता है, इसलिए साहित्य के लिए साहित्यिक ढंग की आलोचना-प्रत्यालोचना के लिए मैं अपने अंदर कोई उत्साह नहीं पाती। इन बातों को बन्धुगण मेरी व्यर्थता ही मानें।
वस्तुतः अपने लेखन को लेकर कोई वक्तव्य प्रस्तुत करना मुझे बड़ा बुरा लगता है। मेरी रचना पढ़कर अगर मुझे समझा न जा सके तो मैं अपने को लाचार और व्यर्थ पाती हूँ। मैं और कुछ नहीं कर सकती। जो लोग आज भी पूछते हैं कि अकादमी पुरस्कार लेकर मैंने क्या अपने को बेच नहीं दिया है, उनसे मेरा अनुरोध है कि वे पुरस्कार संबंधी अपना दृष्टिकोण पहले स्पष्ट करें। सिनेमा-थियेटर में, किसी विशेष सिनेमा के लिए निर्देशकों को ढेरों सरकारी पुरस्कार और सम्मान मिलता है। आप लोग उनकी निष्ठा पर तो प्रश्नचिह्न नहीं लगाते। सिनेमा के क्षेत्र में वामपंथी निर्देशक को आत्मविक्रय तथा समझौतावादी नहीं करार देंगे और साहित्य के क्षेत्र में ऐसा करेंगे; इससे प्रमाणित होता है कि आप लोग दोमुँहे न्यायबोध से परिचालित हो रहे हैं। शायद कहीं यह अवधारणा आपके अवचेतन में बनी हुई है कि सिनेमा-निर्देशकों का मूल्य साहित्यकार की अपेक्षा कहीं ज़्यादा है। सिनेमा-निर्देशक को दस-बीस-पचीस-पचास हजार में खरीदा जा सकता है तो बेचारे साहित्यकार को उससे कहीं सस्ते दामों यानी पाँच या दस हज़ार में खरीदा जा सकता है। कौन लेखक किस तरह का समझौता कर रहा है, यह उसके साहित्य-कर्म में ही पकड़ा जा सकता है। जो कहते हैं कि मैं सिर्फ़ शोषण-उत्पीड़न दिखा रही हूँ, इससे मुक्ति की बात नहीं कर रही हूँ—उनसे कहना चाहूँगी कि यदि मेरा लेखन यह बता पा रहा है कि स्थिति असहनीय हो गई है और इससे मुक्ति ज़रूरी है, तो मैं अपने उद्देश्य में सफल हूँ। जिनके जीवन में आग लगी हुई है उन पर मेरी पूरी आस्था है कि वे कभी गलती नहीं करेंगे। उन्होंने कभी कोई गलती नहीं की, न तेलंगाना में, न तेनागा में और न नक्सलवाड़ी में। अपना रास्ता वे खुद चुन लेंगे। इस विषय में पूर्णरूप से अनधिकारी हूँ। मैं तो जो देख रही हूँ, उसका यथातथ्य चित्रण करने की चेष्टा-भर कर रही हूँ। जो इस बात से दुखी हैं कि मैं साहित्य-विषयक आलोचना-प्रत्यालोचना के प्रति आग्रही नहीं हूँ, उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि अभी तक जितनी बातें मैंने कहीं वे मेरे लिए केवल समाजव्यवस्था के प्रश्न से संबंधित नहीं हैं, बल्कि साहित्य के संदर्भ में भी उतनी ही सही हैं।
अंत में कहना चाहूँगी कि मैं तो अब अस्तगामी हो चली हूँ। आयु की बालू-घड़ी में से बालू के कण निःशब्द झर रहे हैं। आज लगता है, सभी असह्य परिस्थितियों के बावजूद जो आदमी की जिजीविषा है, वह तो सत् मूल्यों में आस्था रखना चाहता है, जिसके लिए वृष्टि ही खेती का साधन है, वह मनुष्य जब एक पौधा रोपता है ज़मीन में वह भी गहरी आस्था के साथ उसी जिजीविषा का ही रोपण करता है-ये ही मेरे लिए सबसे ज़्यादा जानने योग्य बातें हैं। यह उपलब्धि वह मंज़िल है जहाँ अंत में अपना रास्ता ढूँढ़ते हुए मैं पहुँची हूँ। जिन्हें केवल करुणा का पात्र भिखारी बनाके रखा जा रहा है, वे आज पीने और सिंचाई के पानी के लिए खुद लड़ रहे हैं और अपने हाथों कुआँ खोद रहे हैं, अपने हाथों अपना रास्ता बना रहे हैं, इतना देखकर जा रही हूँ, इसके लिए खुद को धन्य मानती हूँ।
पश्चिमी दिगंत की ओर जाते-जाते भी अगर पूर्वांचल की तरफ देखा जाय तो जागरण ही दिखाई पड़ता है; कभी सूर्य का, तो कभी जीवन का।
काफी दिनों से मैं कुछ जन-संगठनों से जुड़ी हुई हूँ। इनमें जैसे संथाल, मुंडा, लोधाशबर, भूमिज, खेड़ियाशबर जैसे आदिवासी समाज-कल्याण संगठन हैं, वैसे ही कुछ दलित जन कल्याण समितियाँ और जाति धर्म-निरपेक्ष ग्रामाधार वाली कल्याण समितियों सहित, पालामऊ जिला भूमिदास मुक्तिमोर्चा और कुछ ईंट-भट्ठा श्रमिक यूनियनें भी हैं। इन सभी संगठनों में से कई की स्थापना से भी मैं जुड़ी रही हूँ—जैसे पालामऊ संगठन और पुरुलिया में स्थापित खेड़ियाशबर कल्याण समिति। लोधाशबर कल्याण समिति का रजिस्ट्रेशन 1962 में हुआ, पर वह सक्रिय नहीं थी, इसलिए तीनेक वर्ष पहले पुनरुज्जीवित किया गया। मुंडा समाज में दो संगठन हैं। सुगाड़गठड़ाँ 20-22 वर्ष पुरानी है। उसका रजिस्ट्रेशन 1981 में कराया गया। सुगाड़ समिति दो वर्ष पुरानी है।
