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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


सारी रात ऐसी कवायद में बीत गयी। उजाला ठीक से हुआ भी नहीं था कि वह बरामदे में टहलने लगा। अचानक भड़ाक से द्वार खोलकर हाँफती-सिसकती आण्टी उससे लिपट गयीं।
"सनी गज़ब हो गया, मैं सुबह ही कैप्सूल खिलाने गयी तो देखा ठण्डी पड़ी है। मुँह से अजीब आवाज़ निकल रही है। ऐसा तो कभी करती ही नहीं थी। तुम चलकर देखो ज़रा। मैं डॉक्टर को बुला लाती हूँ। मुझे तो लग रहा है, शी इज़ सिकिंग।"
कल रात तक जो आनन्द-ऊमियाँ बिखेरती, चपल मछली-सी तैरती इधर-उधर नाच रही थी, वह डूब कैसे सकती थी ! प्रवीर कमरे में पहुंचा तो पन्ना सिरहाने बैठी रूमाल से कली के ललाट का पसीना पोंछ रही थी।
दोनों हाथ छाती में धरे वह जिस प्रगाढ निद्रा में डबी सो रही थी. उसको प्रवीर ने देखते ही पहचान लिया। क्या ऐसी बीमारी में भी वह त्रैलोक्यदर्शन की गोलियाँ न छोड़ सकी थी ! कभी-कभी सारा शरीर ऐंठने से गठरी बन जाता और पल भर को सुन्दर चेहरा पीड़ा से विकृत होकर नीला पड़ जाता। दूसरे ही क्षण फिर गरदन लटक जाती, चेहरे पर शान्त निद्रित शिशु की-सी मुसकान खेलने लगती और स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास देख पन्ना बड़ी आश्वस्त दृष्टि से प्रवीर की ओर देखने लगती।।
डॉक्टर मोज़ेज़ ने आने में विलम्ब नहीं किया। झुककर उसने प्रगाढ़ निद्रा में डूबी अवश देह की एक-एक पसली को ठोंक-पीटकर देखा। अनुभवी हाथ में नाड़ी की क्षीण गति को बाँधा। रेशमी पलकों की चिलमन को बरबस ची रही आँखों को देखा और फिर खड़ा हो गया।
जिस रोग ने इतने महीनों से घात लगायी थी, इस बार का प्राणघाती अभियुक्त वह रोग नहीं था, इसमें डॉक्टर को भी सन्देह नहीं था।
इसने कुछ खा लिया है," वह धीमे स्वर में कहने लगा, “बहुत बड़ी मात्रा में खाया है, हो सकता है स्लीपिंग पिल्स की पूरी शीशी ही घुटक ली हो। अस्पताल ले जाने में बेकार परेशानी में पड़ जाओगी, उस पर भी अब कोई बचा नहीं सकता। पल्स इज़ आलमोस्ट गॉन। हो सकता है, दस पन्द्रह मिनट... "
वह अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि साँस लेने को जूझती हाँफती कली हारकर चुक गयी।
मृत्यु सुनने में कितनी भयावह लगती है पर देखने में उतनी ही निरीह,
स्वाभाविक। अभी वह थी और अभी नहीं। दोनों हाथ अभी भी छाती पर धरे थे. अर्ध-उन्मीलित बड़ी आँखें तो पहले भी ऐसे ही अधखुली कर सोती थी वह। आण्टी अपने को रोक नहीं पायी, हिस्टिरिकल सिसकियों से विराट देह काँपने लगी। पर पन्ना शान्त स्थिर बैठी थी। ऐसी ही स्तब्ध होकर वह तब भी बैठी रही थी, जब विधाता ने इस अनामा सन्तान को उनकी सूनी कोख में डाल आकस्मिक औदार्य से उने माँ बना दिया था और आज, आकस्मिक क्रूर हृदयहीनता से उसे एक बार फिर सन्तानहीन बना दिया। डॉक्टर आण्टी का पुराना मित्र था। सिसकती आण्टी के कान के पास आकर वह फिर फुसफुसाने लगा, “मैं सोचता हूँ अब देर मत करो, जितनी जल्दी हो सके मिट्टी उठा दो। आजकल की पुलिस का कोई ठीक-ठिकाना नहीं।"
