नारी विमर्श >> अवस्था अवस्थायू. आर. अनन्तमूर्ति
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सामाजिक रूढ़ियों और मानसिक अवरोधों पर चोट करता उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कन्नड़ के सुप्रसिद्ध लेखक श्री यू.आर.अनंतमूर्ति का ‘अवस्था’
नामक यह उपन्यास उन सामाजिक रूढ़ियों और मानसिक अवरोधों पर चोट करता है,
जो हमारी वर्तमान दुरावस्था के लिए जिम्मेदार है।
उपन्यास का नायक लकवाग्रस्त है और सारी कहानी उसी के माध्यम से फ्लैशबैक में कही गई है। चरवाहा कृष्णप्पा प्रगति करते हुए विधानसभा का सदस्य बनता है। फिर जीवन के अनेक रूपों का सामना करते हुए खुद को रोजमर्रा की क्षुद्रताओं से बचाता रहता है। शारीरिक दृष्टि से असहाय होते हुए भी उसका राजनीतिक महत्त्व बहुत अधिक है। इसीलिए ऐसे लोग उसके चारों ओर जुटना शुरू हो जाते हैं, जो कोई न कोई स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं। अपना राजनीतिक इस्तेमाल होते देखकर वह विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देता है।
इसी के साथ उपन्यास में गौरी के जरिए एक हृदयस्पर्शी प्रेमकथा भी जुड़ी हुई है, जो अपनी अपूर्वता में भी अत्यन्त काव्यात्मक है।
इस उपन्यास का गठन इतना सधा हुआ है कि सभी पात्र मन पर स्थायी छाप छोड़ जाते हैं। निश्चय ही लेखक की यह एक प्रभावशाली कृति है।
उपन्यास का नायक लकवाग्रस्त है और सारी कहानी उसी के माध्यम से फ्लैशबैक में कही गई है। चरवाहा कृष्णप्पा प्रगति करते हुए विधानसभा का सदस्य बनता है। फिर जीवन के अनेक रूपों का सामना करते हुए खुद को रोजमर्रा की क्षुद्रताओं से बचाता रहता है। शारीरिक दृष्टि से असहाय होते हुए भी उसका राजनीतिक महत्त्व बहुत अधिक है। इसीलिए ऐसे लोग उसके चारों ओर जुटना शुरू हो जाते हैं, जो कोई न कोई स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं। अपना राजनीतिक इस्तेमाल होते देखकर वह विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देता है।
इसी के साथ उपन्यास में गौरी के जरिए एक हृदयस्पर्शी प्रेमकथा भी जुड़ी हुई है, जो अपनी अपूर्वता में भी अत्यन्त काव्यात्मक है।
इस उपन्यास का गठन इतना सधा हुआ है कि सभी पात्र मन पर स्थायी छाप छोड़ जाते हैं। निश्चय ही लेखक की यह एक प्रभावशाली कृति है।
भाग एक
उम्र लगभग पचास की होगी। इस समय बिस्तर पर मरणासन्न पड़ा है। मौत से जूझते
हुए उन जिन घटनाओं का बयान कर रहा है, उनसे उसकी मानसिक स्थिति की कल्पना
की जा सकती है।
लड़कपन में कृष्णप्पा बहुत अच्छा तैराक था। भरी हुई नदी के एक किनारे पर गोता लगाकर झट दूसरे किनारे पहुंच जाता था। एक बार की बात है कि इसी तरह तैरते हुए कृष्णप्पा नदी का लगभग आधा पाट पार कर चुका था कि उसे लगा, उसके हाथ-पैर सुन्न पड़ गये हैं। अपने से दो हाथ पीछे तैर रहे साथी से कहा, ‘‘यार, मैं डूब रहा हूं। तू लौट जा !’’ वह बड़ी मुश्किल से इतनी ही बात कह पाया और गोता खा गया। तब हनुमन्नायक ने बड़ी मेहनत से उसे बचाया था।
उस दिन की घटना को याद करके लकवाग्रस्त कृष्णप्पा की दोनों बड़ी-बड़ी आंखों में आंसू उमड़ पड़ते हैं। उस एक पल में जब यकीन हो गया कि वह मर ही जायेगा, तब वह कैसा निर्विकार बन गया था।
हमेशा नाक पर चढ़े रहने वाले कृष्णप्पा के गुस्से की कहानी कुछ अलग है। उन दिनों वह हाईस्कूल में पढ़ता था। एक बार अपने मित्र की घड़ी लाने के लिए घड़ीसाज के यहां पहुंचा। घड़ीसाज कृष्णप्पा को जानता था और उसके साथ खासी अन्तरंगता भी थी। किंतु कंगले कृष्णप्पा की ठसक को लेकर उसके मन में जलन थी। ‘‘तुम पर भरोसा करके घड़ी कैसे दी जा सकती है ?’’ एक आंख पर दूरबीन चढ़ाए व टेढ़ी नजर से देखते हुए घड़ीसाज ने कहा। तब कृष्णप्पा ने जवाब दिया था, ‘‘देखो, फिर कभी ऐसा कुछ कहा तो यह दूरबीन चकनाचूर हो जायेगी, समझे ?’’ इस पर घड़ीसाज ने चिमटी से कुछ बिखेरते हुए कहा था, ‘‘दलिदर का गुस्सा दाढ़ पर बला।’’ बात मुंह से निकली ही थी कि कृष्णप्पा मरम्मत के औजार और खुले पुर्जों वाली घड़ियों के शीशे के बक्से को धड़ाम से जमीन पर पटककर चल दिया था। उसके गुस्से से कैसे कैसे लोग थर्रा जाते थे।
ऐसे दुर्वासा मुनि को बिस्तर पर अपाहिज पड़े देखकर कलेजा मुंह को आता है। अब उसे गुस्सा आता है तो सिर्फ उसके होंठ फड़कते हैं, नथुने फूलते हैं, आंखों में पानी भर आता है, बस ! या फिर बिस्तर से ही लाठी उठाकर अपनी पत्नी को डराने की कोशिश करता है।
इधर बीमार पति की सुश्रूषा और उधर बैंक में मुंशीगीरी। इसके अलावा जिद में आंसू बहाती हुई तथा कोने में बैठी हुई पांच वर्ष की बेटी। इन सभी के कारण पत्नी बौखला जाती है। उसके बाल बिखरे रहते हैं। पति से ‘तुम्हारी झूठी शान में आग लगे’ कहते हुए उसने अपनी बेटी के मुंह को इस कदर दबा दिया था कि होंठों से खून बह निकला। ऐसी स्थिति में कृष्णप्पा का मन निरासक्त हो जाता है। जीवनी लिखने के लिए हर रोज आने वाले भोले-भाले को वह आपबीती सुनाने लगता है। अपनी वर्तमान स्थित को स्पष्ट करने के लिए वह जो कुछ कहता है, युवा नागेश उसे कितनी गहराई से समझ पाता है। इस बात की कृष्णप्पा को शायद परवाह नहीं रहती।