ये सब समितियाँ क्यों गठित की गईं, यह प्रश्न यदि उन लोगों से किया जाय, जिनका यह संगठन है, तो वे कहेंगे कि ज़िंदा रहने के लिए। इन सभी संगठनों से जुड़े हुए लोगों में से नब्बे प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से बहुत नीचे अवस्थित हैं। यह पश्चिम बंगाल की चलायमान जन-संख्या है, क्योंकि काम की तलाश में पूरे साल इधर-उधर फिरते रहते हैं। इनके घरों में आग है, इसीलिए ये ज़िंदा रहने के लिए जान खपाते हैं। संगठन क्यों, इसका उत्तर तथ्य और डेटा बताते हैं। लोधाशबर और खेड़ियाशबर दोनों ही शबर जातियाँ हैं। सरकारी गणना में लोधा और खेड़िया एक में गिने जाते हैं। दोनों ही जातियाँ किसी समय ‘अपराध प्रवण’ (यह नाम ब्रिटिश सदाशयता का उपहार है) कहकर विवेचित हुईं, जिसका अभिशाप वे आज भी ढो रही हैं। लोधा हत्या की घटना बीच-बीच में ‘खबर’ बनती है और खेड़ियाशबर ने पुरुलिया जिला के स्वाधीनता संग्राम में अत्यंत दुस्साहसिक भूमिका निभाई थी। कुछ दिनों पहले तक ये पुरुलिया शहर में साधारणतः कमर में रस्सी और हाथ में कड़े के अलावा और कुछ पहनकर नहीं घुसते थे। अभी कुछ दिनों पहले स्वाधीनता संघर्ष के लिए पेंशन प्राप्त कानूराम शबर का घर वन विभाग ने गिरा दिया। बहुत-से स्वाधीनता संग्रामी शबर आज भी सरकार से कोई वृत्ति नहीं पाते। हाथ में कुल्हाड़ी और कमर में कौपीन पहने शबरों की जीविका है लकड़ी इकट्ठा करना।
दांतन थाना के अंतर्गत 2 नंबर अंचल के शांखारीडांगा ग्राम के लोधाओं का विवरण निम्नलिखित है : परिवार 87, बालक 123, बालिका 82, स्कूल जाने वाले बच्चे 44, संपूर्ण भूमिहीन 26(कृषियोग्य भूमि और आवासविहीन। उपरोक्त गणना के समय तक किसी परिवार को आदिवासी सहायता योजना के तहत कोई मदद नहीं मिली थी। रोजगार की स्थिति यह है कि बाँका कोटाल के परिवार, जिसकी सदस्य संख्या 7 है, की आमदनी 60 रु. महीना है। मेरे पास ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ प्रति व्यक्ति 4 से 5 रु. महीने की आमदनी है।
पुरुलिया के अत्यंत दरिद्र खेड़ियाशबर लोग जबला गाँव में जड़ नदी का शासनडी-बाँधडी गाँव में हनुमाता नदी का, निश्चिन्दपुर गाँव में कुमारी नदी का और शारगअ गाँव में नेंसाई नदी का पानी पीते हैं। सभी ज़गह मैंने नहीं देखी हैं, फिर भी यह बात जानती हूँ कि पुरुलिया के असंख्य गाँवों में पानी का संकट है।
इन सभी समितियों की चर्चा मैंने यह जताने के लिए की है कि ग्राम बांग्ला के साथ मेरा परिचय खूब घनिष्ठ है। इनकी दुख-दुर्दशा की जानकारी मेरे पास सीधे पहुँचती है। ऊपर जो विवरण दिये गये हैं उनसे यह समझने का भी अनुरोध करती हूँ कि जो आज संगठन बना रहे हैं वे पीने और सिंचाई के पानी, शिक्षा भूमि, जीवरक्षा के साधनों आदि से वंचित हैं, इसीलिए संगठन बना रहे हैं। ऐसे परिवारों की संख्या अगणित है जो आज भी कुछेक फल, लकड़ी और पत्ते देने वाले पेड़ और 4-5 बकरियों के सहारे जीवन-यापन कर सकते हैं । लोधा और खेड़िया लोगों की चर्चा इसलिए की है कि (क) वे आदिवासी हैं, (ख) मर्दुमशुमारी में लोधाखेड़िया नाम एक साथ हैं, (ग) लोधाओं को खेड़िया से विच्छिन्न करके उन्हें ‘विशेष रूप से संरक्षित आदिवासी’ नाम दिया गया है, (घ) खेड़िया आदिवासी खाते की कोई सुविधा नहीं पाते और (च) लोधाओं के बारे में सरकार अब सचेत हो रही है, वह भी लोधा समाज में जागरण आने के बाद। इसी तरह इनकी कृपा से बांग्ला के समाचार मेरे पास आते हैं और सरकारी दफ्तरों को, जिलाधिकारियों को पानी दो, शिक्षा तथा आवास की व्यवस्था करो, सागर तक फैली भारतभूमि इन्हें नहीं चाहिए, कुछेक फलदार वृक्ष और बकरियाँ दो, घृणित ठेकेदारी प्रथा समाप्त करो और इनके द्वारा गठित समितियों के माध्यम से विकास योजनाओं पर अमल करो—इन्हीं मसविदों की पाँच-सात सौ चिट्ठियाँ मुझे प्रतिवर्ष लिखनी पड़ती हैं। चूँकि मेरे पास घटनाओं के विवरण प्रत्यक्ष रूप से आते हैं, इसलिए इन रचनाओं में वर्णित छोटी घटनाओं के तथ्य और उनसे संबंधित डाकुमेंट मेरे पास हैं। जो गाँव मैंने देखे हैं और जो नहीं देखे हैं—उन सभी को लेकर ग्राम बांग्ला की रचना की गई है। अवश्य ही साल-भर मुझे नाना प्रकार के अभियोग सुनने पड़ते हैं। जो कहते हैं कि मैं पाश्चात्य ढंग से भोगविलास से भरपूर जीवन बिताती हूँ, उनके साथ मेरा परिचय भी नहीं है, उनकी बातों का उत्तर मैं नहीं दूँगी। पर जो कहते हैं कि यह सब करके तो सिर्फ़ गरीबों को थोड़ी-बहुत मदद पहुँचाई जा रही है, उनको मैं उत्तर देना चाहूँगी।