ईसाई टोले से पहली हिन्दू मिट्टी उठ रही थी, इसी से आण्टी को हिन्दू इष्ट-मित्र जुटाने में कुछ विलम्ब हुआ। स्वयं उनके हिन्दू कमिश्नर मित्र ने आकर उनकी सहायता की।
प्रवीर एक बार भी बाहर नहीं निकला। पता नहीं आण्टी के बँगले का कौन-सा अनजान अँधेरा कमरा था वह, शायद पैण्ट्री थी। वहीं चोर-सा दुबककर घण्टों बैठा रहा।
बड़ी देर बाद आण्टी चाय का प्याला लिये ढूँढ़ती-ढूँढ़ती पहुँच गयीं।
"अरे, तुम यहाँ बैठे हो ? उसे तो कब का ले गये। ऐसी सुन्दर देह और जलाकर खाक कर देंगे। हिन्दू शास्त्र हमारी समझ में नहीं आता। अपनी सिमिट्री में होती तो मार्बल टॉप बनवाती।" आण्टी का गला रुंध गया। क़ब्र के पत्थर के नीचे दबने से तो अच्छा था कि चिता में जलकर उसका कुछ भी शेष न रहे।
"तुम बैठो सनी, मैं ज़रा गिरजाघर जा रही हूँ, टु प्रे फ़ॉर हर सोल।" मदनि रूमाल से नाक पोंछती आण्टी चली गयीं।
प्रवीर के हाथ का प्याला काँप गया। टु प्रे फॉर हर सोल। जिसने उसके चदरे से अपनी चुनरी की गाँठ बाँधकर श्मशान में महोत्सव मनाया था, क्या वह उसकी आत्मा की शान्ति के लिए एक बूंद पानी भी नहीं देगा ? हड़बड़ाकर वह उठा और चुपचाप बाहर निकल गया।
संगम पहुँचा, तो डूबते सूरज ने गंगा का आँचल रँग यमुना का छोर थाम लिया था। एक टूटे-से बजरे में संगम के बीच पहुँचकर वह उतर गया, फिर बड़े असमंजस में दोनों पैर पानी में डुबोये कुछ देर तक खड़ा ही रह गया।
"क्या किसी की मिट्टी देकर आये हो बाबू ?' अधेड़ नाव वाले की सहानुभूतिपूर्ण जिज्ञासा का उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। पर वह उसके उदास चेहरे की व्यथा को भांपकर समझ गया कि चोट ताजी है। "ठीक जगह पर खड़े हो
बाबू, मिट्टी को पानी यहीं दिया जाता है।"
दक्षिणाभिमुख हो उसने एक अंजलि भरकर मुक्तिदायी पावन अमृत उठा लिया ! पर क्या कहकर छोड़ेगा यह जल ? न उसका कुल था न गोत्र, हिन्दू-शास्त्र तो उस पार जानेवाले यात्री से भी कुल-गोत्र का वीसा माँगता है। तब क्या यह जल उस अनामा कुल-गोत्र की प्रेतयोनि तक नहीं पहुँचेगा ? एक पल को उसे लगा—जन्म-जन्मान्तर के तृषार्त दो सूखे अधर उसकी जलभरी अंजली से सट गये हैं। ललाट पर वैष्णवी त्रिपुण्ड, गले में तुलसी की माला, अर्धनग्न पीठ पर फैले काले केश ! संगमतट का प्यासी आदशी वैष्णवी क्या उसके पास फिर आकर खड़ी हो गयी थी ?
प्रवीर ने आँखें बन्द कर लीं, होंठ स्वयं ही बुदबुदाने लगे--

एकाग्रः प्रयतो भूत्वा, इमं मन्त्रमुदीरयेत्
ओं नमो भगवते वासुदेवाय।
अवशेनापि यन्नाम्नि कीर्तिते सर्वपातकैः।
पुमान् विमुच्यते सद्यः सिंहत्रस्तैमूंगैरिव।।

विवशता से फैली हथेली में मुँदा जल झरझराकर फिर संगम के नीलाभ जल में एकाकार हो गया।

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