नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
"पर मैं जान-बूझकर अपनी ज़िद से
उस दालान में पहुँच गयी, जहाँ
चिड़ियाघर के सींकचों में बन्द वे
भूखे शेर चक्कर लगा रहे थे। मुझे
देखते ही उनके अश्लील ठहाकों की
पिचकारियाँ छूटने लगीं। जेलर को
देखकर भी वे अपने को नहीं रोक
पाये। मुझे खींचकर विवियन के डैडी
बाहर चले आये। मौत की सज़ा मिली
है, इसी से जंगली ढोर बेहया हो
गये हैं, उन्होंने कहा था।
"मुझे भी मौत की उसी सज़ा ने
बेहया बना दिया है।" कली ने हँसकर
प्रवीर का हाथ दबा दिया।
"तुम जल्दी ही चले जाओगे क्या ?"
"जाना तो मुझे आज ही था, अब कहीं
से ट्रंक करना होगा। कल शाम को
चलकर अब परसों ही पहुँचूँगा।''
पल-भर को कली का क्लान्त चेहरा फर
के तकिये की गहराई में कछुए के
सिर-सा दुबक गया। आण्टी के विराट्
शरीर को अपनी चुहल के भूकम्पी
धक्के से पत्ते-सा हिलानेवाली,
गम्भीर माँ को अपनी बचकानी ज़िद
से पराजित करने वाली कली जैसे चुक
गयी थी।
शायद वह जान गयी थी कि अपनी
दुर्बल बाँहें फैलाकर वह विवश
जाने वाले को नहीं रोक पाएगी।
'मैं तुम्हें देखने फिर आऊँगा
कली।' प्रवीर ने उसके नुकीले
कन्धे पर हाथ रख दिया
"अभी पहला चार्ज है !'' वह अपनी
विवशता की कैफ़ीयत देने लगा।
वह चुपचाप पड़ी रही। उसने एक बार
भी नहीं पूछा कि वह कब आएगा।
शून्य में फैली दो दुर्बल बाँहों
के आह्वान से क्या दो स्वस्थ
पुष्ट फैली बाँहों ने उसे सहसा
चुम्बक-सा अपनी ओर खींच लिया था ?
अम्मा आरती कर प्रसाद देने आयीं
तो देखा प्रवीर बुत-सा कुरसी पर
ही बैठा था। “अरे, आप तब से ऐसे
ही बैठे हैं ? खाना तैयार है, बस
लगाने जा ही रही हूँ-आप गोश्त तो
खाते हैं ना ?"
कली फिर चहकने लगी, “अम्मा,
इन्हें कल जाना है, नहीं तो आपसे
कहती इन्हें अपने हाथ का बना खड़े
मसाले का गोश्त खिला दें..."
“कोई बात नहीं बेटी, फिर जब
आएँगे, तू मुझे लिख देना। मैं
वहाँ से आकर इन्हें अपने हाथ से
गोश्त बनाकर खिला दूँगी।"
कैसी स्निग्ध रानियों वाली हँसी
थी और आँखों से टपकता कैसा अपूर्व
तेज ! "तुम्हें लिखने वाली तब तक
रहे, तब ना !" आनन्दी आँखों से,
बड़ी देर से लुप्त हो गयी हँसी एक
बार फिर लौट आयी।
"चुप कर, दिन-भर बकती रहती है, न
रहें तेरे दुश्मन !"