कृष्णप्पा लड़कपन में चरवाहा था। कन्धे पर कम्बल और हाथों में लाठी तथा बांसुरी लिये अपने गांव के मवेशियों को चराने की बात वह इस ढंग से कहता मानो उसमें केवल उसी की समझ में आने वाला कोई अर्थ छिपा है। कहा नहीं जा सकता कि मृत्यु शैया पर पड़े हुए इस आदमी को अपनी पिछली जिन्दगी में कभी-कभी दिव्यत्व में प्रवेश करने की बात के लिए क्या महसूस होता होगा या इस पर विश्वास कर लेना उसकी मौजूदा हीन दशा पर विजय पाने के लिए आवश्यक था ! कृष्णप्पा निरीश्वरवादी था। इसके अलावा वह कबीर, अल्लम, नानक, मीरा, परमहंस, जैसे दैवी-पागलों की किसी आत्मीय की तरह प्रशंसा करता, हंसी उड़ाता और उनके बारे में टिप्पणियां करता रहता। इसलिए उसका मूल धरातल क्या था, बता पाना कठिन है।
लड़कपन में वह बड़े सवेरे मवेशियों को घरों से खुलवा कर नदी के किनारे के पहाड़ी मैदानों में चरने के लिए छोड़ देता और शाम के समय उन्हें हांक कर वापस घरों में छोड़ आता। चरते हुए मवेशियों को पेड़ के नीचे बैठकर अलसायी आंखों से देखते हुए, बांसुरी पर अपने मन की धुन बजाते हुए उन दिनों वह क्या सोचा करता था-इस बात को याद करने पर आंखों के सामने एक घटना घूम जाती है। उस घटना को बताने से पहले कृष्णप्पा हंसता, ‘‘यह न समझना कि मैं उन दिनों सुखी था। बागों में हरियाली दिखी तो समझो मेरी दुर्गत हुई। ढोर-मवेशी पागल बनकर बागों में घुस जाते थे। मैं अकेला ही सिरफिरे की भांति उन्हें हांक कर बाहर निकालता और फिर हार कर बैठ जाता। धुआंधार बरसात होती रहती। ऐसा लगता कि मुझे सांप सूंघ गया हो। तब पीठ की ऐसी मरम्मत होती थी, भैया...।’’ फिर वह उन दिनों की दहला देने वाली पिटाई का दर्द आंखों से नकल करते बताता। इस बात की याद के साथ ही उसे महेश्वरय्या की याद हो आती है जिन्होंने उसे चरवाहे की जिन्दगी से मुक्ति दिलवायी थी।
महेश्वरय्या कौन और कहां के रहने वाले थे, इसका कुछ पता नहीं। यही समझ लीजिए कि जिस गांव में जा पहुंचे वहीं घर-बार जोड़ लिया। रहते तो अकेले ही थे, फिर भी रसोइया साथ रखते थे। केवल अपने कपड़े खुद धोते थे। उनकी जबानी कालिदास की संस्कृत सुननी चाहिए। हिन्दुस्तानी संगीत सुनना चाहिए। बड़े रसिक आदमी पान से लाल रंगे रहने वाले होंठों पर नीचे झुकी मूंछें, कानों में चमकती हुई हीरे की बुंदकियां, बन्द गले का कोट, सफेद कांछेदार धोती, हाथ में चांदी की मूठ वाला बेंत, आंखों में प्रशांत भाव आदि बातों का ब्यौरा देते हुए कृष्णप्पा बताता है कि वे एक महान वैरागी थे।
उन्होंने साफ-साफ बताया तो नहीं था, पर कृष्णप्पा का अनुमान है कि अपनी पत्नी का किसी से यारना होने की भनक मिली तो महेश्वरय्या ने घर छोड़ दिया था। लखपति आदमी। पत्नी के लिए कुछ मिल्कियत छोड़ बाकी पूंजी बैंक में रखकर वह निरासक्त की तरह गांव-गांव भटकते रहते थे। हमेशा पढ़ते रहते थे। कृष्णप्पा को उनके त्रिकालज्ञानी होने का विश्वास था। महेश्वरय्या किसी के यहां आकर बैठ गये तो सहसा ‘भो ऽ’ कह दिया करते थे। उस समय उनके चेहरे पर एक प्रकार की विचित्रता दिखायी देती थी। उन्हें निमंत्रित करने वाले लाख अनुरोध, करें, कभी मुंह नहीं खोलेंगे। आगामी अनर्थ का उन्हें पता चला जाता था। बाद में ऐसी बातें वे कृष्णप्पा के कान में कहने लगे। उनसे भेंट होने पर लोग डर जाते कि कहीं वे ‘भो ऽ’ न कह दें। उनके मुंह से ‘भो’ निकले बिना रहता भी नहीं। इसलिए जब कोई उन्हें बुलाता तो वे कह देते, ‘‘पता नहीं, उस सज्जन के लिए कैसा अनर्थ ताक में बैठा है ! मैं उसके घर नहीं जाता।’’
भावी अनर्थ को देखकर ‘भो ऽ’ कहनेवाले महेश्वरय्या की दिक्कत यह थी कि उन्हें भविष्य में भलाई दिखती ही बहुत कम थी। एकमात्र कृष्णप्पा के लिए उन्होंने भलाई देखी थी। वह सन्दर्भ इस प्रकार है :
मैली चड्डी और गंजी पहने नदी-किनारे के पीपल के नीचे कृष्णप्पा बैठा था। कटाई खत्म हो चुकने के कारण मवेशियों का खेतों में घुसने का डर अब नहीं रहा था। नदी का कलकल निनाद और मवेशियों के गले की घंटियों की आवाज जब कानों में पड़ी तो शायद कृष्णप्पा हर्षित हुआ होगा। हर रोज से भी अधिक हर्षित हुआ होगा। बांसुरी बजाने के बदले उसका मन ‘कुमारव्यास भारत’ के छंद गाने को हुआ। चार वर्षों तक स्कूल जाकर भी कृष्णप्पा ने ‘महाभारत’ खुद पढ़ कर नहीं सीखा था, बल्कि अपने मास्टर जोयिस जी को कभी-कभार पाठ करते सुन कर सीखा था। वह भावविभोर होकर गाने लगा। उसकी बस्ती के पास वाले किसी गांव में महेश्वरय्या जी ने अड्डा जमाया हुआ था। उस समय वह नदी में अपना कोट धोने आये थे। ताज्जुब है कि वे इसी जगह क्यों आये ? उस दिन सवेरे जब वे बाजार से गुजर रहे तो एक नीम-पागल अवकाश प्राप्त स्कूल-मास्टर ने रोककर उनसे कोट मांगा था। ‘‘दूंगा। किन्तु पहना हुआ है न ? धोकर दूंगा।’’ उन्होंने यह जवाब देकर साबुन खरीदा और सीधे नदी के इस घाट पर आ गये। कम-से-कम दो मील का फासला तो होगा ही-बाजार और इसी नदी के बीच।
