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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


अम्मा का छोटा दामाद नवीन भी दो पुत्रों का पिता था, फिर भी चाहने पर अभी भी सेहरा बाँधकर दूल्हा बन सकता था। उसका चेहरा लाखों की भीड़ में देखकर भी, कली पहचान लेती कि वह नैनीताल या अल्मोड़ा का है। एकदम साफ चिट्टा रंग, लड़कियों की-सी बड़ी रसीली गहरी लिपस्टिक लगायी हो मानो।

''ए अम्मा, इस तुम्हारे कलकत्ता में साले मच्छर बहुत हैं, सारी रात सो नहीं पाया'' उसने पहली बार मुँह खोला और अपनी गोरी-गोरी बाँह खुजलाने लगा।
''पता नहीं तुम्हें कैसे मच्छर लगते हैं नवीन,'' जया चिढ़े स्वर में कहने लगी, ''हम भी तुम्हारे ही बगल के कमरे में हैं, कहीं भी एक मच्छर ढूँढ़े से नहीं मिलता।''

उसके स्वर को सुनकर कली को लगा कि वह आज शायद उसी की उपस्थिति से चिढ़कर हवा से लड़ने को तैयार है।
कली ने पहली बार उसे ठीक से देखा। रंग उज्जवल होने पर भी आवश्यकता से अधिक लम्बी नाक ने पूरे चेहरे की रंगत बिगाड़ दी थी। ग़ौर से देखने पर गले में सामान्य रूप से उभरा वह गलग्रह भी स्पष्ट दीखने लगता, जिसे जया ने मंगल-सूत्र की तिहरी लड़ से छिपाने का प्रयत्न किया था। फिर भी कली ने तीखी दृष्टि उस पर गड़ाकर रख दी।
''अरे,'' वह अनजान-सी बनकर कहने लगी, ''यह गले में क्या हो गया है?

क्या किसी जहरीले कीड़े ने काट दिया है?''
अब तक गर्व से तनी बैठी जया प्रश्न के साथ ही छुई-मुई बन सकुचा गयी। कुछ उत्तर न देकर उसने सकुचाकर गरदन झुका ली।
अम्मा ने अस्वाभाविक चुप्पी भंग की, ''न जाने कहीं से यह गलग्रह इस साल इसके पीछे लग गया है। असल में जहाँ दामोदर की नौकरी है, वहाँ के पानी में, सुना है, आयोडीन की भारी कमी है। इसी का इलाज कराने तो यहाँ आयी है!''
''ओह,'' कली के स्वर में बनावटी सहानुभूति की खनक जया से छिपी नहीं रहा! यहीं यह अकडू छोकरी नहीं आयी होती, तो क्या उसके गलग्रह का बुलेटिन अम्मा जिस-किसी को देती फिरतीं!
''मैं चलूँ अम्मा,'' हँसती हुई कली उठी तो गह के दोनों दामादों की मुग्ध दो जोड़ा आँखें उसकी मुट्ठी में बन्द थी।
''लगता है, मुझे लेने दफ्तर की स्टाफ कार भी आ गयी है।''
गाड़ी का शब्द निकट आता, गृह की बरसाती में पहुँचकर थमक गया।
कली उठकर बाहर आयी तो दफ्तर की गाड़ी कहीं नहीं थी। लगता था पड़ोस के जस्टिस मुकर्जी की कार का ही शब्द था। प्रायः ही ऐसा होता कि वह उसी गाड़ी के धोखे में तैयार होकर बाहर निकल आती। लगता उन्हीं की बरसाती में कार रुकी है। 

'क्यों न पिछवाड़े के मार्ग से घूमकर, बँगले की गैलरी में दीवार से कान सटा थोड़ी देर अम्मा की गलग्रहधारिणी दम्भी पुत्री और ठसकेदार जामाताद्वय पर उसकी उपस्थिति से हुई प्रतिक्रिया का आनन्द लिया जाये?' वह मन-ही-मन अपनी योजना पर प्रसन्न हो उठी। ऐसा हो ही नहीं सकता कि वहाँ उसके विवादास्पद व्यक्तित्व को लेकर गरमागरम बहस न चल रही हो। निश्चय ही अकडू पुत्री अम्मा को कृष्णकली को गृह में शरण देने के लिए कोस रही होगी।
वैसे भी कली को बचपन से ही दीवार से कान सटा, गोपनीय बातें सुनकर रस लेने की बुरी आदत पड़ गयी थी। एक प्रकार से वाणी सेन ही उसकी इस कुटेव के लिए उत्तरदायी थी।
''ज़रा कान लगाकर सुनना तो कालोचौंद, तेरी हरामखोर आया किस मूँडी-कटे से बातें कर रही है,'' उसने कली के नन्हे कानों को बचपन से ही दक्ष बना दिया था।

