लोगों की राय

सामाजिक >> भव

भव

यू. आर. अनन्तमूर्ति

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 127
आईएसबीएन :0000000

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

544 पाठक हैं

अप्रतिम साहित्यकार यू. आर. अनन्तमूर्ति का नवीनतम उपन्यास...

Bhav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अनन्तमूर्ति का लेखन

यू. आर. अनन्तमूर्ति का जन्म 21 दिसम्बर, 1932 को कर्नाटक के शिवमोग्गा में तीर्थहल्ली तालुक के छोटे-से गाँव में हुआ था। संयोग से, कन्नड़ के एक और प्रमुख लेखक महाकवि कुवेंपु भी इसी तालुक के थे; और पहाड़ी अंचल मालेनाड के इन दोनों वरदपुत्रों ने अलग-अलग समय में, इस शताब्दी के आधुनिक कन्नड़ साहित्य की महान् परम्परा को एक स्वरूप प्रदान किया है। यह संयोग ही है कि नवोदय अभियान के संस्थापकों में कुवेंपु थे, और नव्य आधुनिकतावाद को अपने कथा-साहित्य तथा सांस्कृतिक आलोचना-कर्म के माध्यम से एक महान् संरचना और अभिजात रूप देने वाले अनन्तमूर्ति हैं। दूसरी तरह से यह भी कह सकतें हैं कि श्री अनन्तमूर्ति भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित यशस्वी साहित्कारों –कुवेंपु और शिवराम कारंत द्वारा रूपायित आधुनिक कन्नड़ साहित्य की महान् परंपरा के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं।
आधुनिक कन्नड़ साहित्य की गौरवशाली परंपरा के निर्माण में दो परस्पर विरोधी समानांतर मत साथ-साथ सक्रिय रहे हैं-जैसे वैज्ञानिक बुद्धिवाद और रहस्यात्मक अंतःप्रज्ञावाद आक्रामक अतिवाद और मानवतावादी रूढ़िवाद। रूचिकर बात यह है कि इन विरोधी दृष्टिकोणों के जटिल सह-अस्तित्व का उदाहरण एक ही लेखक की सृजनात्मक जीवन अवधि से लिया जा सकता है, और यही एक बड़ी परंपरा का सार भी है। अतः यह आश्चर्यजनक नहीं है कि किसी भी परम में विश्वास न करनेवाले, अपने भव के मूल गुण के कारण अन्नतमूर्ति ने इस परंपरा के कवच को, उसकी पूरी महिमा और तनाव के साथ धारण किया है। अन्नतमूर्ति के सन्दर्भ में यह भी सत्य है कि उनकी सम्पूर्ण सृजनात्मक यात्रा एक क्रुद्ध विद्रोही हवा से प्रारम्भ होकर पारंपरिक रूढ़ियों से मुक्त मानवतावादी लेखक तक की महान रचनात्मक यात्रा है, हालाँकि पिछले अतिवादी विचारों की झलक उनमें अभी पूरी तरह से गायब नहीं हुई है।

इस पृष्ठभूमि के आधार पर, अन्नतमूर्ति के लेखन कार्य को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है। पहला है अतिवाद पक्ष जिसके अंतर्गत दो उपन्यास संस्कार (1965), भारतीपुर (1973); उनकी कहानियों के दो संग्रह प्रश्ने (1962), मौनी (1972); तथा साहित्यक और सांस्कृतिक आलोचना की दो पुस्तकें प्रज्ञे मत्तु परिसर (1974) और सन्निवेश (1974) आते हैं। इस दौर का उनका लेखन सिद्धांतत: लोहिया जी की समाजवादी विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित रहा, जिसमें जाति और लिंग के आधार पर होने वाले विभाजन की प्रखर आलोचना मुखर है, लेकिन इसी के समानांतर उनके लेखन का सार्त्र और लारेंस के सौंदर्यबोध सहित अन्य दर्शनों के साथ भी अद्भुत और दृढ़ संबंध बना रहा।