गाने वाले लड़के के सामने पहुंचकर महेश्वरय्या ने ‘भो ऽ’ कहा। कृष्णप्पा ने मारे शर्म के गाना रोक दिया। कहीं दूर नजर गड़ाये और हाथ में गीला कोट पकड़े महेश्वरय्या ने कहा, ‘‘बच्चे ! मवेशियों को गोठ में पहुंचाकर शाम को मेरी यहीं प्रतीक्षा करना।’’ इसके बाद उन्होंने कोट को निचोड़ा और वहां से चले गये। उस समय वह पीपल के नीचे बैठा था। सामने वाले अमरूद के पेड़ पर दो पंचरंगी सुग्गों के रहने की बात कृष्णप्पा याद कर लेता है। वह कहा करता है कि उस पेड़ पर मैंने अजनबी रंगों वाले एक पंक्षी को देखा था।
शाम के समय कृष्णप्पा उनकी प्रतीक्षा में बैठा था। बेंत घुमाते हुए महेश्वरय्या ने कहा, ‘‘अरे भोंदू बच्चे ! क्या आज तक तुझे पता ही नहीं चला कि तू कौन है ? चल मेरे साथ।’’ यह कहकर वे सीधे कृष्णप्पा के घर गये। कृष्णप्पा के पिता नहीं थे। मां अपने भाई के घर भाभी के ताने सुनती हुई, रोज के कष्ट उठाती हुई, मवेशियों के लिए सानी करती हुई और धूड़े के लिए फूस ढो-ढो कर जी रही थी। उंगलियों में अंगूठियां हीरे की बुंदकी, चांदी की मूठ वाला बेंत-इन्हें देखकर ही कृष्णप्पा का मामा भौचक्क रह गया। महेश्वरय्या ने उसे आड़े हाथों लिया, ‘‘कैसे हेंकड़ लोग हो तुम ! घर का हीरा तुम्हें दीख ही नहीं पड़ा !’’ यह बात कह कर उन्हें पैसा दिया और कृष्णप्पा को दस मील दूर गांव के एक स्कूल के होस्टल में भर्ती कराया। इस प्रकार बी.ए. तक कृष्णप्पा की पढ़ाई हुई। कृष्णप्पा पिछली बात फिर याद करता है।
आत्मीयता बढ़ने के बाद भी महेश्वरय्या अजीब व्यक्ति बने रहे थे। ‘जब कभी मुझ पर मुसीबत आती, वे स्वयं प्रकट हो जाते थे। मैं यदि जेल गया तो वे हाजिर। इसी तरह ज्वर-ताप भी चढ़ जाये तो हाजिर। जिस तरह वे किसी गांव में आकर डेरा डालते, उसी भांति उस गांव को छोड़ कर चले भी जाते। घर के बर्तन-भांड़ों सहित सभी कुछ किसी न किसी को देकर। बड़े अजीब आदमी। मुझे आज तक पता नहीं चला कि वे किस जाति के थे, उनका गोत्र क्या था। शायद वे ब्राह्मण या लिंगायत हों, क्योंकि मेरा मांस खाना छोड़ देने से उन्हें सन्तोष हुआ था। मेरा तो यही अनुमान है। कुलीन स्त्रियों के प्रति ऐसा गौरव-भाव था कि उनकी तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखते। किन्तु तवायफों के लिए बड़ी ललक थी। संस्कृत का कोई ऐसा छिछोरा श्लोक नहीं था, जो उन्हें याद न हो। महाभाग, उन्हें राजनीति में तनिक भी रुचि नहीं थी।’’
उन्होंने कहा था, ‘‘तुझे हर मुसीबत झेल कर भी अपने ही गांव में बढ़ना होगा।’’ कृष्णप्पा अपने गांव के पास वाले शहर में बढ़ा भी। महेश्वरय्या द्वारा भेजी जाने वाली रकम से गांव में होने वाली अवहेलना समाप्त नहीं हुई। गरीब घराने का लड़का जो ठहरा ! जब वह हाईस्कूल में पढ़ता था, तब होस्टल का वार्डन-जो एक बड़ा जमींदार था-कृष्णप्पा को बड़ी नफरत से देखा करता था। कृष्णप्पा की चाल-ढाल हर किसी की आँखों को किरकिरानेवाली थी। कृष्णप्पा कई प्रसंगों का उल्लेख करके बताता कि जब वर्तमान अवस्था और वांछित अवस्था में अन्तर होता है, तब मुखौटे को असली चेहरे में बदलने के पहले कैसे-कैसे संकट झेलने पड़ते हैं ! अब मरते समय भी वह ऐसे संकट से मुक्त नहीं था। उसकी निरीह पत्नी डांट खाने के बाद चौके में सिरके बाल बिखराकर कह रही थी, ‘‘बड़े-आये नेतागीरी दिखाने वाले ! कहते हैं, क्रांति करेंगे ! बीवी को पीटना तो पहले छोड़ दें।’’ इस तरह वह कुढ़ने लगती है तो कृष्णप्पा खिन्न हो जाता है। अपने अहंकार को संयम में रखने के लिए महेश्वरय्या ने जो हास्य-प्रवृत्ति सिखायी थी, क्या वह इस कांतिहीन देह को छोड़कर चली गयी है ? इसी बात को सोचकर वह हैरान होता रहता है।
होस्टल के वार्डन ने एक बार कृष्णप्पा की साधारण-सी गलती के लिए उसे पीटने की जुर्रत थी। हाथ में बेंत लेकर होंठ चबाता हुआ लड़कों के सामने वह रौद्रावतार बना हुआ था। लगता था कि वह उसे जाने से ही मर डालेगा। उभरे गाल, धंसी आंखें, चेचक के दागों से भरा चेहरा, ठिंगने कद का वार्डन स्वभावतः बड़ा डरपोक था। उसकी कर्कश गर्जना सुनकर उसे घिन हुई। कृष्णप्पा को अपना लीडर मानने वाले सभी लड़के हैरान थे। तब उसने वार्डन की ओर अपनी पीठ घुमायी तथा चड्डी खोल दी। चूदर के पके लाल गोल फोड़े की उंगली से दिखा उसने गरदन को घुमाकर कहा, ‘‘साब इस फोड़े को छोड़ कर जहां चाहे मारिये।’’ और फिर वह पीठ के बल झुक गया था। सभी छात्र खिलखिला कर हंस पड़े। गुस्से से कांपता हुआ वार्डन तिरस्कार के डर से चला गया था।
अमीरी और पद की चालों को कृष्णप्पा ने इस प्रकार कई बार मात दी है।