मैं थोड़ा और गहराई में जाना चाहूँगी। अभी तक हमने इतिहास से सीखा है कि संघर्ष के क्षेत्र में एकजुटता और बहुत दिनों से अपनी माँगों को लेकर संघर्ष करना (जो ‘मेन स्ट्रीम’ करता है), संघर्ष के इस स्तर तक गरीबी की सीमा से नीचे के आदमी को नहीं लाया गया है। यह बात उन्हें इसलिए जाननी होगी कि लोधा-मुंडा-खेड़िया-संथाल आदि को आदिम साम्यवाद स्तर की समाज-व्यवस्था में वापस नहीं ले जाया जा सकता। यह एक ठोस यथार्थ है कि उन्हें इस वर्तमान हिंस्र तथा बर्बर समय के साथ चलना होगा। इसीलिए जब खेड़िया लोग पंचायत से कुँआ मंजूर कराने के बाद ठेकेदार को हटाकर, पत्थर काटकर खुद अपने हाथों कुआँ तैयार करते हैं, उसके पानी से घर से सटी ज़मीन पर परंपरागत धान की खेती न करके भुट्टा, कुरथीकलाई की खेती करते हैं और साल में कई महीनों के लिए भोजन के लिए जुगाड़ कर लेते हैं, तो यह उनका अर्जित फल है, भिक्षा पाना नहीं है। लोधा और खेड़िया आज एकताबद्ध होकर निर्मम समाज को जता रहे हैं कि दूसरों के अपराध उनकी गर्दन पर डालकर अत्याचार करने के दिन लद गये। वे अब लड़ रहे हैं। लड़ाई का मतलब हमेशा हथियार उठाना नहीं होता। उनकी सारी कोशिशें जब व्यर्थ हो जाती हैं तब भी ये लड़ाई ही सीखते हैं। दुश्मन को पहचानते हैं और इनका गुस्सा कण-कण जमा होता हुआ और कठोर होता जाता है। मैं समझती हूँ कि भारत का गरीब आदमी निरक्षर भले हो, अशिक्षित नहीं है। उसने युगों-युगों से अन्याय सहा है, वह सफेद और काले का अर्थ समझता है। किस चीज के लिए लड़ना होगा—वह जानता है और उस लड़ाई का संदर्भ क्या होगा यह वही तय करेगा। गाँव के गरीब को हम बताने और सिखाने जायेंगे, उससे कुछ सीखेंगे नहीं, यह हमारी भूल है। बहुत बड़ी भूल। उसके पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि महीने में 4-5 रु. की आमदनी करके, पत्ते और कंदमूल खाकर भी वह ज़िंदा रहता है और इस तरह साबित करता है कि वह ज़िंदा रहना, टिका रहना जानता है। वह यह भी जानता है कि बिना किसी अन्य समाज के सीखे, अपनी ही कोशिश और स्फूर्ति से सिधूकानू और विरसा और दूसरे असंख्य लोगों ने एक सार्थक संग्राम का गठन किया था। जो यह कहते हैं कि साहित्यिक दृष्टि से मेरी रचनाशीलता व्यर्थ हो रही है, ‘आपरेशन ? वसाइटुडू’ अथवा ‘स्तनदायिनी’ की शैली-भाषा-शिल्प के निर्माण में मैं असफल हो रही हूँ—उनसे मेरा निवेदन है कि अब मुझे साहित्य के शिल्पगत उत्कर्ष का कोई आग्रह नहीं रहा। जो इसमें सक्षम हैं, वे करें। इसके साथ ही विनम्रतापूर्वक यह भी बता दूँ कि चूँकि सारा साल दूसरे तरह के क्रियाकलापों में कटता है, इसलिए साहित्य के लिए साहित्यिक ढंग की आलोचना-प्रत्यालोचना के लिए मैं अपने अंदर कोई उत्साह नहीं पाती। इन बातों को बन्धुगण मेरी व्यर्थता ही मानें।
वस्तुतः अपने लेखन को लेकर कोई वक्तव्य प्रस्तुत करना मुझे बड़ा बुरा लगता है। मेरी रचना पढ़कर अगर मुझे समझा न जा सके तो मैं अपने को लाचार और व्यर्थ पाती हूँ। मैं और कुछ नहीं कर सकती। जो लोग आज भी पूछते हैं कि अकादमी पुरस्कार लेकर मैंने क्या अपने को बेच नहीं दिया है, उनसे मेरा अनुरोध है कि वे पुरस्कार संबंधी अपना दृष्टिकोण पहले स्पष्ट करें। सिनेमा-थियेटर में, किसी विशेष सिनेमा के लिए निर्देशकों को ढेरों सरकारी पुरस्कार और सम्मान मिलता है। आप लोग उनकी निष्ठा पर तो प्रश्नचिह्न नहीं लगाते। सिनेमा के क्षेत्र में वामपंथी निर्देशक को आत्मविक्रय तथा समझौतावादी नहीं करार देंगे और साहित्य के क्षेत्र में ऐसा करेंगे; इससे प्रमाणित होता है कि आप लोग दोमुँहे न्यायबोध से परिचालित हो रहे हैं। शायद कहीं यह अवधारणा आपके अवचेतन में बनी हुई है कि सिनेमा-निर्देशकों का मूल्य साहित्यकार की अपेक्षा कहीं ज़्यादा है। सिनेमा-निर्देशक को दस-बीस-पचीस-पचास हजार में खरीदा जा सकता है तो बेचारे साहित्यकार को उससे कहीं सस्ते दामों यानी पाँच या दस हज़ार में खरीदा जा सकता है। कौन लेखक किस तरह का समझौता कर रहा है, यह उसके साहित्य-कर्म में ही पकड़ा जा सकता है। जो कहते हैं कि मैं सिर्फ़ शोषण-उत्पीड़न दिखा रही हूँ, इससे मुक्ति की बात नहीं कर रही हूँ—उनसे कहना चाहूँगी कि यदि मेरा लेखन यह बता पा रहा है कि स्थिति असहनीय हो गई है और इससे मुक्ति ज़रूरी है, तो मैं अपने उद्देश्य में सफल हूँ। जिनके जीवन में आग लगी हुई है उन पर मेरी पूरी आस्था है कि वे कभी गलती नहीं करेंगे। उन्होंने कभी कोई गलती नहीं की, न तेलंगाना में, न तेनागा में और न नक्सलवाड़ी में। अपना रास्ता वे खुद चुन लेंगे। इस विषय में पूर्णरूप से अनधिकारी हूँ। मैं तो जो देख रही हूँ, उसका यथातथ्य चित्रण करने की चेष्टा-भर कर रही हूँ। जो इस बात से दुखी हैं कि मैं साहित्य-विषयक आलोचना-प्रत्यालोचना के प्रति आग्रही नहीं हूँ, उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि अभी तक जितनी बातें मैंने कहीं वे मेरे लिए केवल समाजव्यवस्था के प्रश्न से संबंधित नहीं हैं, बल्कि साहित्य के संदर्भ में भी उतनी ही सही हैं।