स्कूल जाने पर वह नन्स की डॉरमेटरी की दीवारों से सटकर लुकछिप उनकी बातें सुनती रहती-कौन मदर उसके लिए कैसा विष-वमन कर रही है, किस लड़की को आज स्कूल के कठोर नियम भंग करने की सजा मिलनेवाली है, सब कुछ उसे पहले ही पता हो जाता।
हाथ का बैग लिये कली पर्शियन बिल्ली के-से मखमली क़दम रखती कॉरीडोर में छिपकर खड़ी हो गयी। उसी से लगी अम्मा के कमरे की दीवार भेदकर, जया का
उच्च उत्तेजित स्वर कली के कान के पूरे परदे फाड़ने लगा।
''तुम भी अम्मा निरी मिट्टी का लोंदा ही रह गयी,'' वह कह रही थी। ''पहले उस खबीस चोट्टे स्वामी को कहीं से पकड़ लायी, जब तुम्हारी वह को लेकर भाग गया तब तुम्हें कहीं होश आया। अब न जाने कहाँ से इस छोकरी को पकड़ लायी हो! किराया-विराया भी देती है, या फिर मुफ्त का ही सदाव्रत खोल बैठी हो?''
अम्मा ने धीमे स्वर में कग कहा, कली सुन न पायी।
''हूँ! मैं तो पहले ही समझ गयी थी कि ऐसी चालाक लड़की क्या खाक किराया देगी? पर अम्मा तुम्हें क्या हो गया है, सच। ऐसी सुन्दर कुँआरी लड़की को तुमने तीन ही दिन की जान-पहचान में न्यौतकर घर में बसा लिया। कग बाबूजी से पूछ लिया था?''
अम्मा का स्वर अब झुँझला उठा, ''जया, वह बेचारी लड़की यहाँ रहती ही कितने दिन है! खाना बाहर खाती है, और अक्सर दौरे पर। आज लखनऊ तो कल दिल्ली-बम्बई। मुझे तरस आ गया, एक तो पहाड़ी-सी ही।''
''अच्छा अम्मा, मजूमदार भला पहाड़ी कब से होने लगे,'' जया की हँसी ने शायद छोटे दामाद को उकसा दिया।
''ठीक कह रही हैं अम्मा, चेहरा स्लेट-परसेण्ट पहाड़ी लगता है, है ना दामोदर दा?''
''अरे, ऐसी मीठी पहाड़ी बोलती है नवीन,'' अम्मा छोटे दामाद की शह पाकर बड़े उत्साह से कहने लगीं, ''कह रही थी उनके पड़ोस में कोई जोशी की तीन लड़कियाँ थीं, उन्हीं से सीखी। अब हम-तुम पहाड़ियों से तो वह बंगाली ही भली। हमें तो पहाड़ी एकदम ही नहीं आती। बेला सेन को तो तुम जानती ही हो जया, अपने सगे भाई को भी पेइंग गेस्ट बनाकर रखती थी। वह भला कली को छोड़ती! एक छोटे-से कमरे के एक सौ बीस दे रही थी। उस पर दिन-रात की तिकतिक। इसने तो मुझे कुछ भी नहीं बतलाया, वह तो उसी की महरी उन दिनों हमारे भी बरतन मलती थी, उसी ने कहा, तो मैं ही इसे जबरदस्ती यहाँ ले आयी। और फिर बेटी, तुम और माया अभी चार दिन रहकर ससुराल चली जाओगी, कली यहाँ रहेगी, तो मेरा भी घड़ी, दो घड़ी जी बहल जाया करेगा। अभी पिछले महीने मुझे और तेरे बाबूजी को एक साथ ऐसा क्यू हो गया था कि पलँग पर बेहोश पड़े रहे। यही परायी लड़की दुर्दिन में अपनी हो गयी। ऐसी सेवा की इसने बेटा दामोदर कि क्या अपनी सगी लड़की करती।''

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