महेश्वरय्या कहा करते थे, ‘‘तुझमें एक बबर है, रे !’’ वह दुर्गा के परम भक्त थे। कभी-कभी सहसा ऐसी जगह की तलाश करके-जहां उन्हें कोई पहचान न सके-दुर्गा की आराधना में बैठ जाते। दिन-रात निरन्तर चलने वाली इस आराधाना ने महीनों तक उन्हें एक ही जगह बांध भी रखा था। ऐसी एक आराधना कृष्णप्पा के सम्मुख भी हुई थी। महेश्वरय्या ने कृष्णप्पा को आत्मीयता से कहा था, ‘‘शेर की सवारी करना रे !’’ लाल रेशमी धोती पहने, माथे पर सिन्दूर का बड़ा टीका लगाये और गीले लम्बे बालों को कंधे पर बिखराये हुए इस देवी के उपासक की चमकती आंखों को कृष्णप्पा ने संशय की नजर से देखा था। उससे किसी भी देवता की पूजा संभव नहीं थी। उसके मुखौटे को असली चेहरे में बदलने वाले महेश्वरय्या का विश्वास भी उसे चाहिए था। इसलिए एक दिव्यत्व को अपने में आत्मसात् करने के लिए वह संशय से मुक्त होकर तथा तन्मया से उनकी बातें सुना करता था। कृष्णप्पा की प्रगति की खातिर महेश्वरय्या उसे छेड़ने से भी बाज नहीं आते थे। सदा आइने के सामने खड़े होकर कंघी करने या मुहांसे फोड़ते रहने वाले कृष्णप्पा की आत्मरति को उन्होंने इसी प्रकार फटकार कर छुड़वाया था।
हंसते या गरजते हुए कृष्णप्पा का भीतरी शेर छलांगें भरता था। दुष्कर्मियों को कीड़े-मकोड़े होने का अहसास कराने लायक शक्ति कृष्णप्पा ने धीरे-धीरे हासिल की थी। राज्य में विपक्ष का वह नामी लीडर जो था। उसका मुंह बन्द करने के लिए कमीने और पाजी लोग कैसी पैंतरेबाजी करते थे ! यही कारण है कि कृष्णप्पा को होंठ काट कर ही जीना पड़ा था।
शायद इसीलिए समाज के सामने अपने आपको मुखरित न करने वाले महेश्वरय्या जैसे आत्माराम कृष्णप्पा के मनभावन बने रहे। सड़न ही जिसका स्वभाव हो, ऐसे नित्य जीवन में परिपूर्ण शुद्धि को ढूँढ़ना ही बेढंगापन है।
इस प्रश्न ने भी उसे सताया है। बजट, नौकरी रिश्वत, तरक्की, तबादला, ठेका इत्यादि में डुबोने वाली राजनीति से ऊपर उठने के लिए कृष्णप्पा सदा प्रयत्न करता रहा है। क्रांति का सपना देखता रहा है। किन्तु उसका क्रांतिकारित्व धीरे-धीरे पैबन्द लगाने जैसा हो गया है। अपने को इन सबसे मुक्त रखने वाले महेश्वरय्या का भी इधर बहुत कम आना हुआ है। या तो झगड़ालू और अहंकारी बनना होगा, या समाज से मुंह फेरा हुआ आत्माराम। लोभियों के साथ बेदरकार बातें करके कृष्णप्पा खुश होता है। इस प्रकार खुश होने की अपनी आदत से वह दहल भी जाता है। अपने गुस्से से इर्द-गिर्द के वातावरण में जब तनिक भी परिवर्तन नहीं कर पाता तो दिल को यह तसल्ली दे लेता है कि गुस्से को एक आदत बनाये बिना कोई चारा नहीं। क्रोध, क्षोभ, प्रेम की तीव्रता की अभिव्यक्ति के लिए कबीर, अल्मम जैसे नीम-पागलों की कविताएं राजनीति से अधिक उत्तम माध्यम लगती हैं।
किन्तु कृष्णप्पा साहित्यिक बनने के चक्कर में हारा हुआ है। एक बार सफेद कागज पर गोल-मटोल अक्षरों में अधूरा वाक्य लिखकर उसे पूरा नहीं कर पाया था-‘‘कटाई के दिनों में सुबह के समय करिया नामक एक मेहतर सिर पर गू की बाल्टी रखकर जब निकला...’’ यह वाक्य पूर्णविराम न पाकर अधूरा रह गया था। क्या उसे पूरा कर पाना संभव था ? इस एक वाक्य से ही उसके दिल में दुनिया की गन्दगी को जला डालने वाला भभकते अंगारे जैसा गुस्सा समा गया था। इस प्रकार लिख पाना तभी संभव था, जब उसके जीवन में ऐसे गुस्से की कोई मिसाल मौजूद हो, या ऐसे गुस्से को सच बनाने की वाक् सिद्धि हो। वह कवियों की निन्दा किया करता था। जिनसे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं वे ही लोग ऐसी बातों में अपनी चुल मिटाते हैं। कृष्णप्पा में इस जलन को देखकर महेश्वरय्या ने कहा था, ‘‘जलाने की ताकत है तो जला दे, यार ! वाग्देवी की निन्दा मत कर।’’ महेश्वरय्या की राय में जहां-तहां गुस्सा उगलने के बदले बातों के द्वारा अन्तर की अग्नि-जिह्वा बनाकर उसे जलाना ही श्रेष्ठ है। किन्तु कृष्णप्पा जानता था कि उसकी बातें घमंड से चिपकी रह जाती हैं। पूरी देह से अर्बुद की भांति बाहर निकलती हैं।
केंचुल छोड़ते समय जैसी वेदना होती है, उसी तरह की वेदना से कृष्णप्पा कभी-कभी पगला जाता रहा है। उन दिनों वह इंटरमीडिएट कॉलेज में पढ़ता था। होस्टल में उसके खाने और आवास का मुफ्त प्रबन्ध था। उम्र शायद पच्चीस रही होगी। उसकी जन्मतिथि का भला ठीक-ठीक पता किसको था ? पूछने पर अनपढ़ मां बताती कि जिस वर्ष बाढ़ आयी, उस वर्ष कृष्णप्पा पैदा हुआ था। फ्री-बोर्डर होने पर भी होस्टल के सभी धनी लड़कों का वही लीडर था। चाहे किसी के पास अलग कमरा न हो, किन्तु उसके लिए एक अलग कमरा सभी लड़कों ने मिल कर छोड़ दिया था। एक बार कृष्णप्पा को तेज ज्वर चढ़ गया। गुरप्पा नामक एक धनी लड़का उसका अनुयायी था। जब वह कृष्णप्पा की सुश्रुषा में लगा था, तब बड़े तेज ज्वर में कृष्णप्पा ने कहा, ‘‘मुझे एक गद्दा बनवा कर दे।’’ कृष्णप्पा जानता था कि गुरप्पा कुछ कंजूस स्वभाव का है। गद्दा कैसा हो, इसका विवरण दिया, ‘‘अरे ओ गुरप्पा ! कंजूसी मत कर। गद्दे के चारों ओर अलग कपड़ा लगवा कर किनारा बंधवाना। गद्दा बक्से जैसा हो। समझा ?’’ गुरप्पा ने ‘हुं’ कहा और बाद में गद्दा बनवा लाया। कृष्णप्पा को अभी ज्वर था। अंट-संट बड़बड़ाते हुए भी उसने नये गद्दे के किनारों को टटोलकर देखा था।