अंत में कहना चाहूँगी कि मैं तो अब अस्तगामी हो चली हूँ। आयु की बालू-घड़ी में से बालू के कण निःशब्द झर रहे हैं। आज लगता है, सभी असह्य परिस्थितियों के बावजूद जो आदमी की जिजीविषा है, वह तो सत् मूल्यों में आस्था रखना चाहता है, जिसके लिए वृष्टि ही खेती का साधन है, वह मनुष्य जब एक पौधा रोपता है ज़मीन में वह भी गहरी आस्था के साथ उसी जिजीविषा का ही रोपण करता है-ये ही मेरे लिए सबसे ज़्यादा जानने योग्य बातें हैं। यह उपलब्धि वह मंज़िल है जहाँ अंत में अपना रास्ता ढूँढ़ते हुए मैं पहुँची हूँ। जिन्हें केवल करुणा का पात्र भिखारी बनाके रखा जा रहा है, वे आज पीने और सिंचाई के पानी के लिए खुद लड़ रहे हैं और अपने हाथों कुआँ खोद रहे हैं, अपने हाथों अपना रास्ता बना रहे हैं, इतना देखकर जा रही हूँ, इसके लिए खुद को धन्य मानती हूँ।
पश्चिमी दिगंत की ओर जाते-जाते भी अगर पूर्वांचल की तरफ देखा जाय तो जागरण ही दिखाई पड़ता है; कभी सूर्य का, तो कभी जीवन का।
महाश्वेता देवी
ग्राम बांग्ला
‘‘इस चुनाव के पहले ही सुकुमार जाना बड़ा संदिग्ध व्यक्ति हो उठा था। वह रहस्यमय लोगों के साथ मिलने-जुलने लगा था। उनमें से कोई सुकुमार को अचानक...’’
इस प्रकार के संद्गिध लोगों के नाम यथासमय दफ्तर में पहुँच गये थे। किसी क्षण उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता था। ननीकांत दलुई को उनके पकड़े जाने की पूरी आशा थी। इस आशा का कारण था डॉक्टर का कथन कि सुकुमार जाना की मौत किसी भी क्षण हो सकती है। जिस तरह का ‘ब्रेन कनक्शन...’
‘‘मौत हो सकती है ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘यह तो बड़ी दुखद बात होगी।’’
‘‘निश्चय ही।’’
डॉक्टर समझ गया कि यहाँ बैठकर ननी बाबू के प्रश्नों के उत्तर में ‘हाँ’-‘ना’ करते रहने में ही उसका कल्याण है। वह एक ऐसे हस्पताल में है, जहाँ हर तरह के केस बीच-बीच में आते रहते हैं।
सभी को बचा पाना संभव नहीं होता। बहुतेरे मर भी जाते हैं। डॉक्टर यह भी नहीं कह सकता कि ‘ओफ ! खून मिल जाता तो इसकी जान बच सकती थी।’
सभी मौतें दुख का कारण नहीं होतीं। ननी बाबू के लिए तो एकदम नहीं।
सुकुमार की मौत को जब ननी बाबू ‘दुखद बात’ कहते हैं तो डॉक्टर को उनका अर्थ तुरत समझ में आ जाता है कि दरअसल सुकुमार की मौत से ननी बाबू छुटकारे की साँस लेंगे।
ननी बाबू सदलबल विदा लेते हैं। अभी कुछ कहना मुश्किल है। मगर हस्पताल में सुकुमार के बचने की आशा कम ही है। साइकिल को हाथ से ठेलते हुए, ननी सोच रहा है। एकाएक चिन्मय से कहता है—कुछ समझे ?
‘‘बचेगा नहीं।’’
‘‘ओह ! उसकी बात नहीं कर रहा हूँ।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘मान लो, बच जाय।’’
‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है।’’
कोई संकट आते ही ननी का खिदमतगार विशाल खाटुआ देशी की शरण में जाता है। नशे से रहित सफेद आँखों से संकटजनक परिस्थिति की आँख से आँख नहीं मिला पाता वह। संकट की लाल आँखों में नशे से धुत् लाल आँखें ही डाल पाता है वह।
‘आपरेशन बर्गा’1 के समय ननी ने अपने दोनों खिदमतगारों के नाम बर्गादारों की सूची में शामिल करा दिये थे। विशाल के साथ उसने तय किया था कि इसके बदले में वह साल में दो-चार मन धान, एक जोड़ा धोती, एक जोड़ा बनियान, एक गरम चादर और रोज के लिए भात-चाय-कुरमुरे-तेल और बीड़ी का प्रबंध करेगा।
बर्गादारों (काश्तकारों) की सूची में उसका नाम शामिल हो गया, फिर भी विशाल के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया। तो भी रजिस्टर में बर्गादार बनकर ही जैसे वह सौभाग्य के समुद्र में गोते खाने लगा था। फलस्वरूप देशी का अद्धा चढ़ाकर थोड़ा ताज़ा दम होकर उसने ननी से कहा था—‘‘बाबू, जुग-जुग जियो।’’
ननी के दूसरे खिदमतगार सुदामा की प्रतिक्रिया थी—‘‘अरे साला, बाबू जुग-जुग जिएँ। क्यों, अरे बेवकूफ, शराब काहे को पीता है, बोल तो ?’’
‘‘अरे साला, आज शराब नहीं पियेगा, तो कब पियेगा ! आज हमारे लिए खुशी का दिन है।’’
‘‘कैशी खुशी ?’’
