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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


नौ


अम्मा का वह जयेष्ठ पुत्र महाक्रोधी और जिद्दी स्वभाव का होगा, यह कली उनकी बातों से ही समझ गयी थी। बहनों से प्रायः ही इस भाई की भिड़न्त होती रहती। छोटी माया किसी नाट्य संघ की सदस्या थी। भाई को यह सब एकदम नापसन्द था। उसने बहन का वहाँ जाना एक ही धमकी में बन्द कर दिया। बस, फिर भाई-बहन में तीन साल तक बोलचाल बन्द रही। पढ़ने में तेज तो बचपन ही से था, एकदम ऊँची त्राकश की परीक्षा पास कर ली। एक-से-एक अच्छे समृद्ध परिवारों से रिश्ते भी आने लगे, पर उसकी ऊँची पसन्द के चौखट में किसी विवाहाकाक्षिणी सुन्दरी कन्या का चित्र ठीक नहीं बैठता था। अम्मा और बहनें बहुत पीछे पड़तीं, तो हँसकर बस यही कह देता, 'अम्मा, हमारे लायक लड़की अभी भगवान् सिरज नहीं पाये।' हारकर अम्मा चुप रह जातीं। एक बार जया ने ही कहा, ''क्या पता अम्मा, कोई अपनी ही नौकरी की लड़की पसन्द कर ली हो। हमारे अल्मोड़ा के दक्षिणी कलक्टर हैं, उनकी भी बीवी उन्हीं के साथ की पढ़ी आइ. ए. एस. है। नैनीतालवाले की भी पत्नी उन्हीं के साथ की पढ़ी कोई लड़की है। पूछती क्यों नहीं, शायद बड़े दद्दा ने भी कोई छाँट-छूटकर धर ली हो।''
जव चार-पाँच साल प्रवीर को मना-मनाकर अम्मा हार गयीं तब उन्होंने एक दिन हथियार डाल दिये।'' प्रवीर बेटा, अपने समाज की न सही, क्या किसी और समाज की लड़की तुझे पसन्द है? अगर ऐसा है, तब भी हमें अब कोई आपत्ति नहीं है। तेरे मामू का लड़का भी तो पिछले साल मेम लाया है। चल, वंश तो चलेगा।'' पर प्रवीर ने अम्मा के इस उदार प्रस्ताव के उत्तर में भी केवल हँस-भर दिया था।
''कहा था ना मैंने,'' अम्मा ने बड़े गर्व से जया से कहा था, ''मेरा लल्ला, मेरा संस्कारी बेटा है। जब देश-विदेश घूमकर भी उसका जनेऊ उसके साथ रहा, तो क्या वह अपनी देहरी में लौटकर उसे तोड़ देगा?''
दोनों पुत्रों का यज्ञोंपवीत संस्कार एक साथ हुआ था, पर जहाँ छोटे पुत्र ने तीसरे ही दिन जनेऊ उतारकर खूँटी पर टाँग दिया था, वहाँ बड़े पुत्र का नियमित
सच्चा-पूजन एक दिन को भी नहीं छूटा था। अँगरज़ी साहित्य में एम. ए. करने पर भी वह संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् था। प्रपितामह की बृहत् संस्कुत की लाइब्रेरी को कुछ दमिकों ने चाट लिया था। जो कुछ भी बचा था, उसे वह चाट गया था। जब वर्षों तक भी विनती-चिरौरी करने पर वह विवाह के लिए राजी नहीं हुआ, तो हारकर उसके छोटे भाई का विवाह उसी रूपवती कन्या से कर दिया गया, जिसका रिश्ता कभी गृह के ज्येष्ठ पुत्र के लिए आया था।
''जिन-जिन लड़कियों की कभी इस निगोड़े से बात चली थी, सबके बच्चे होकर स्कूलों में पढ़ने लगे, और यह अभी भी लंडूरा ही बना फिर रहा है। पैंतीस बरस का हो जाएगा, अब क्या आशा करूँ इसकी,'' एक लम्बी साँस खींचकर अम्मा आँसू पोंछ लेतीं।