‘‘सांप के फन की तरह नोकदार है न यार ! बक्से जैसा होना चाहिए, बक्से जैसा।’’ पलकें खोल न पाने पर भी गुरप्पा का चेहरा देखने के लिए उसने उठने की कोशिश की थी जब गुरप्पा ने बताया कि उसका मनपसन्द गद्दा ही बनवाया गया है तो उसे बड़ा गुस्सा आया। वह ‘गद्दा नहीं चाहिए।’ कहकर जमीन पर ही सोता रहा। गुरप्पा ने बहुत मिन्नतें कीं कि ठंड लग जायेगी, किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। कुछ माह पहले इसी भांति गुरप्पा को भी ज्वर चढ़ा था। तब कृष्णप्पा उसके माथे पर गीली पट्टी रखते हुए बगल में ही बैठा रहता था। उसकी कै को धो पोंछ देता था। यही वजह है कि गुरप्पा के मन में कृष्णप्पा की पूजा करने लायक भक्ति उत्पन्न हुई थी। फिर भी कंजूस गुरप्पा को अच्छा गद्दा बनवाना नाहक फिजूलखर्ची लगा होगा। सरसाम में पड़े व्यक्ति की बातों को क्यों व्यर्थ का महत्व दे, यह विचार मन में आने पर धोखा देने की जुर्रत भी की होगी। इस ओछेपन ने कृष्णप्पा को भी बहुत दुखाया होगा। बाद में गुरप्पा ने बड़ी दीनता से गद्दा बनवा कर लाख याचना की, किन्तु कृष्णप्पा उस पर सोया नहीं। अपने पुराने बिस्तर पर भी नहीं सोया। ताड़ की बोरी पर सोता रहा। मुंह लटकाये गुरप्पा उसकी बगल में ही बैठा रहा। फिर भी उससे बातें करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई।
लड़कपन में कृष्णप्पा बहुत अच्छा तैराक था। भरी हुई नदी के एक किनारे पर गोता लगाकर झट दूसरे किनारे पहुंच जाता था। एक बार की बात है कि इसी तरह तैरते हुए कृष्णप्पा नदी का लगभग आधा पाट पार कर चुका था कि उसे लगा, उसके हाथ-पैर सुन्न पड़ गये हैं। अपने से दो हाथ पीछे तैर रहे साथी से कहा, ‘‘यार, मैं डूब रहा हूं। तू लौट जा !’’ वह बड़ी मुश्किल से इतनी ही बात कह पाया और गोता खा गया। तब हनुमन्नायक ने बड़ी मेहनत से उसे बचाया था।
उस दिन की घटना को याद करके लकवाग्रस्त कृष्णप्पा की दोनों बड़ी-बड़ी आंखों में आंसू उमड़ पड़ते हैं। उस एक पल में जब यकीन हो गया कि वह मर ही जायेगा, तब वह कैसा निर्विकार बन गया था।
हमेशा नाक पर चढ़े रहने वाले कृष्णप्पा के गुस्से की कहानी कुछ अलग है। उन दिनों वह हाईस्कूल में पढ़ता था। एक बार अपने मित्र की घड़ी लाने के लिए घड़ीसाज के यहां पहुंचा। घड़ीसाज कृष्णप्पा को जानता था और उसके साथ खासी अन्तरंगता भी थी। किंतु कंगले कृष्णप्पा की ठसक को लेकर उसके मन में जलन थी। ‘‘तुम पर भरोसा करके घड़ी कैसे दी जा सकती है ?’’ एक आंख पर दूरबीन चढ़ाए व टेढ़ी नजर से देखते हुए घड़ीसाज ने कहा। तब कृष्णप्पा ने जवाब दिया था, ‘‘देखो, फिर कभी ऐसा कुछ कहा तो यह दूरबीन चकनाचूर हो जायेगी, समझे ?’’ इस पर घड़ीसाज ने चिमटी से कुछ बिखेरते हुए कहा था, ‘‘दलिदर का गुस्सा दाढ़ पर बला।’’ बात मुंह से निकली ही थी कि कृष्णप्पा मरम्मत के औजार और खुले पुर्जों वाली घड़ियों के शीशे के बक्से को धड़ाम से जमीन पर पटककर चल दिया था। उसके गुस्से से कैसे कैसे लोग थर्रा जाते थे।
ऐसे दुर्वासा मुनि को बिस्तर पर अपाहिज पड़े देखकर कलेजा मुंह को आता है। अब उसे गुस्सा आता है तो सिर्फ उसके होंठ फड़कते हैं, नथुने फूलते हैं, आंखों में पानी भर आता है, बस ! या फिर बिस्तर से ही लाठी उठाकर अपनी पत्नी को डराने की कोशिश करता है।
इधर बीमार पति की सुश्रूषा और उधर बैंक में मुंशीगीरी। इसके अलावा जिद में आंसू बहाती हुई तथा कोने में बैठी हुई पांच वर्ष की बेटी। इन सभी के कारण पत्नी बौखला जाती है। उसके बाल बिखरे रहते हैं। पति से ‘तुम्हारी झूठी शान में आग लगे’ कहते हुए उसने अपनी बेटी के मुंह को इस कदर दबा दिया था कि होंठों से खून बह निकला। ऐसी स्थिति में कृष्णप्पा का मन निरासक्त हो जाता है। जीवनी लिखने के लिए हर रोज आने वाले भोले-भाले को वह आपबीती सुनाने लगता है। अपनी वर्तमान स्थित को स्पष्ट करने के लिए वह जो कुछ कहता है, युवा नागेश उसे कितनी गहराई से समझ पाता है। इस बात की कृष्णप्पा को शायद परवाह नहीं रहती।
कृष्णप्पा लड़कपन में चरवाहा था। कन्धे पर कम्बल और हाथों में लाठी तथा बांसुरी लिये अपने गांव के मवेशियों को चराने की बात वह इस ढंग से कहता मानो उसमें केवल उसी की समझ में आने वाला कोई अर्थ छिपा है। कहा नहीं जा सकता कि मृत्यु शैया पर पड़े हुए इस आदमी को अपनी पिछली जिन्दगी में कभी-कभी दिव्यत्व में प्रवेश करने की बात के लिए क्या महसूस होता होगा या इस पर विश्वास कर लेना उसकी मौजूदा हीन दशा पर विजय पाने के लिए आवश्यक था ! कृष्णप्पा निरीश्वरवादी था। इसके अलावा वह कबीर, अल्लम, नानक, मीरा, परमहंस, जैसे दैवी-पागलों की किसी आत्मीय की तरह प्रशंसा करता, हंसी उड़ाता और उनके बारे में टिप्पणियां करता रहता। इसलिए उसका मूल धरातल क्या था, बता पाना कठिन है।