‘‘बर्गादारी खाता में हमारा नाम जो चढ़ गया।’’
‘‘क्या सुकुमार जाना हमें बर्गादार बनने देगा ?’’
‘‘क्यों, क्यों नहीं बनने देगा ?’’
‘‘जो बर्गा करते हैं, वे कहाँ जायेंगे ?’’
‘‘कौन लोग ?’’
‘‘दुर साला, कैसा बेवकूफ बन जाता है। मैं कहता हूँ माझी लोग बर्गा करते हैं कि नहीं ?’’
‘‘हाँ, करते हैं।’’
‘‘उसका नाम तो खाता में चढ़ा नहीं और हमारा चढ़ गया। सुकुमार बाबू मानेंगे ?’’
‘‘क्यों नहीं मानेंगे। सुकुमार और हमारे बाबू तो एक ही पारटी करते हैं, नहीं ?’’
‘‘धत्, खाक समझता है तू।’’
निश्चय ही सुकुमार ने इस मामले को लेकर बहुत उथल-पुथल किया था। माझीपुरवा से ननी के दल की पहले से ही खींचतान चल रही थी। इस घटना के बाद से तो खिच-खिच कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी। इस बारे में जो घटनाएँ घटीं, उनका ही परिणाम था सुकुमार की खोपड़ी पर लाठियों की बिन बादल बरसात।
आजकल ननी सब समय विशाल को साथ रखता है। गाँव-गढ़ी के हालात आजकल पहले जैसे नहीं रहे। ननी के लिए भी स्थिति इतनी निरापद नहीं रह गई थी। ‘स्नेहमयी रूप धारण कर माँ खेतों के उस पार खड़ी है—दिग्-दिगंत तक उसके केश लहरा रहे हैं’—यह सब पुरानी तस्वीर है। निश्चय ही अभी भी हमारे कमरे की दीवार पर रवि वर्मा के तैलचित्र नहीं टाँगता, क्योंकि पाठ्य पुस्तकों में वही पुरानी तस्वीर आज भी पाई जाती है ? सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला ग्राम-जननी की छवि को तो भारत में घुसते ही अंग्रेजों ने समाप्त कर दिया। ननी को सब मालूम है।
आजकल तो ग्राम-जननी पगली हो गई है, आँखों में उसके वहशीपन भरा हुआ है, और उसकी संतान का रहन-सहन ही बदल गया है। ननी तो जनता के लिए है। पर शायद जनता उसके लिए नहीं है। एक गाँव में तीन-तीन दल। प्रत्येक दल के अन्दर उप-दल। ऐसे में उस अंचल का एक मात्र माना हुआ नेता ननी दलुई भी अकेले आने-जाने का साहस नहीं जुटा पाता।
सुकुमार साहस करता था। पा गया न उसका फल।
बर्गादारी के झगड़े के वक्त सुकुमार ने विशाल और सुदामा को समझाया कि ननी ने क्यों उसका नाम खाते में चढ़वाया है। यह भी कहा था कि भले ही ननी ने ऐसा किया पर उन्हें यानी विशाल और सुदामा को इसके लिए राज़ी नहीं होना चाहिए था।
‘‘कमाल करते हो आप ! बाबू को हम भला न कर सकते हैं ! बाबू अगर...।’’
‘‘अच्छा विशाल भाई, अघोर बाबू ने भी तो इसी तरह माझियों को उजाड़ा था ?’’
‘‘हमें भी।’’
‘‘क्या फिर उसने किसी माझी को बसाया ?’’
‘‘नहीं तो।’’
‘‘तभी से तुम लोग उसी अघोर बाबू के बेटे ननी के घर बेगार खट रहे हो ?’’
‘‘क्या करें, आप ही बताइए ?’’
‘‘अभी जो हुआ उसका मतलब समझते हो ?’’
‘‘क्या ?’’
‘‘अभी तो सिर्फ नाम चढ़ा है। बर्गा (काश्त) तो मिली नहीं।’’
‘‘ऐसा भी कहीं होता है ? कौन होने देगा ?’’
‘‘फिर बोलो बेगार क्यों खटेंगे। खेती करेंगे और हिस्सा लेंगे।’’
‘‘बाप रे ! हमारी इतनी हिम्मत कहाँ ?’’
‘‘माझी लोग गरीब हैं, तुम लोग भी गरीब हो, अब तुम्हारा उनसे विरोध हो गया कि नहीं ?’’
‘‘विशाल की खोपड़ी में यह बात घुसती ही नहीं। इस घामड़ को मैं बता रहा था।’’ कहकर सुदामा जल्दी-जल्दी बीड़ी के कश खींचने लगा। फिर बोला था—‘‘हम उजड़े थे, तब वे बसे थे। अघोर बाबू के हाथों में ताकत थी। किया जैसा चाहा। अब ननी बाबू के हाथ में है। घाट बाँध कर काम कर रहे हैं। इससे उनके साथ हमारा विरोध हो गया ?’’
‘‘सुकुमार, तुम्हारी तो उनके साथ मेल-जोल है। तुम उनसे कहो न। वे तुम्हें मानते हैं ?’’