छोटी बहू भी चली गयी थी। उस पर विपत्ति भी तो कनखजूरे की भाँति सैकड़ों पैरों से चलकर आती है। सुवीर की मृत्यु के आघात को अभी वृद्ध दम्पती भूले भी नहीं थे कि घर की बहू भाग गयी। लाख छिपाने पर भी उसकी कलंककथा क्या छिप सकती थी? लोग इधर खोद-खोदकर भगोड़ी बहू की ही कुशल पूछने लगे थे। पढ़ाई छोड़-छाड़कर एकदम मायके क्यों चली गयी? स्वामीजी कब लौट रहे हैं? आजकल तो बद्रीनाथ के पट बन्द रहते हैं, कैसी यात्रा पर गये हैं, आदि-आदि। रेवतीशरण तिवारी अत्यन्त सरल स्वभाव के थे। कब उनके मुँह से कटु सत्य निकल पड़े, इसी भय से प्रवीर की माँ उनके साथ छाया-सी लगी रहतीं।

इधर बड़ी पुत्री जया के गलग्रह के साथ-साथ उस पर भी विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा था। एक तो गले पर उपजा गलग्रह पल-पल, गैस के गुब्बारे-सा बढ़ता जा रहा था, उस पर लज्जा, क्षोभ एवं चिन्ता ने उसे घुलाकर रख दिया था। गलग्रह के साथ-साथ वह अपने दूसरे गलग्रह को लेकर एक अनिश्चित काल के लिए मायके में रहने को आ गयी है, यह उसकी छोटी बहन माया को छोड़ और किसी को पता नहीं था। दामोदर प्रसाद भी किसी अंश में उसके गलग्रह से कुछ कम नहीं था। माता-पिता ने कुछ सेही आत्मीय स्वजनों के कहने पर ही दुलारी बड़ी पुत्री को इतनी दूर, एक ऐसे अनजान व्यक्ति की चादर से बाँधकर भेज दिया था। तब क्या जानते थे कि लम्बे-चौड़े डीलडौल और आकर्षक चेहरे के स्वामी इस युवक की कलई उतर जाने पर वह मुरादावादी लोटा-सा ही श्रीहीन लगने लगेगा।

दामोदर प्रसाद के पिता दारोगा थे और मामा कोतवाल। माता और पिता के वंश ने, पुलिस विभाग की कुटिलता का पाठ बड़े यत्न से पढ़ा था। पिता और माता के ओहदे से बहुत बड़ा ओहदा पाने पर दामोदर ने अपनी कुटिलता में आवश्यकतानुसार ढील देकर उसे बरगद की जड़ों की भाँति ही दूर-दूर तक फैला
लिया था। शुद्ध धृरत, कार्तिका पहाड़ी मधु और भेड़ के कच्चे गोश्त को छोड़कर उसके शुष्क इलाके में कुछ नहीं मिलता था : पर फ़ौजियों की एक बहुत बड़ी टुकड़ा उधर, धारचूला के पास आकर बिखर गयी। सामान्य-सी चेष्टा करने पर ही उसने अपने कीले में एक छोटा-मोटा सेलर बना लिया था। रिश्वत लेने में उसने अब अपने पेशे को दक्षता प्राप्त कर ली थी। जया जब कभी मायके जाती, वह एक साथ कई नियुक्तियाँ कर लेता। वरतन मलनेवाली, महाराजिन, जमादारनी सव बँगले में पटरानियों-सी स्वेच्छाचारिणी बनी घुमती रहती! दुराचारी गुहस्वामी की आड़ में हरामखोर नौकर-चाकर भी मनमाना शिकार खेलने लगे। वैसे तो उन पहाड़ी इलाक़ों में नियुक्ति होने पर हर सरकारी अफ़सर श्रवणकुमार बना, अपने माता-पिता को सरकारी जीप में बद्रीनाथ-केदारनाथ की यात्रा करा ही लेता था, पर दामोदर प्रसाद की जीप इधर पेशेवर ट्रिप लगाने लगी थी। तीर्थयात्रियों के ऐसे ही एक जीपयात्री ने जासूस बनकर अचानक दामोदर प्रसाद का पटरा बिठा दिया। उस बूढ़े यात्री का पुत्र एक राजनीतिक विरोधी दल का सदस्य था और शायद जान-बूझकर ही चतुर पुत्र ने पिता को इस यात्रा के लिए भेजा था। पिता पुत्र की सूझ-बूझ देखकर प्रसन्न हो गये। हाजी भी बन गये और चोर भी पकड़ लिया। हींग लगी न फिटकरी रंग चोखा। उस पर एक बात और भी थी। उसी दामोदर प्रसाद के घमण्डी साले ने एक बार उनकी पुत्री का रिश्ता फेर दिया था। प्रतिशोध क्या छुरा मारकर ही लिया जाता है? पर इस अदृश्य 'गुप्ती' का बार दामोदर प्रसाद के लिए सचमुच ही घातक बनकर रह गया।