लड़कपन में वह बड़े सवेरे मवेशियों को घरों से खुलवा कर नदी के किनारे के पहाड़ी मैदानों में चरने के लिए छोड़ देता और शाम के समय उन्हें हांक कर वापस घरों में छोड़ आता। चरते हुए मवेशियों को पेड़ के नीचे बैठकर अलसायी आंखों से देखते हुए, बांसुरी पर अपने मन की धुन बजाते हुए उन दिनों वह क्या सोचा करता था-इस बात को याद करने पर आंखों के सामने एक घटना घूम जाती है। उस घटना को बताने से पहले कृष्णप्पा हंसता, ‘‘यह न समझना कि मैं उन दिनों सुखी था। बागों में हरियाली दिखी तो समझो मेरी दुर्गत हुई। ढोर-मवेशी पागल बनकर बागों में घुस जाते थे। मैं अकेला ही सिरफिरे की भांति उन्हें हांक कर बाहर निकालता और फिर हार कर बैठ जाता। धुआंधार बरसात होती रहती। ऐसा लगता कि मुझे सांप सूंघ गया हो। तब पीठ की ऐसी मरम्मत होती थी, भैया...।’’ फिर वह उन दिनों की दहला देने वाली पिटाई का दर्द आंखों से नकल करते बताता। इस बात की याद के साथ ही उसे महेश्वरय्या की याद हो आती है जिन्होंने उसे चरवाहे की जिन्दगी से मुक्ति दिलवायी थी।
महेश्वरय्या कौन और कहां के रहने वाले थे, इसका कुछ पता नहीं। यही समझ लीजिए कि जिस गांव में जा पहुंचे वहीं घर-बार जोड़ लिया। रहते तो अकेले ही थे, फिर भी रसोइया साथ रखते थे। केवल अपने कपड़े खुद धोते थे। उनकी जबानी कालिदास की संस्कृत सुननी चाहिए। हिन्दुस्तानी संगीत सुनना चाहिए। बड़े रसिक आदमी पान से लाल रंगे रहने वाले होंठों पर नीचे झुकी मूंछें, कानों में चमकती हुई हीरे की बुंदकियां, बन्द गले का कोट, सफेद कांछेदार धोती, हाथ में चांदी की मूठ वाला बेंत, आंखों में प्रशांत भाव आदि बातों का ब्यौरा देते हुए कृष्णप्पा बताता है कि वे एक महान वैरागी थे।
उन्होंने साफ-साफ बताया तो नहीं था, पर कृष्णप्पा का अनुमान है कि अपनी पत्नी का किसी से यारना होने की भनक मिली तो महेश्वरय्या ने घर छोड़ दिया था। लखपति आदमी। पत्नी के लिए कुछ मिल्कियत छोड़ बाकी पूंजी बैंक में रखकर वह निरासक्त की तरह गांव-गांव भटकते रहते थे। हमेशा पढ़ते रहते थे। कृष्णप्पा को उनके त्रिकालज्ञानी होने का विश्वास था। महेश्वरय्या किसी के यहां आकर बैठ गये तो सहसा ‘भो ऽ’ कह दिया करते थे। उस समय उनके चेहरे पर एक प्रकार की विचित्रता दिखायी देती थी। उन्हें निमंत्रित करने वाले लाख अनुरोध, करें, कभी मुंह नहीं खोलेंगे। आगामी अनर्थ का उन्हें पता चला जाता था। बाद में ऐसी बातें वे कृष्णप्पा के कान में कहने लगे। उनसे भेंट होने पर लोग डर जाते कि कहीं वे ‘भो ऽ’ न कह दें। उनके मुंह से ‘भो’ निकले बिना रहता भी नहीं। इसलिए जब कोई उन्हें बुलाता तो वे कह देते, ‘‘पता नहीं, उस सज्जन के लिए कैसा अनर्थ ताक में बैठा है ! मैं उसके घर नहीं जाता।’’
भावी अनर्थ को देखकर ‘भो ऽ’ कहनेवाले महेश्वरय्या की दिक्कत यह थी कि उन्हें भविष्य में भलाई दिखती ही बहुत कम थी। एकमात्र कृष्णप्पा के लिए उन्होंने भलाई देखी थी। वह सन्दर्भ इस प्रकार है :
मैली चड्डी और गंजी पहने नदी-किनारे के पीपल के नीचे कृष्णप्पा बैठा था। कटाई खत्म हो चुकने के कारण मवेशियों का खेतों में घुसने का डर अब नहीं रहा था। नदी का कलकल निनाद और मवेशियों के गले की घंटियों की आवाज जब कानों में पड़ी तो शायद कृष्णप्पा हर्षित हुआ होगा। हर रोज से भी अधिक हर्षित हुआ होगा। बांसुरी बजाने के बदले उसका मन ‘कुमारव्यास भारत’ के छंद गाने को हुआ। चार वर्षों तक स्कूल जाकर भी कृष्णप्पा ने ‘महाभारत’ खुद पढ़ कर नहीं सीखा था, बल्कि अपने मास्टर जोयिस जी को कभी-कभार पाठ करते सुन कर सीखा था। वह भावविभोर होकर गाने लगा। उसकी बस्ती के पास वाले किसी गांव में महेश्वरय्या जी ने अड्डा जमाया हुआ था। उस समय वह नदी में अपना कोट धोने आये थे। ताज्जुब है कि वे इसी जगह क्यों आये ? उस दिन सवेरे जब वे बाजार से गुजर रहे तो एक नीम-पागल अवकाश प्राप्त स्कूल-मास्टर ने रोककर उनसे कोट मांगा था। ‘‘दूंगा। किन्तु पहना हुआ है न ? धोकर दूंगा।’’ उन्होंने यह जवाब देकर साबुन खरीदा और सीधे नदी के इस घाट पर आ गये। कम-से-कम दो मील का फासला तो होगा ही-बाजार और इसी नदी के बीच।
गाने वाले लड़के के सामने पहुंचकर महेश्वरय्या ने ‘भो ऽ’ कहा। कृष्णप्पा ने मारे शर्म के गाना रोक दिया। कहीं दूर नजर गड़ाये और हाथ में गीला कोट पकड़े महेश्वरय्या ने कहा, ‘‘बच्चे ! मवेशियों को गोठ में पहुंचाकर शाम को मेरी यहीं प्रतीक्षा करना।’’ इसके बाद उन्होंने कोट को निचोड़ा और वहां से चले गये। उस समय वह पीपल के नीचे बैठा था। सामने वाले अमरूद के पेड़ पर दो पंचरंगी सुग्गों के रहने की बात कृष्णप्पा याद कर लेता है। वह कहा करता है कि उस पेड़ पर मैंने अजनबी रंगों वाले एक पंक्षी को देखा था।
शाम के समय कृष्णप्पा उनकी प्रतीक्षा में बैठा था। बेंत घुमाते हुए महेश्वरय्या ने कहा, ‘‘अरे भोंदू बच्चे ! क्या आज तक तुझे पता ही नहीं चला कि तू कौन है ? चल मेरे साथ।’’ यह कहकर वे सीधे कृष्णप्पा के घर गये। कृष्णप्पा के पिता नहीं थे। मां अपने भाई के घर भाभी के ताने सुनती हुई, रोज के कष्ट उठाती हुई, मवेशियों के लिए सानी करती हुई और धूड़े के लिए फूस ढो-ढो कर जी रही थी। उंगलियों में अंगूठियां हीरे की बुंदकी, चांदी की मूठ वाला बेंत-इन्हें देखकर ही कृष्णप्पा का मामा भौचक्क रह गया। महेश्वरय्या ने उसे आड़े हाथों लिया, ‘‘कैसे हेंकड़ लोग हो तुम ! घर का हीरा तुम्हें दीख ही नहीं पड़ा !’’ यह बात कह कर उन्हें पैसा दिया और कृष्णप्पा को दस मील दूर गांव के एक स्कूल के होस्टल में भर्ती कराया। इस प्रकार बी.ए. तक कृष्णप्पा की पढ़ाई हुई। कृष्णप्पा पिछली बात फिर याद करता है।