‘‘बीच में से वे सब तीस घर गजा बाबू के दल में चले जायेंगे, देख लेना।’’
‘‘अच्छा ! अच्छा ! तुम्हें इतनी चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं।
इसके बाद से ही ननी विशाल को साथ रखने लगा। विशाल के पास दो ही चीज़ें हैं। एक उसकी विशाल देह और दूसरी उस देह के भीतर अपार शक्ति। और ननी से वह डरता है। ननी जो कहता है विशाल वही करता है। ननी इन दिनों गाँव के लिए बहुत मूल्यवान है। और उस मूल्यवान आदमी को अपने साथ लेकर चलने का काम विशाल को मिला है, सुदामा को नहीं। इससे विशाल अपने को थोड़ा श्रेष्ठ समझने लगा है। हस्पताल में सुकुमार को देखकर लौटते समय ननी और दूसरे लोगों की बातों से उसे (विशाल को) लगा कि सुकुमार की मौत हो सकती है। इस सम्भावना से उसे बहुत कष्ट हो रहा है। विशाल यह जानता था कि शहर के बड़े हस्पताल में ले जाने पर मुर्दा भी ज़िंदा हो जाता है।
अघोर बाबू को भी बड़े हस्पताल ले जाया गया था। माथे की नस फट गई थी, लकवा मार गया था, फिर भी और पाँच-छह बरस जीते रहे थे। ओह, ननी बाबू की बहू ने क्या सेवा की थी ! बूढ़े की मत फिर गई थी। भूजा खाऊँगा, नारियल खाऊँगा, यह खाऊँगा, दिन रात खाऊँ-खाऊँ करता रहता था। बेचारी भूजा का चूरा बनाकर, नारियल को सिल-बट्टे पर पीसकर बूढ़े को देती थी और मुँह में डालकर थू-थू करने लगता था।
ननी बाबू उन दिनों रात-दिन एक किये रहते थे। यहाँ मीटिंग, वहाँ मीटिंग। कहाँ तंबोलियों को पानी नहीं मिल रहा है। कहाँ खेत-मज़दूरों की मज़दूरी बढ़वानी है—रात-दिन साइकिल पर घूमते रहते थे।
ननी बाबू और गजानन बेरा।
विशाल ने सुना था-तब दोनों एक ही दल में थे। गज़ा बाबू की उम्र ज़्यादा थी। जेल का भात खाकर देह जर्जर हो गई थी। बाद में शायद दल के दो टुकड़े हो गये थे।
अघोर बाबू की मौत के बाद ननी बाबू घर पर रहने लगे। लोग कहते थे ननी बाबू मालिक होंगे तो ज़मीन-जायदाद गरीबों में बाँट देंगे। घर को ही पारटी को दफ्तर बना देंगे।
नहीं जी, कहाँ की बात करते थे लोग। देखो तो, ननी बाबू के राज में उनके धान के कोठरों की गिनती बढ़ गई और बाप से भी ज़्यादा कड़े हाथों उन्होंने बागडोर सँभाल ली।
और उधर सुकुमार को देखो।
‘‘बाबू, ननी बाबू !’’
‘‘क्या है रे विशाल ?’’
‘‘क्या सुकुमार को शहर ले जाना ठीक नहीं होता ?’’
‘‘कैसे होगा ? ताल कैसे पार करेंगे ?’’
‘‘क्यों, कंटरेक्टर की लारी में रखकर ले जा नहीं सकते ?’’
‘‘डॉक्टर सुकुमार को हिलाने-डुलाने की इजाज़त नहीं देगा।’’
‘‘जवान-जहान लड़का है। उसकी जान बच जाती।’’
‘‘अब चुप भी रहेगा।’’
ननी खुद भी जैसे व्यग्र हो उठता है। सुकुमार अभी ज़िंदा है। कोशिश करके क्या उसे बचाया नहीं जा सकता ? मन जवाब देता है—नहीं, वह नहीं बचेगा।
मन फिर पूछता है—तो क्या वह मर जायेगा ? फिर मन ही जवाब देता है—हाँ, मर जायेगा, मर जायेगा।
कहीं पर एक नागिन किट्-किट्-किट्-किट् कर उठती है। ननी का राजनीतिक मन कहता है यह सब झूठ है। और फिर उसकी शिराओं में बैठा एक पागल, बेलगाम मन कहता है—देखा ?
नागिन बोल रही है। इसका मतलब है—सुकुमार मरेगा।
सुकुमार ! गाँव की पगडंडी पर चलते-चलते अँधेरे में, ननी का मन व्याकुल हो उठता है। उसके सामने पैदा हुआ, उसी के हाथों पाला-पोसा गया सुकुमार। सुकुमार की बुआ की उमर जब सोलह की थी तब ननी की उमर होगी बाइसेक साल। उसके मन में ननी के लिए तीव्र आकर्षण हुआ था। पर गाँव के अन्दर ही दूसरी जाति की लड़की से ब्याह की बात ज़बान पर लाने से ही सर्वनाश हो जाता।
ओह ! कब की बात है ! पोखर के किनारे दोनों ने एक-दूसरे के आँसू पोंछकर अन्तिम विदा ली थी। फिर कहाँ प्रेम और कहाँ क्या ? आज मलिनी भरी-पुरी गृहस्थी में ताई, दादी, जेठानी, नानी आदि नाना पदों पर कार्य करती हुई कभी क्या उसे याद भी करती होगी ?
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1. पश्चिम बंगाल की वाम फ्रंट सरकार का एक कार्यक्रम जिसके अन्तर्गत खेतों को उन पर काश्त करनेवालों के नाम लिख दिया गया था।
इस प्रकार के संद्गिध लोगों के नाम यथासमय दफ्तर में पहुँच गये थे। किसी क्षण उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता था। ननीकांत दलुई को उनके पकड़े जाने की पूरी आशा थी। इस आशा का कारण था डॉक्टर का कथन कि सुकुमार जाना की मौत किसी भी क्षण हो सकती है। जिस तरह का ‘ब्रेन कनक्शन...’
‘‘मौत हो सकती है ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘यह तो बड़ी दुखद बात होगी।’’
‘‘निश्चय ही।’’
डॉक्टर समझ गया कि यहाँ बैठकर ननी बाबू के प्रश्नों के उत्तर में ‘हाँ’-‘ना’ करते रहने में ही उसका कल्याण है। वह एक ऐसे हस्पताल में है, जहाँ हर तरह के केस बीच-बीच में आते रहते हैं।
सभी को बचा पाना संभव नहीं होता। बहुतेरे मर भी जाते हैं। डॉक्टर यह भी नहीं कह सकता कि ‘ओफ ! खून मिल जाता तो इसकी जान बच सकती थी।’
सभी मौतें दुख का कारण नहीं होतीं। ननी बाबू के लिए तो एकदम नहीं।
सुकुमार की मौत को जब ननी बाबू ‘दुखद बात’ कहते हैं तो डॉक्टर को उनका अर्थ तुरत समझ में आ जाता है कि दरअसल सुकुमार की मौत से ननी बाबू छुटकारे की साँस लेंगे।
ननी बाबू सदलबल विदा लेते हैं। अभी कुछ कहना मुश्किल है। मगर हस्पताल में सुकुमार के बचने की आशा कम ही है। साइकिल को हाथ से ठेलते हुए, ननी सोच रहा है। एकाएक चिन्मय से कहता है—कुछ समझे ?