उन दिनों देश के मन्त्री ताश के बावन पत्तों की भाँति फेटे जा रहे थे। पुराने घाघ मन्त्रियों ने तो दुनिया देखी थी-प्रत्येक विभाग में उनका एकन-एक घिसा-मँजा 'खड़पेंच' मूँछों पर गर्व से ताव देता, अखाड़े की देखभाल करता। हर अखाड़े की फ़िजा बेईमानी, चुग़लखोरी और मिथ्या भाषण से बोझिल रहती। जो मुट्ठी-भर अफ़सर ईमानदार बने रहने का प्रयल करते, उन पर दिन-रात कीचड़ उछाला जाता और उनके इहलौकिक सरकारी चित्रगुती लेखेप्योखे में ऐसे-ऐसे अमिट स्वर्णाक्षरों की पंक्तियाँ लिख दी जातीं कि उनका पूर्वकृत उजला चिट्ठा धुलकर सनेट पर लिखे अक्षरों-सा ही धुँधला बनकर रह जाता। यदि उन्होंने फिर भी सत्य एवं सदाचरण का दुस्तर पथ नहीं त्यागा, तो उन्हें विभाग के यमदूत प्रान्त के मनचाहे कुम्भीपाक में सड़ने डाल सकते थे-गोरखपुर, गोण्डा या बलिया। प्रजातन्त्र की व्याख्या यदि कहीं साकार हो पायी तो इन्हीं सरकारी विभागों में। द्वार पर चपरासी ऊँघता रहता, कुरसी पर अफ़सर!

दामोदर प्रसाद की उन दिनों और बन आयी थी। कुछ ही दिन पूर्व वह अपने अफ़सर के माता-पिता, सास-ससुर, सबको ब्रदीनाथ-केदारनाथ घुमा ही नहीं लाया, उनके. साथ प्रचुर मात्रा में शुद्ध मृत, शहद और आठ ऐसे मोटे-मोटे पहाड़ी धुले पहुँचा
आया था, जिन्हें ओढ़कर साहब का पूरा परिवार कम-से-कम अट्ठाईस जाड़े काट सकता था। साहब उससे बहुत ही प्रसन्न होकर गये थे। एकान्त में उसे बुलाकर उन्होंने आश्वासन भी दिया था, ''अब तुम्हें इसी साल कहीं का बड़ा चार्ज देकर भेज देंगे। हमारी सास तुमसे बहुत खुश हैं।''
दामोदर मूँछों-ही-मूँछों में मुसकराकर कृतज्ञता से दोहरा हो गया था। वह चतुर अफ़सर जानता था कि प्रभु को प्रसन्न करने से पहले अब उनकी सास को प्रसन्न करना अधिक फलदायी है। उसकी पिछली पदोन्नति के लिए भी, उसे डी. आई. जी. की सास ने ही आशीर्वाद दिया था। जब कहीं बासमती का एक दाना भी ढूँढ़े नहीं मिल रहा था, तब हनुमान की ही भाँति उड़ता पूरा पर्वत ही हथेली पर धर लाया था। बुढ़िया के चरणों में उसने चार मन ऐसी बासमती एक साथ उँड़ेलकर रख दी कि जिसका एक-एक दाना शमातुलम्बर की-सी सुगन्ध से साहब को पूरी कोठी सुवासित कर देता।
पर इस बार दामोदर प्रसाद का भाग्य टेढ़ा होकर रह गया।
इधर नया मन्त्रिमण्डल सजग, सचेत बना हाथों में हथकड़ियाँ छिपाये घूमने लगा था। हर मन्त्री हारूँ उल रशीद बना रात-आधी रात दायें-बायें चोर पकड़ रहा था। बेईमानी, चोरबाजारी, घूसखोरी का आमूल विध्वंस करने के उत्साह में कई बिना तिनकों की दाढ़ियाँ भी नुच गयी थी। फिर दामोदर की दाढ़ी का तिनका तो कोई अन्धा भी बीन लेता। जव तक वह सँभलता, उसे एक उपमन्त्री ने ही लँगड़ी देकर चारों खाने चित कर दिया। उसके कलंक की कथा इतनी लम्बी थी कि विजिलेंस ने एक छोटे-मोटे रोचक उपन्यास की ही सृष्टि कर दी थी। सस्पेण्ड होने पर वह उस जिले में रहता ही कैसे? जहाँ का वह अभी कल तक एक एकच्छत्र सम्राf था, जहाँ के प्रत्येक दारोगा की ऐंठी मूँछें उसकी तर्जनी के इशारे पर उठती-गिरती थीं, वहाँ अब क्या वह नंगा होकर खड़ा रह सकता था?

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