आत्मीयता बढ़ने के बाद भी महेश्वरय्या अजीब व्यक्ति बने रहे थे। ‘जब कभी मुझ पर मुसीबत आती, वे स्वयं प्रकट हो जाते थे। मैं यदि जेल गया तो वे हाजिर। इसी तरह ज्वर-ताप भी चढ़ जाये तो हाजिर। जिस तरह वे किसी गांव में आकर डेरा डालते, उसी भांति उस गांव को छोड़ कर चले भी जाते। घर के बर्तन-भांड़ों सहित सभी कुछ किसी न किसी को देकर। बड़े अजीब आदमी। मुझे आज तक पता नहीं चला कि वे किस जाति के थे, उनका गोत्र क्या था। शायद वे ब्राह्मण या लिंगायत हों, क्योंकि मेरा मांस खाना छोड़ देने से उन्हें सन्तोष हुआ था। मेरा तो यही अनुमान है। कुलीन स्त्रियों के प्रति ऐसा गौरव-भाव था कि उनकी तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखते। किन्तु तवायफों के लिए बड़ी ललक थी। संस्कृत का कोई ऐसा छिछोरा श्लोक नहीं था, जो उन्हें याद न हो। महाभाग, उन्हें राजनीति में तनिक भी रुचि नहीं थी।’’
उन्होंने कहा था, ‘‘तुझे हर मुसीबत झेल कर भी अपने ही गांव में बढ़ना होगा।’’ कृष्णप्पा अपने गांव के पास वाले शहर में बढ़ा भी। महेश्वरय्या द्वारा भेजी जाने वाली रकम से गांव में होने वाली अवहेलना समाप्त नहीं हुई। गरीब घराने का लड़का जो ठहरा ! जब वह हाईस्कूल में पढ़ता था, तब होस्टल का वार्डन-जो एक बड़ा जमींदार था-कृष्णप्पा को बड़ी नफरत से देखा करता था। कृष्णप्पा की चाल-ढाल हर किसी की आँखों को किरकिरानेवाली थी। कृष्णप्पा कई प्रसंगों का उल्लेख करके बताता कि जब वर्तमान अवस्था और वांछित अवस्था में अन्तर होता है, तब मुखौटे को असली चेहरे में बदलने के पहले कैसे-कैसे संकट झेलने पड़ते हैं ! अब मरते समय भी वह ऐसे संकट से मुक्त नहीं था। उसकी निरीह पत्नी डांट खाने के बाद चौके में सिरके बाल बिखराकर कह रही थी, ‘‘बड़े-आये नेतागीरी दिखाने वाले ! कहते हैं, क्रांति करेंगे ! बीवी को पीटना तो पहले छोड़ दें।’’ इस तरह वह कुढ़ने लगती है तो कृष्णप्पा खिन्न हो जाता है। अपने अहंकार को संयम में रखने के लिए महेश्वरय्या ने जो हास्य-प्रवृत्ति सिखायी थी, क्या वह इस कांतिहीन देह को छोड़कर चली गयी है ? इसी बात को सोचकर वह हैरान होता रहता है।
होस्टल के वार्डन ने एक बार कृष्णप्पा की साधारण-सी गलती के लिए उसे पीटने की जुर्रत थी। हाथ में बेंत लेकर होंठ चबाता हुआ लड़कों के सामने वह रौद्रावतार बना हुआ था। लगता था कि वह उसे जाने से ही मर डालेगा। उभरे गाल, धंसी आंखें, चेचक के दागों से भरा चेहरा, ठिंगने कद का वार्डन स्वभावतः बड़ा डरपोक था। उसकी कर्कश गर्जना सुनकर उसे घिन हुई। कृष्णप्पा को अपना लीडर मानने वाले सभी लड़के हैरान थे। तब उसने वार्डन की ओर अपनी पीठ घुमायी तथा चड्डी खोल दी। चूदर के पके लाल गोल फोड़े की उंगली से दिखा उसने गरदन को घुमाकर कहा, ‘‘साब इस फोड़े को छोड़ कर जहां चाहे मारिये।’’ और फिर वह पीठ के बल झुक गया था। सभी छात्र खिलखिला कर हंस पड़े। गुस्से से कांपता हुआ वार्डन तिरस्कार के डर से चला गया था।
अमीरी और पद की चालों को कृष्णप्पा ने इस प्रकार कई बार मात दी है।
महेश्वरय्या कहा करते थे, ‘‘तुझमें एक बबर है, रे !’’ वह दुर्गा के परम भक्त थे। कभी-कभी सहसा ऐसी जगह की तलाश करके-जहां उन्हें कोई पहचान न सके-दुर्गा की आराधना में बैठ जाते। दिन-रात निरन्तर चलने वाली इस आराधाना ने महीनों तक उन्हें एक ही जगह बांध भी रखा था। ऐसी एक आराधना कृष्णप्पा के सम्मुख भी हुई थी। महेश्वरय्या ने कृष्णप्पा को आत्मीयता से कहा था, ‘‘शेर की सवारी करना रे !’’ लाल रेशमी धोती पहने, माथे पर सिन्दूर का बड़ा टीका लगाये और गीले लम्बे बालों को कंधे पर बिखराये हुए इस देवी के उपासक की चमकती आंखों को कृष्णप्पा ने संशय की नजर से देखा था। उससे किसी भी देवता की पूजा संभव नहीं थी। उसके मुखौटे को असली चेहरे में बदलने वाले महेश्वरय्या का विश्वास भी उसे चाहिए था। इसलिए एक दिव्यत्व को अपने में आत्मसात् करने के लिए वह संशय से मुक्त होकर तथा तन्मया से उनकी बातें सुना करता था। कृष्णप्पा की प्रगति की खातिर महेश्वरय्या उसे छेड़ने से भी बाज नहीं आते थे। सदा आइने के सामने खड़े होकर कंघी करने या मुहांसे फोड़ते रहने वाले कृष्णप्पा की आत्मरति को उन्होंने इसी प्रकार फटकार कर छुड़वाया था।
हंसते या गरजते हुए कृष्णप्पा का भीतरी शेर छलांगें भरता था। दुष्कर्मियों को कीड़े-मकोड़े होने का अहसास कराने लायक शक्ति कृष्णप्पा ने धीरे-धीरे हासिल की थी। राज्य में विपक्ष का वह नामी लीडर जो था। उसका मुंह बन्द करने के लिए कमीने और पाजी लोग कैसी पैंतरेबाजी करते थे ! यही कारण है कि कृष्णप्पा को होंठ काट कर ही जीना पड़ा था।
