लोगों की राय

नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

16660 पाठक हैं

हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


प्रवीर बौखलाकर उठ गया। "मैं आपसे यहाँ नीतिशतक पढ़ने नहीं आ इतने दिनों से आप मुफ्त में हमारा कमरा हथिया बैठी हैं, रात-आधी रात मसान साध, चरस-गाँजे की दम लगाने को क्या हमारा ही घर रह गया है ?"

“शान्त हो महाराज," कली ने दोनों हाथ फैलाकर उसका मार्ग रोक दिया—मैं मज़ाक़ नहीं कर रही हूँ। मुझे सीलोन नें नौकरी मिल गयी है। अब आप जा रहे हैं काबुल और मैं सीलोन—दो विभिन्न दिशाओं में। हम दोनों कल सैटेलाइट की ही तेजी से उड़कर अदृश्य हो जाएगे—व्हाई नॉट पार्ट फ्रेण्ड्स ? ज़रूरी नहीं है कि यहाँ कुश्ती के ही दाँव-पेंच हों।'
बड़े हल्के स्वर में टहूकती कली उसे फिर उसी आसन पर खींच लायी।

“विद्युतरंजन मजूमदार तुम्हारे श्वसुर के मित्र न होते तो मैं तुम्हें जाने भी न देती, पर मेरी अनुपस्थिति में वह कहीं कोई विषबुझा शब्दभेदी बाण छोड़कर मुझे लंका ही में ठण्डी न कर दे, इसी से तुम्हें सब सुनना होगा। मैं क्यों मसान साधती हूँ, क्यों गाँजे-चरस की दम लगाती हूँ—क्या यह भी तुमने कभी कोशिश की है काबुली
वाले ? क्या कभी तुमने यह भी सोचा है कि क्यों सब मेरे व्यक्तित्व पर कीचड़ उछालते हैं ?

"क्यों मेरे विकास का पथ काँटों से अवरुद्ध है ? तुम्हारी दृष्टि में शायद मैं व्यभिचारिणी हूँ, क्यों ? विदेशी छोकरों के साथ रात-आधी रात मसान साधती हूँ, फिर भला अच्छी हो कैसे सकती हूँ !'' कली उसके एकदम पास खिसक आयी। "नर्सरी राइम पढ़ी हैं ना ? 'व्हेन शी वाज़ गुड शी वाज़ वेरी-वेरी गुड व्हेन शी वाज़ बैड, शी वाज़ हॉरिड !' शायद वही हूँ मैं..."

कली ने हँसकर अपना एक हाथ प्रवीर के घुटनों पर धर लिया। “एक ही बार श्मशान गयी हूँ, पर कितनी शान्ति मिली वहाँ, तुम्हें कैसे बताऊँ ! कैसा आश्चर्य था कि जहाँ ऐसी शान्ति मिली थी, भय नाम की किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं रहा था। घर लौटने पर उसी श्मशान की स्मृति मेरे प्राण लेने लगी थी तभी तो तुम्हारे कमरे में भाग आयी थी।"

कली ने सहमकर अपनी लम्बी अँगुलियों के यत्न से सँवारे गये लम्बे तीक्ष्ण नाखून प्रवीर के घुटने में गड़ा दिये।

"तुमने सोचा, मैं बहाना बना रही हूँ, क्यों ? पर तुम्हीं ने मेरी उच्छृखलता को मुखर बना दिया है। जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा, उसी दिन मुझे लगा था कि यही मेरा सिद्धि-सोपान है। जिस दिन इस दुरूह व्यक्तित्व-दुर्ग की चारुता, संयम और दर्प की दीवारों को अपने सौन्दर्य डायनामाइट से उड़ाकर इस सिद्धि-सोपान पर बैठ पाऊँगी उसी दिन मेरे हृदय में जन्म से सुलग रही विद्रोहाग्नि स्वयं ही ठण्डी हो जाएगी। कभी-कभी इस अग्नि से मैं भीतर-ही-भीतर ऐसी दहकने लगती हूँ कि जी में आता है, पूरे संसार को फूंक दूं। जब वही तीव्र दाह असह्य हो उठता है" उसका सुकुमार भोला चेहरा जैसे किसी दैवी तेज से तेजोमय होकर दमकने लगा, "तभी मैं मसान साधती हूँ, तभी गाँजे-चरस की दम लगाती हूँ। जब लोगों की दृष्टि में मैं कभी अच्छी बन ही नहीं सकती, तब अच्छी बनने की व्यर्थ चेष्टा ही क्यों करूँ ?"

प्रवीर को अब निश्चय रूप से लगने लगा कि उसके घुटनों पर नाखून गाड़कर बैठी, यह लाल-लाल अंगारे-सी दहकती बड़ी आँखोंवाली लड़की एब्जॉर्मल है। कैसे काँपती जा रही थी, जैसे देवी आ गयी हों। अँधेरा हो चला था। गाड़ी भी बहुत सुरक्षित नहीं थी।

प्रवीर खड़ा हो गया।

कली ने उसे दोनों हाथ पकड़कर बिठा दिया, "मैंने पहले की कह दिया था। आज सब सुनाये बिना नहीं छोडूंगी।"

कली का विचित्र अन्तःपुर अन्धकार में गले तक डूब चुका था। उसका प्रवीर के घुटनों से लगा पीला चेहरा कभी सड़क पर जा रही किसी कार के प्रकाश में क्षण-भर को चमकता और फिर अँधेरे में डूब जाता।

वह अनर्गल बोलती ही जा रही थी, जैसे आकाशवाणी के किसी पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम का टेप गोल-गोल घूम रहा हो। शिशुघाती पार्वती, पठान पिता, सुन्दरी पन्ना, विद्युतरंजन, असंख्य देशी-विदेशी मौसियों के धुंधले चेहरे, लौरीन आण्टी----सब बारी-बारी से आकर प्रवीर को घेरकर बैठ गये। घुटनों से लगी उस दुबली कमज़ोर लड़की के प्रति महीनों की संचित निर्ममता सहसा मोहमय हो उठी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book