‘‘बचेगा नहीं।’’
‘‘ओह ! उसकी बात नहीं कर रहा हूँ।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘मान लो, बच जाय।’’
‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है।’’
कोई संकट आते ही ननी का खिदमतगार विशाल खाटुआ देशी की शरण में जाता है। नशे से रहित सफेद आँखों से संकटजनक परिस्थिति की आँख से आँख नहीं मिला पाता वह। संकट की लाल आँखों में नशे से धुत् लाल आँखें ही डाल पाता है वह।
‘आपरेशन बर्गा’1 के समय ननी ने अपने दोनों खिदमतगारों के नाम बर्गादारों की सूची में शामिल करा दिये थे। विशाल के साथ उसने तय किया था कि इसके बदले में वह साल में दो-चार मन धान, एक जोड़ा धोती, एक जोड़ा बनियान, एक गरम चादर और रोज के लिए भात-चाय-कुरमुरे-तेल और बीड़ी का प्रबंध करेगा।
बर्गादारों (काश्तकारों) की सूची में उसका नाम शामिल हो गया, फिर भी विशाल के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया। तो भी रजिस्टर में बर्गादार बनकर ही जैसे वह सौभाग्य के समुद्र में गोते खाने लगा था। फलस्वरूप देशी का अद्धा चढ़ाकर थोड़ा ताज़ा दम होकर उसने ननी से कहा था—‘‘बाबू, जुग-जुग जियो।’’
ननी के दूसरे खिदमतगार सुदामा की प्रतिक्रिया थी—‘‘अरे साला, बाबू जुग-जुग जिएँ। क्यों, अरे बेवकूफ, शराब काहे को पीता है, बोल तो ?’’
‘‘अरे साला, आज शराब नहीं पियेगा, तो कब पियेगा ! आज हमारे लिए खुशी का दिन है।’’
‘‘कैशी खुशी ?’’
‘‘बर्गादारी खाता में हमारा नाम जो चढ़ गया।’’
‘‘क्या सुकुमार जाना हमें बर्गादार बनने देगा ?’’
‘‘क्यों, क्यों नहीं बनने देगा ?’’
‘‘जो बर्गा करते हैं, वे कहाँ जायेंगे ?’’
‘‘कौन लोग ?’’
‘‘दुर साला, कैसा बेवकूफ बन जाता है। मैं कहता हूँ माझी लोग बर्गा करते हैं कि नहीं ?’’
‘‘हाँ, करते हैं।’’
‘‘उसका नाम तो खाता में चढ़ा नहीं और हमारा चढ़ गया। सुकुमार बाबू मानेंगे ?’’
‘‘क्यों नहीं मानेंगे। सुकुमार और हमारे बाबू तो एक ही पारटी करते हैं, नहीं ?’’
‘‘धत्, खाक समझता है तू।’’
निश्चय ही सुकुमार ने इस मामले को लेकर बहुत उथल-पुथल किया था। माझीपुरवा से ननी के दल की पहले से ही खींचतान चल रही थी। इस घटना के बाद से तो खिच-खिच कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी। इस बारे में जो घटनाएँ घटीं, उनका ही परिणाम था सुकुमार की खोपड़ी पर लाठियों की बिन बादल बरसात।
आजकल ननी सब समय विशाल को साथ रखता है। गाँव-गढ़ी के हालात आजकल पहले जैसे नहीं रहे। ननी के लिए भी स्थिति इतनी निरापद नहीं रह गई थी। ‘स्नेहमयी रूप धारण कर माँ खेतों के उस पार खड़ी है—दिग्-दिगंत तक उसके केश लहरा रहे हैं’—यह सब पुरानी तस्वीर है। निश्चय ही अभी भी हमारे कमरे की दीवार पर रवि वर्मा के तैलचित्र नहीं टाँगता, क्योंकि पाठ्य पुस्तकों में वही पुरानी तस्वीर आज भी पाई जाती है ? सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला ग्राम-जननी की छवि को तो भारत में घुसते ही अंग्रेजों ने समाप्त कर दिया। ननी को सब मालूम है।
आजकल तो ग्राम-जननी पगली हो गई है, आँखों में उसके वहशीपन भरा हुआ है, और उसकी संतान का रहन-सहन ही बदल गया है। ननी तो जनता के लिए है। पर शायद जनता उसके लिए नहीं है। एक गाँव में तीन-तीन दल। प्रत्येक दल के अन्दर उप-दल। ऐसे में उस अंचल का एक मात्र माना हुआ नेता ननी दलुई भी अकेले आने-जाने का साहस नहीं जुटा पाता।
सुकुमार साहस करता था। पा गया न उसका फल।
बर्गादारी के झगड़े के वक्त सुकुमार ने विशाल और सुदामा को समझाया कि ननी ने क्यों उसका नाम खाते में चढ़वाया है। यह भी कहा था कि भले ही ननी ने ऐसा किया पर उन्हें यानी विशाल और सुदामा को इसके लिए राज़ी नहीं होना चाहिए था।
‘‘कमाल करते हो आप ! बाबू को हम भला न कर सकते हैं ! बाबू अगर...।’’
‘‘अच्छा विशाल भाई, अघोर बाबू ने भी तो इसी तरह माझियों को उजाड़ा था ?’’
‘‘हमें भी।’’
‘‘क्या फिर उसने किसी माझी को बसाया ?’’
‘‘नहीं तो।’’
‘‘तभी से तुम लोग उसी अघोर बाबू के बेटे ननी के घर बेगार खट रहे हो ?’’
‘‘क्या करें, आप ही बताइए ?’’
‘‘अभी जो हुआ उसका मतलब समझते हो ?’’
‘‘क्या ?’’
‘‘अभी तो सिर्फ नाम चढ़ा है। बर्गा (काश्त) तो मिली नहीं।’’
‘‘ऐसा भी कहीं होता है ? कौन होने देगा ?’’
‘‘फिर बोलो बेगार क्यों खटेंगे। खेती करेंगे और हिस्सा लेंगे।’’
‘‘बाप रे ! हमारी इतनी हिम्मत कहाँ ?’’
‘‘माझी लोग गरीब हैं, तुम लोग भी गरीब हो, अब तुम्हारा उनसे विरोध हो गया कि नहीं ?’’