शायद इसीलिए समाज के सामने अपने आपको मुखरित न करने वाले महेश्वरय्या जैसे आत्माराम कृष्णप्पा के मनभावन बने रहे। सड़न ही जिसका स्वभाव हो, ऐसे नित्य जीवन में परिपूर्ण शुद्धि को ढूँढ़ना ही बेढंगापन है।
इस प्रश्न ने भी उसे सताया है। बजट, नौकरी रिश्वत, तरक्की, तबादला, ठेका इत्यादि में डुबोने वाली राजनीति से ऊपर उठने के लिए कृष्णप्पा सदा प्रयत्न करता रहा है। क्रांति का सपना देखता रहा है। किन्तु उसका क्रांतिकारित्व धीरे-धीरे पैबन्द लगाने जैसा हो गया है। अपने को इन सबसे मुक्त रखने वाले महेश्वरय्या का भी इधर बहुत कम आना हुआ है। या तो झगड़ालू और अहंकारी बनना होगा, या समाज से मुंह फेरा हुआ आत्माराम। लोभियों के साथ बेदरकार बातें करके कृष्णप्पा खुश होता है। इस प्रकार खुश होने की अपनी आदत से वह दहल भी जाता है। अपने गुस्से से इर्द-गिर्द के वातावरण में जब तनिक भी परिवर्तन नहीं कर पाता तो दिल को यह तसल्ली दे लेता है कि गुस्से को एक आदत बनाये बिना कोई चारा नहीं। क्रोध, क्षोभ, प्रेम की तीव्रता की अभिव्यक्ति के लिए कबीर, अल्मम जैसे नीम-पागलों की कविताएं राजनीति से अधिक उत्तम माध्यम लगती हैं।
किन्तु कृष्णप्पा साहित्यिक बनने के चक्कर में हारा हुआ है। एक बार सफेद कागज पर गोल-मटोल अक्षरों में अधूरा वाक्य लिखकर उसे पूरा नहीं कर पाया था-‘‘कटाई के दिनों में सुबह के समय करिया नामक एक मेहतर सिर पर गू की बाल्टी रखकर जब निकला...’’ यह वाक्य पूर्णविराम न पाकर अधूरा रह गया था। क्या उसे पूरा कर पाना संभव था ? इस एक वाक्य से ही उसके दिल में दुनिया की गन्दगी को जला डालने वाला भभकते अंगारे जैसा गुस्सा समा गया था। इस प्रकार लिख पाना तभी संभव था, जब उसके जीवन में ऐसे गुस्से की कोई मिसाल मौजूद हो, या ऐसे गुस्से को सच बनाने की वाक् सिद्धि हो। वह कवियों की निन्दा किया करता था। जिनसे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं वे ही लोग ऐसी बातों में अपनी चुल मिटाते हैं। कृष्णप्पा में इस जलन को देखकर महेश्वरय्या ने कहा था, ‘‘जलाने की ताकत है तो जला दे, यार ! वाग्देवी की निन्दा मत कर।’’ महेश्वरय्या की राय में जहां-तहां गुस्सा उगलने के बदले बातों के द्वारा अन्तर की अग्नि-जिह्वा बनाकर उसे जलाना ही श्रेष्ठ है। किन्तु कृष्णप्पा जानता था कि उसकी बातें घमंड से चिपकी रह जाती हैं। पूरी देह से अर्बुद की भांति बाहर निकलती हैं।
केंचुल छोड़ते समय जैसी वेदना होती है, उसी तरह की वेदना से कृष्णप्पा कभी-कभी पगला जाता रहा है। उन दिनों वह इंटरमीडिएट कॉलेज में पढ़ता था। होस्टल में उसके खाने और आवास का मुफ्त प्रबन्ध था। उम्र शायद पच्चीस रही होगी। उसकी जन्मतिथि का भला ठीक-ठीक पता किसको था ? पूछने पर अनपढ़ मां बताती कि जिस वर्ष बाढ़ आयी, उस वर्ष कृष्णप्पा पैदा हुआ था। फ्री-बोर्डर होने पर भी होस्टल के सभी धनी लड़कों का वही लीडर था। चाहे किसी के पास अलग कमरा न हो, किन्तु उसके लिए एक अलग कमरा सभी लड़कों ने मिल कर छोड़ दिया था। एक बार कृष्णप्पा को तेज ज्वर चढ़ गया। गुरप्पा नामक एक धनी लड़का उसका अनुयायी था। जब वह कृष्णप्पा की सुश्रुषा में लगा था, तब बड़े तेज ज्वर में कृष्णप्पा ने कहा, ‘‘मुझे एक गद्दा बनवा कर दे।’’ कृष्णप्पा जानता था कि गुरप्पा कुछ कंजूस स्वभाव का है। गद्दा कैसा हो, इसका विवरण दिया, ‘‘अरे ओ गुरप्पा ! कंजूसी मत कर। गद्दे के चारों ओर अलग कपड़ा लगवा कर किनारा बंधवाना। गद्दा बक्से जैसा हो। समझा ?’’ गुरप्पा ने ‘हुं’ कहा और बाद में गद्दा बनवा लाया। कृष्णप्पा को अभी ज्वर था। अंट-संट बड़बड़ाते हुए भी उसने नये गद्दे के किनारों को टटोलकर देखा था।
‘‘सांप के फन की तरह नोकदार है न यार ! बक्से जैसा होना चाहिए, बक्से जैसा।’’ पलकें खोल न पाने पर भी गुरप्पा का चेहरा देखने के लिए उसने उठने की कोशिश की थी जब गुरप्पा ने बताया कि उसका मनपसन्द गद्दा ही बनवाया गया है तो उसे बड़ा गुस्सा आया। वह ‘गद्दा नहीं चाहिए।’ कहकर जमीन पर ही सोता रहा। गुरप्पा ने बहुत मिन्नतें कीं कि ठंड लग जायेगी, किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। कुछ माह पहले इसी भांति गुरप्पा को भी ज्वर चढ़ा था। तब कृष्णप्पा उसके माथे पर गीली पट्टी रखते हुए बगल में ही बैठा रहता था। उसकी कै को धो पोंछ देता था। यही वजह है कि गुरप्पा के मन में कृष्णप्पा की पूजा करने लायक भक्ति उत्पन्न हुई थी। फिर भी कंजूस गुरप्पा को अच्छा गद्दा बनवाना नाहक फिजूलखर्ची लगा होगा। सरसाम में पड़े व्यक्ति की बातों को क्यों व्यर्थ का महत्व दे, यह विचार मन में आने पर धोखा देने की जुर्रत भी की होगी। इस ओछेपन ने कृष्णप्पा को भी बहुत दुखाया होगा। बाद में गुरप्पा ने बड़ी दीनता से गद्दा बनवा कर लाख याचना की, किन्तु कृष्णप्पा उस पर सोया नहीं। अपने पुराने बिस्तर पर भी नहीं सोया। ताड़ की बोरी पर सोता रहा। मुंह लटकाये गुरप्पा उसकी बगल में ही बैठा रहा। फिर भी उससे बातें करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई।
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