नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
सन्तनी ने इस बीच अपने को संयत कर
लिया था। नाक पोंछकर उसने एक बार सहमी
दृष्टि से मुरदा बनकर सो रहे अपने
साथी की ओर देखा, फिर कली के चिबुक का
स्पर्श कर अपनी अंगुलियों को चूम
लिया।
"जब मिलानेवाला मिलाता है तो अचानक
ऐसे मिला देता है," वह कहने लगी।
"कितनी रात सपनों में तझे देखती रही।
पिछले साल पाण्डिचेरी छोटी दी के पास
गयी थी। उन्हीं ने बतलाया कि तू
नाराज़ होकर कहीं चली गयी है...'' कली
को उसका अटपटा प्रलाप अब भी समझ में
नहीं आ रहा था। कौन थी वह उसके
भूत-भविष्य का लेखा-जोखा रखने वाली !
"क्षमा कीजिएगा,” उसने बड़े ही नम्र
शिष्ट स्वर में कहा, "मैंने आपको
पहचाना नहीं।"
कली के इस नम्र वाक्य ने भी सन्तनी को
जैसे क्लोरोफ़ार्म सुँघा दिया।
वह दोनों बड़ी आँखें बन्द कर बर्थ की
सीट पर पीठ साधकर चुप हो गयी, फिर एक
लम्बी साँस खींचकर उसने आँखें खोली और
कली की ओर झुक आयी।
"क्या पहचानेगी तू ? यह मोती के दाँत
क्या ऐसे ही निकल गये थे ? शहद-सुहागा
लगाकर रात-रात-भर तुझे गोदी में लिये
बैठी रहती थी। छोटी दी तो आया को
सौंपकर निश्चिन्त हो जातीं, फिर
उन्हें समय ही कहाँ रहता ! आज यहाँ
ध्रुपद गा रही हैं, तो कल वहाँ धमार।
पर मैं तुझे आया को सौंपकर निश्चित हो
सो पाती थी ? रेशमी बहमल्य रजाई ओढने
से ही क्या जाडा चला जाएगा ? त तो
अपनी नन्हीं टाँगों से साइकिल चलाती,
रजाई रोज़ रात को लतियाकर दूर फेंक
देती है। यह तो मैं जानती थी। मुझे
देखते ही तू दूध की बोतल दूर पटक देती
और छाती में ऐसे सिर मारने लगती जैसे
भूखी, देर से बिछुड़ी बछिया हो। आज
तुझे क्या दोष दूं..''
बड़ी उदासी से हँसकर उसने कली का हाथ
अपनी गोदी में खींच लिया, "जिस सराय
में हम-तुम रही थीं, वहाँ जनमते ही
अकृतज्ञता की घुट्टी पिला दी जाती है।
मैं तेरी तानी मौसी हूँ कली। क्यों
कुछ याद है ? मैंने ही तो तेरा यह
लखटकिया नाम धरा था—'कृष्णकली' ! आज
बड़ी दी मिलतीं तो तुझे सामने धरकर
पूछती—क्यों बड़ी दी–देख लो, क्या कहा
था मैंने—पर एक बात पू कली ? सगी माँ
को ऐसे क्यों छोड़ आयी ?"
सगी माँ ? कली चौंककर तन गयी तब क्या
उसके अभिशप्त जीवन का रहस्य तानी मौसी
नहीं जानती थीं ?
"हरे राम, शिवशंकर, दुर्गा भवानी, जय
वेंकटेश !” उठते ही अनेक
देवी-देवताओं का एक साथ नाम जपते ही
स्वामीजी बर्थ पर बैठ गये।
सहमकर वाणी ने काले रंग का चश्मा लगा
लिया। शायद वह अपनी सूजी लाल आँखों को
साथी की दृष्टि से बचाना चाह रही थी।
कली के पास से उठकर वह स्वामीजी के
पास खड़ी हो गयी थी, “यहाँ तो कहीं
चाय दिखती ही नहीं। लगता है, किसी
बड़े स्टेशन पर ही गाड़ी रुकने पर
जुटेगी।"
"कोई चिन्ता नहीं," स्वामीजी बर्थ पर
ही पालथी मारकर बैठ गये और पैर के
अँगूठे को हाथ से पकड़कर हिलाते
कनखियों से कली को देखने लगे।
“कहाँ जा रही हो पुत्री ?' वहीं से
उन्होंने अपनी प्रश्न गुलेल का रबर
खींचा।
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