नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
का बन और भी सलोना हो गया था। तीन वर्ष के कलकत्ता-प्रवास ने उस
तन्त्री के लचीले शरीर को दुबला बना दिया था या कसे शरीर से सिले
कपड़ों की चुस्त काट-छाँट का जादू था? शायद पन्ना भी उसे पहली झलक में
नहीं पहचान सकती थी। पहचानती भी कैसे! टाटा टेक्सटाइल के लिवास में
वह पहली बार मॉडल बनी तो स्वयं डायरेक्टर ने आकर उसे बधाई दी थी।
विलक्षण मॉडल थी वह। जैसे विधाता ने ही उस अपूर्व मॉडल को स्वयं अपने
हाथों से गढ़कर इसी अभिप्राय से धरा पर अवतरित किया था। पेशेवर मेकअप
करने वाली की तूलिका कर ही क्या लेती। कग उन अस्वाभाविक रूप से बड़ी
आँखों, लम्बी ऊपर को मुड़ी पलकों या नन्हे अधरों की 'क्यूपिड' गढ़न में
कहीं भी काट-छाँट की कोई गुंजाइश थी! सबसे अधिक आकर्षण था कली के
वच्ची के-से मासूम चेहरे का। हँसती तो गालों में पड़ते गहरे गढ़ों को
जान-बूझकर विलम्बित स्मित में देर तक गहरे खोदकर रख देती।
धीरे-धीरे वह सलोना चेहरा, साबुन के विज्ञापन से उठकर बहुत ऊपर चला
आया। हैण्डलूम एक्सपोर्ट कापरिशन के इक्जीक्यूटिव डायरेक्टर ने स्वयं
पत्र लिखकर उससे अनुरोध किया था कि वह भारतीय वस्तुओं के प्रदर्शन
में, विदेशी मार्केट को अपनी उपस्थिति से धन्य करे। न्यूयार्क के
'सोना' इम्पोरियम में लाखों अमरीकियों के हृदय वह अपनी साड़ी के एक-एक
भींज में चन्द कर हाल ही विदेश से लौटी थी। पर अब उसे नित्य मोटी
बदसूरत चमकती-दमकती स्त्रियों की भीड़ में घूम-घामकर नित-नवीन साड़ी,
चूड़ीदार मिनी स्कर्ट के प्रदर्शन से ऊब उठने लगी थी। अब उसी की एक
परिचित ने उसे मोटी तनख्वाह पर 'रिसेप्शनिस्ट' के पद पर रखवा दिया
था। सप्ताह में चार दिन ही उसे काम पर जाना होता। न भाग-दौड़, न नित्य
की सज्जा, लेप-थोप। पर जिस बंगाली परिवार के साथ वह रहती थी, उसकी
गृहिणी अब उसके लिए विशेष सिरदर्द बनती जा रही थी।
''इतनी रात तक कहां रहती हो?''
''कैसी नौकरी है भई तुम्हारी? कहती तो खाना-पानी सब वहीं मिलता है,
उस पर सप्ताह में चार दिन पड़ी-पड़ी खाट तोड़ती हो! हमसे तो तुम्हीं
भली।''
''जैसी धनेखाली डूरे साड़ी पहनकर तुम कल दफ्तर गयी थीं, ऐसी ही एक
मेरे लिए भी ला देना भाई कली, पैसे किराये में काट लूँगी।''
बेला सेन की फ़रमाइशें पूरी करते-करते कली को मकान का किराया बहुत
भारी पड़ने लगा। एक कमरा और साझे का गुसलखाना उसे बहुत महँगा पड़ रहा
था। किराये की भी उसे चिन्ता नहीं थी, चिन्ता थी उस आवश्यकता से अधिक
मुखरा स्त्री के कौतूहली सदा जागरूक स्वभाव की। वह कहीं जाये, कुछ भी
करे, उसका क्या? फिर ऐसे जासूसी-भरे वातावरण में वह आश्वस्त होकर ठीक
से सो भी नहीं पाती थी। पहले तो उसका व्यवसाय ही ऐसा था कि उसे सदा
प्राण अपनी नन्ही हथेली पर धरकर नट की-सी रस्सी पर चलना पड़ता था।
पहले-पहल कलकत्ता आयी तो विवियन की ही दूर के रिश्ते की मौसी के यहाँ
टिकी थी। मौसी का बहुत बड़ा पॉल्टी फ़ार्म था, लेगहॉर्न मुर्ग़ियों के