पन्ना खाना लगाने चली गयी तो दप
से हँसी का दीया फिर से बुझ गया।
कल वह चला जाएगा।
"मैं तुम्हें देखने जल्दी ही
आऊँगा कली और बराबर आता रहूँगा।''
प्रवीर कली के बिखरे बालों को
सहलाया।
"मत आना, मुझे तुम्हारी मिसट्रेस
नहीं बनना है," अपनी घुटन उसने
कण्ठ। में घुटक ली।
विद्रोहिणी का अटपटा आदेश प्रवीर
नहीं सुन पाया।
"क्या कह रही हो कली,'' उसने बड़े
लाड़ से पूछा और झुक गया।
"कुछ नहीं," कली ने दीवार की ओर
मुँह फेर लिया।
रात का खाना उस दिन मेज़ पर न
लगाकर कली के कमरे में ही लगा। आप
ने अपना वह डिनर सेट निकाला, जो
उन्हें उनके पहले प्रेमी ने उनकी
सत्रहवीं वर्षगाँ पर उपहार में
दिया था। कली, जान-बूझकर ही उस
ऐतिहासिक डिनर सेट की कहान
दुहराने लगी थी। “आण्टी के सब
प्रेमियों ने उन्हें ऐसा ही उपहार
दिया होता, तं आज तक आण्टी के पास
बत्तीस डिनर सेट होते। क्यों, है
ना आण्टी ?"
वर्जित मीठी जेली के लिए मचलती
कली को आण्टी रोकने लगीं, तो वह
पलँग से कूदकर, प्रवीर के पास ही
कुरसी खींचकर बैठ गयी।
देखते-ही-देखते उसने पन्न की नज़र
बचाकर प्रवीर के हाथ से उसकी झूठी
प्लेट छीन ली और ऐसे खाने लगी
जैसे देवता का प्रसाद हो। अम्मा
हाथ धोकर लौटीं, तो वह शान्त,
आज्ञाकारिणी बालिका-सी पलँग पर
लेटी थी।
“मैं सोचती हूँ, आज कली दिन-भर
नहीं सोयी है, अब और स्ट्रेन करना
ठीक नहीं है," कली ने चौंककर
प्रवीर की ओर देखा। और दिन काटने
पर भी न कटने वाला समय क्या आज
पंख लगाकर उड़ गया था ?
पन्ना का पलँग कली के पलँग से
सटकर लगा था। चाहने पर भी चतुर
बन्दिनी अब सतर्क जेल-वार्डन को
छल नहीं सकती थी। कली के कमरे से
एक कमरा छोड़कर ही बॉबी का वह
कमरा था, जहाँ आण्टी प्रवीर को
पहुँचा आयी थीं।
प्रवीर सोया नहीं खुली खिड़की के
पास देर तक खड़ा ही रहा। जिस
अबाध्य प्रेम ने कली को उस रात
दुस्साहसी छलाँग के लिए प्रेरित
किया था, वही दुस्साहस उसकी नस-नस
में व्याप्त होकर उसे उन्मत्त
बनाने लगा। क्यों न वह दबे पैरों
अँधेरे कमरे में टटोलता जाकर कली
के सिरहाने खड़ा हो जाये, और उसे
चुपचाप बाँहों में भरकर अपने कमरे
में ले आये ? पर उसके पार्श्व में
तो एक ऐसी सतर्क संरक्षिका सो रही
थी जिसने यौवनकाल में रात-रात भर
जागकर न जाने कितने निशाचर
अतिथियों का आतिथ्य निभाया होगा।
वह क्या इस अतिथि की दबी आहट को
नहीं पकड़ लेगी ? आण्टी ने कहा था
कि डॉक्टरों ने कली को
अधिक-से-अधिक वर्ष भर जीने की
अवधि दी है, पर सम्भव यह भी था कि
मृत्यु कभी अनजाने में ही उसे
आकर दबोच ले। एक बार दिल्ली जाने
पर वह क्या सहज ही में फिर लौट
पाएगा? इस अनिश्चित अवधि का एक
अमूल्य क्षण वह मुट्ठी में दबोचकर
भागना चाह रहा था। दिल्ली पहुँचने
पर चतुरा नयी पत्नी की सतर्क
दृष्टि की सर्च-लाइट छलबल से
बनाये गये अन्धकार के घेरे को चीर
भागते दस्यु को कभी भी पकड़ सकती
थी।
सोच-विचार और मनस्ताप से बँधा
प्रवीर कभी बड़े दुस्साहस से
बरामदे तक जाता, पर दूसरे ही पल
पन्ना की खाँसी उसे कायर बना
देती।
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