‘‘विशाल की खोपड़ी में यह बात घुसती ही नहीं। इस घामड़ को मैं बता रहा था।’’ कहकर सुदामा जल्दी-जल्दी बीड़ी के कश खींचने लगा। फिर बोला था—‘‘हम उजड़े थे, तब वे बसे थे। अघोर बाबू के हाथों में ताकत थी। किया जैसा चाहा। अब ननी बाबू के हाथ में है। घाट बाँध कर काम कर रहे हैं। इससे उनके साथ हमारा विरोध हो गया ?’’
‘‘सुकुमार, तुम्हारी तो उनके साथ मेल-जोल है। तुम उनसे कहो न। वे तुम्हें मानते हैं ?’’
‘‘बीच में से वे सब तीस घर गजा बाबू के दल में चले जायेंगे, देख लेना।’’
‘‘अच्छा ! अच्छा ! तुम्हें इतनी चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं।
इसके बाद से ही ननी विशाल को साथ रखने लगा। विशाल के पास दो ही चीज़ें हैं। एक उसकी विशाल देह और दूसरी उस देह के भीतर अपार शक्ति। और ननी से वह डरता है। ननी जो कहता है विशाल वही करता है। ननी इन दिनों गाँव के लिए बहुत मूल्यवान है। और उस मूल्यवान आदमी को अपने साथ लेकर चलने का काम विशाल को मिला है, सुदामा को नहीं। इससे विशाल अपने को थोड़ा श्रेष्ठ समझने लगा है। हस्पताल में सुकुमार को देखकर लौटते समय ननी और दूसरे लोगों की बातों से उसे (विशाल को) लगा कि सुकुमार की मौत हो सकती है। इस सम्भावना से उसे बहुत कष्ट हो रहा है। विशाल यह जानता था कि शहर के बड़े हस्पताल में ले जाने पर मुर्दा भी ज़िंदा हो जाता है।
अघोर बाबू को भी बड़े हस्पताल ले जाया गया था। माथे की नस फट गई थी, लकवा मार गया था, फिर भी और पाँच-छह बरस जीते रहे थे। ओह, ननी बाबू की बहू ने क्या सेवा की थी ! बूढ़े की मत फिर गई थी। भूजा खाऊँगा, नारियल खाऊँगा, यह खाऊँगा, दिन रात खाऊँ-खाऊँ करता रहता था। बेचारी भूजा का चूरा बनाकर, नारियल को सिल-बट्टे पर पीसकर बूढ़े को देती थी और मुँह में डालकर थू-थू करने लगता था।
ननी बाबू उन दिनों रात-दिन एक किये रहते थे। यहाँ मीटिंग, वहाँ मीटिंग। कहाँ तंबोलियों को पानी नहीं मिल रहा है। कहाँ खेत-मज़दूरों की मज़दूरी बढ़वानी है—रात-दिन साइकिल पर घूमते रहते थे।
ननी बाबू और गजानन बेरा।
विशाल ने सुना था-तब दोनों एक ही दल में थे। गज़ा बाबू की उम्र ज़्यादा थी। जेल का भात खाकर देह जर्जर हो गई थी। बाद में शायद दल के दो टुकड़े हो गये थे।
अघोर बाबू की मौत के बाद ननी बाबू घर पर रहने लगे। लोग कहते थे ननी बाबू मालिक होंगे तो ज़मीन-जायदाद गरीबों में बाँट देंगे। घर को ही पारटी को दफ्तर बना देंगे।
नहीं जी, कहाँ की बात करते थे लोग। देखो तो, ननी बाबू के राज में उनके धान के कोठरों की गिनती बढ़ गई और बाप से भी ज़्यादा कड़े हाथों उन्होंने बागडोर सँभाल ली।
और उधर सुकुमार को देखो।
‘‘बाबू, ननी बाबू !’’
‘‘क्या है रे विशाल ?’’
‘‘क्या सुकुमार को शहर ले जाना ठीक नहीं होता ?’’
‘‘कैसे होगा ? ताल कैसे पार करेंगे ?’’
‘‘क्यों, कंटरेक्टर की लारी में रखकर ले जा नहीं सकते ?’’
‘‘डॉक्टर सुकुमार को हिलाने-डुलाने की इजाज़त नहीं देगा।’’
‘‘जवान-जहान लड़का है। उसकी जान बच जाती।’’
‘‘अब चुप भी रहेगा।’’
ननी खुद भी जैसे व्यग्र हो उठता है। सुकुमार अभी ज़िंदा है। कोशिश करके क्या उसे बचाया नहीं जा सकता ? मन जवाब देता है—नहीं, वह नहीं बचेगा।
मन फिर पूछता है—तो क्या वह मर जायेगा ? फिर मन ही जवाब देता है—हाँ, मर जायेगा, मर जायेगा।
कहीं पर एक नागिन किट्-किट्-किट्-किट् कर उठती है। ननी का राजनीतिक मन कहता है यह सब झूठ है। और फिर उसकी शिराओं में बैठा एक पागल, बेलगाम मन कहता है—देखा ?
नागिन बोल रही है। इसका मतलब है—सुकुमार मरेगा।
सुकुमार ! गाँव की पगडंडी पर चलते-चलते अँधेरे में, ननी का मन व्याकुल हो उठता है। उसके सामने पैदा हुआ, उसी के हाथों पाला-पोसा गया सुकुमार। सुकुमार की बुआ की उमर जब सोलह की थी तब ननी की उमर होगी बाइसेक साल। उसके मन में ननी के लिए तीव्र आकर्षण हुआ था। पर गाँव के अन्दर ही दूसरी जाति की लड़की से ब्याह की बात ज़बान पर लाने से ही सर्वनाश हो जाता।
ओह ! कब की बात है ! पोखर के किनारे दोनों ने एक-दूसरे के आँसू पोंछकर अन्तिम विदा ली थी। फिर कहाँ प्रेम और कहाँ क्या ? आज मलिनी भरी-पुरी गृहस्थी में ताई, दादी, जेठानी, नानी आदि नाना पदों पर कार्य करती हुई कभी क्या उसे याद भी करती होगी ?
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1. पश्चिम बंगाल की वाम फ्रंट सरकार का एक कार्यक्रम जिसके अन्तर्गत खेतों को उन पर काश्त करनेवालों के नाम लिख दिया गया था।
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