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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


टिमटिमाते दीये की ली के पास, उन्होंने दोनों हथेलियों में उसे टिकाकर गौर से देखा, मुर्ग़ी के चूजे की-सी गरदन पर दो अँगुलियों की स्पष्ट छाप फूलकर उभर आयी थी। न जाने क्या सोचकर पार्वती को उसी अवस्था में छोड़ डॉ. पैद्रिक नन्ही काया को अपनी विशाल छातियों में चिपका, एक बार फिर उसी तेजी से अपने बँगले की ओर भागने लगीं।

रात-भर की वृष्टि के पश्चात् तीव्र हवा के तूफान ने, धृष्ट बादलों के रुई का भांति धुनकर पूरे आकाश में छितरा दिया था। गागर के शैल-शिखर के पीछे अभी भी धुँधले तारे टिमटिमा रहे थे। भोर होने को थी। कब रात बीत गयी, डॉक्टर जान भी नहीं पायीं। रात-भर अचल बैठी डॉक्टर के लाल आयरिश चेहरे की झुर्रियाँ अचानक खिल उठी थीं। नन्हे शरीर पर रात-भर की गयी ब्राण्डी की मालिश से ही दैवी स्पन्दन इसे हिला-डुला गया था या उस दयालु से घुटने टेककर माँगी गयी भीख ही सार्थक हो गयी थी! पर दया की भीख तो एक इन्हीं प्राणों के लिए नहीं माँगी थी। बार-बार घुटने टेककर बैठी उस सन्त विदेशिनी के झुर्रीदार गालों पर झर-झर कर आँसू बहने लगते।'' उसे क्षमा करना प्रभु, शायद उसे मैं यहाँ न लाती तो ऐसा न होता, शायद वह सड़कों पर भटकती रहती तो ऐसा भयानक पाप नहीं करती। 'फ़ोरगिव दैम लॉर्ड फ़ॉर दे नो नाट व्हाट दे हू?'' बुदबुदाती, वे कभी अवश पड़ी देह को निहारती, कभी छाती पर कान लगातीं। निष्प्रभ काली भवें और पुतलियों हिलने लगीं तो डॉक्टर एक बार फिर प्रार्थना में डूब गयीं। बहुत पहले बचपन में उनके मामा ने उन्हें एक ऐसी ही गुड़िया ला दी थी। ऐसी ही पलकें झपका-झपकाकर आंखें खोलती और बन्द द्धरती थी वह! ''मेरी बच्ची,'' डॉक्टर ने उसे गोदी में उठा-कर चूम लिया।
''नहीं, अब देरी करना ठीक नहीं है,'' वे स्वयं ही बड़बड़ाने लगीं, ''थोड़ी ही

देर में पूरा आश्रम जग जाएगा। जगा आश्रम यही जानेगा कि पार्वती ने कल रात एक मुत शिशु को जन्म दिया था, डॉक्टर अकेली ही जाकर अभागी को कहीं गाड़ आयी हैं।''
अपने क्रोशिया के रंग-बिरंगे शाल में बची को लपेट, उन्होंने अपने लम्बे कोट के भतिर छिपा लिया और एक बार फिर बाहर निकल पड़ी।

बार-बार उनका कलेजा धड़कता मुँह को आ रहा था। यदि उसने नहीं स्वीकारा तब? कहां रखेंगी इसे?

इस घृणात्मक वातावरण में, इस दूषित हवा के झोंकों में, जहाँ एक-एक हवा का झोंका सहस्र घातक कीटाणुओं को बिखेरता जाता है, वहाँ इस स्कुमार जीवन को क्या वे सुरक्षित रख पाएँगी? पर वे इतना क्यों सोच रही थीं, आज क्या कुछाश्रम में यह प्रथम शिशु का जन्म था? क्या इससे पूर्व कई नवजात शिशु वे मिशन में नहीं भेज चुकी हैं? तब इसके मोह का कधन तोड़ने में वे आज क्यों कल्प-विकल्प के जाल में फँसी जा रही हैं?

एक बार उनकी छाती से लगी नन्ही देह काँपी और साथ ही वे भी काँप उठीं। कहीं फिर कुछ हो तो नहीं गया। कोट का कॉलर उठाकर उन्होंने झाँका। काले झबरे बालों के बीच चमकते माथे पर, कन्धे झाड़ रहे देवदार के वृक्ष से एक बूँद वर्षा की पड़ी। चिहुँककर, छोटे-से होंठ काँपे। डाँक्टर ने उसे और जोर से छाती से चिपका लिया।
कैसी नीरव निस्तब्ध रात्रि थी। एक तो उस निर्जन सड़क पर सच्चा होते ही सन्नाटा छा जाता था, उस पर आज ऐसी वर्षा में भला कौन घूमने बाहर निकलता? लाल छत के बँगले को पहचानकर डॉक्टर ने द्वार खटखटाया। कोई उत्तर नहीं आया। हवा चली और साथ ही देर से टहनियों पर संचित, वर्षा की कई बूँदें एक साथ झरकर डॉक्टर पैद्रिक पर बरस पड़ीं। डॉक्टर ने जोर से दस्तक दी।
''कौन?'' बड़ी दूर से तैरता किसी का कण्ठ-स्वर आया।
''पन्ना, मैं हूँ रोज़ी, द्वार खोला।
''रोज़ी? तुम इतनी रात को? आओ-आओ, राम-राम, तुम तो एकदम ही भीग गयी हो। रुको, मैं लैम्प जला लूँ।'' एक कुरसी टटोलकर डॉक्टर के सामने खिसकाकर पन्ना लैम्प जलाने लगी।
लैम्प के धीमे प्रकाश में, पहले वह केवल उस गम्भीर चेहरे को ही देख पायी, पर धीरे-धीरे टो असीम वेदनापूर्ण क्लान्त बड़ी आंखों की करुण दृष्टि उस विशाल वक्ष से चिपकी नन्ही देह पर उतर आयी।
यह क्या?

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