साथ-साथ विवियन की लोरीन आण्टी, और भी बहुत-सी सोने के अण्डे देने
वाली मूर्गियों का व्यापार करती है, यह समझने में कली को विलम्ब नहीं
हुआ। ऐसी सुन्दरी, लुभाविनी मुर्ग़ी सहसा छप्पर फाड़कर लौरीन के फ़ार्म
पर फड़फड़ा उठी तो उसने लपककर हथेली पर बिठा लिया। आसपास चीनियों के कई
परिबार रहते थे। उन्हीं के बीच, एक चीनी जूते वाले के दरबे-से-गन्दे
मकान में रहती थी लौरीन। बाहर से एकदम रिकेटी दिखते उस मकान का
बरामदा भी किसी बूढ़े के हिलते दाँत-सा नीचे लटक आया था। जाली से घिरे
अहाते में कई मुर्गियाँ दिन-रात फड़फड़ाती रहतीं और तीन-चार कलंगी वाले
मोटे ताजे मुर्गे अकड़ से नये दूल्हे का-सा सेहरा उठाये घण्टाघर की
घड़ी से स्वर मिलाते बड़े तड़के ही बाँग देकर कली की नींद तोड़ देते।
टूटे मकान की श्रीहीन कान्ति देखकर कली का कलेजा काँप गया था। यहाँ
कैसे रहेगी वह? कहां 'देवदार' का वैभव, सेण्ट मेरीज़ कान्वेण्ट की जीभ
से चाटी गयी स्वच्छ सज्जा और कहीं मुर्गे-मुर्ग़ियों और पंख-विहीन
घिनौने चूजों का सान्निध्य!
लौरीन बड़ी-बड़ी छातियों, चौड़े जबड़ों और घोड़ी के-से चेहरे वाली अनोखी
स्त्री थी। वह अपने घने वालों की चोटी को तिब्बती स्त्रियों की
केश-सज्जा में चपटे सिर के चारों ओर दुहरी लड़ में लपेटकर रखती थी।
चौड़ी कमर में बँधा उसका ऐप्रन, हंगेरियन कढ़ा ब्लाउज और स्वच्छ स्कर्ट
देखकर कोई भी नहीं कह सकता था कि वह दिन-भर मुर्गियों के दरबे में
हाथ में झाडू लिये सफाई करती रहती है। सफ़ाई के पीछे बुढ़िया दीवानी
थी। इसी से उसके जीर्ण-शीर्ण मकान का भीतरी कलेवर बाहरी गन्दगी से
एकदम अछूता था, ठीक जैसे कोई रूपसी मुसलिम युवती गन्दा बुर्का ओढ़े
बैठी हो। बंगाल की वर्षा से पीली दीवारों पर कहीं-कहीं पुराने मक़बरे
की-सी काई जमकर घास के नन्हे गुच्छे उग आये थे, पर स्वयं लौरीन का
कमरा सदा स्वच्छ दर्पण-सा चमकता। कमरे की सज्जा प्रत्येक ऐंग्लो
इण्डियन के कमरे की-सी सज्जा थी। मेण्टलपीरा पर सजाये क्रिसमस कार्ड,
चित्रों में वधू वेश में हाथ में बड़ा-सा गुलदल्दा लिये लौरीन। पुत्री
के बपतिस्मा पर उसको गोद में लिये लौरीन, उसी के पास सुनहले फ्रेम
में महारानी विक्टोरिया का एक बहुत बड़ा-सा चित्र और धरा रहता, जिसे
लौरीन नित्य बड़े यत्न से पोंछ-पाँछकर चमकाती रहती। लौरीन के साथ उसकी
अनाथ भतीजी सूजन भी रहती थी। बचपन में मोटर के नीचे दब जाने पर उसकी
पूरी टाँग काट दी गयी थी। पर अपनी लकड़ी की टाँग को बैसाखी के बल
घसीटती वह आश्चर्यजनक तेजी से चल सकती थी।
''सूजन, मुझे यहाँ आये आठ दिन हो गये हैं, कब तक ऐसे बैठी रहूँगी?
आण्टी से कहूँगी अब मुझे कहीं कुछ काम दिला दें।''
''काम?'' सूजन ठठाकर हँस पड़ी थी, ''यहाँ तो काम-ही-काम है ईडियट!
चिन्ता क्यों करती है, आण्टी इतना काम लाद देगी कि सँभाले नहीं
सँभलेगा। आज इसी चक्कर में तो बुढ़िया बाहर गयी है। इधर आ,'' वह
बैसाखी पटक अपने रेल के बर्थ के-से पलँग पर बैठ गयी थी।
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