उनके दूसरे लेखन पक्ष को स्व-चिंतन या आत्मान्वेषण कहा जा सकता है हालाँकि यह कहना कठिन है कि इस पक्ष की शुरूआत कब हुई। लेकिन यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि इसका प्रारंभ उनके तीसरे उपन्यास अवस्था (1978) के प्रकाशन से हुआ और अपने चरम पर यह सूर्यना कुदुरे (1989) कहानी के प्रकाशन के समय तक पहुँचा। इस अवधि में आधुनिकता को मात्र प्रदर्शन मानने के प्रति अनन्तमूर्ति की गंभीर असहमति पूरे वैचारिक साहस के साथ दिखाई पड़ती है; और इसके लिए उन्होने विशेष रूप से गाँधी का सहारा लिया है। इसी दौर से रहस्यवाद आध्यात्मिक अनुभवों के अन्य क्षेत्रों में भी उनकी रुझान और अधिक गहरी हुई, तथा एक बार पुन: उनका लेखन और वैचारिक चिन्तन तीव्र और तीक्ष्ण चर्चा का विषय बना। अतिवादी उनसे नाराज थे ही। वास्तव में अनन्तमूर्ति साकल्यवादी कल्पना के लेखक हैं। उन्होंने अपने कथा-साहित्य में जिस विषय-वस्तु और विचार-चिन्तन को आधार बनाया है वह उनकी अन्य विधाओं के लेखन में भी परिलक्षित है। समक्षम (1980) और पूर्वापर (1989) शीर्षक निबंध-संग्रहों तथा दो कविता-संग्रहों अज्जन हेगळ सुक्कुगलु (1989) और मिथुन (1992) में लेखकीय अस्मिता की तलाश की सहज निरंतरता स्पष्ट उजागर है। उनका चौथा और नवीनतम उपन्यास भव (1994) विचार के स्तर पर उनके पिछले कथा-लेखन से काफी भिन्न तो है ही, उनकी रचना-यात्रा का एक नया दिशा-संकेत भी है। अवश्य ही उनके पहले के लेखन पर समाज-वैज्ञानिक चिंतन और कल्पना का स्पष्ट प्रभाव था। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या यह अनन्तमूर्ति की गतिशील सृजनात्मकता के एक और नये पक्ष का उद्घाटन तो नहीं है ? इसका उत्तर शायद उनके भावी रचना-कर्म से ही मिल सकेगा।

अन्नतमूर्ति के लिए लेखन-कर्म सदैव वास्तविक यथार्थ को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया रहा है। प्रश्नों के घेरे में स्वयं अपने-आपको तलाश करने का भी यही उनका तरीका है। उनके पास जीवन के दु:खद एवं त्रासद अनुभवों के माध्यम से रूपक रचने का जादुई कौशल है। कहना न होगा कि उनके कथा-साहित्य और सांस्कृतिक आलोचना के बीच विद्यमान जटिल संबंधों का अध्ययन नि:सन्देह एक प्रीतिकर अनुभव है। दरअसल, सांस्कृतिक विवेचना के दौरान जीवन और दर्शन संबंधी मुद्दों पर उन्होंने अपने विचार बड़ी निर्भीकता और साहस के साथ प्रस्तुत किये हैं, विवादास्पद स्थिति की सीमा तक। अपनी सैद्धांतिक हिचकिचाहट के बावजूद, उनके सांस्कृतिक आलोचनात्मक लेखन को सुस्पष्टता, सुन्दरता और अभिव्यक्ति की गहनता के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। लेकिन साथ ही, जब वे समस्याओं पर अपने सृजनात्मक कथा-साहित्य के माध्यम से विचार करते हैं तब उनके भीतर से सामाजिक दर्शनशास्त्री का कठोर आग्रह समाप्त हो जाता है और उसके स्थान पर निश्चितता की ज्ञानमीमांसक, जटिल और बहुआयामी छवि सहज ही आकार ले लेती है। यही प्रक्रिया उनकी सभी रचनाओं में परिलक्षित होती है- मात्र उनके प्रथम कहानी-संग्रह एंदेंदु मुगियद कथे (1955) को छोड़कर, जिसमें उनकी भावुकतापूर्ण कहानियाँ संग्रहीत हैं; और जिसका अपनी रचनाओं में उल्लेख करते समय उन्हें संकोच भी होता है। वास्तव में एक विचारक जो पीड़ा भोगता है उस पर लेखक संदेह करता है, उससे प्रश्न पूछता है तथा उसकी कठिन परीक्षा भी लेता है; और इस प्रकार किसी रचना में अनेक दृष्टिकोण एक साथ उभरते हैं, जिसके चलते समस्या का सरलीकरण करके उस पर कोई एकपक्षीय धारणा या विचार बनाना असंभव हो जाता है। यही बात अनन्तमूर्ति के कथा-साहित्य को अत्यधिक पठनीय बना देती है, साथ ही विचारवान पाठक को अपनी बनी-बनायी पूर्व धारणाओं को बदलने के लिए विवश करती है, और उसका अनेक आश्चर्यों से साक्षात्कार भी होता है। दूसरे शब्दों में, उनकी सृजनात्मकता के अतिवादी दौर की अनेक रचनाओं में रूढ़िवादी अभिप्रायों और रूपकों का प्रस्तुतीकरण है, वहीं उनके स्व-चिन्तन काल के कथा-साहित्य में रूढ़िवादियों को परेशान करनेवाली पर्याप्त अतिवादी सामग्री भी उपलब्ध है।
उनका उपन्यास संस्कार भी इसी तरह के अनेकार्थक जटिल रूपकों से परिपूर्ण है, हालाँकि इस उपन्यास की संचरना जिस दार्शनिक दृष्टि से की गयी है, वह ब्राह्मणवादी मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की भर्त्सना करता है; उपन्यास की कथा में नायक ‘प्राणेशाचार्य’ को एक अच्छे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है, बावजूद इसके कि वह भी उसी सामाजिक व्यवस्था की उपज है। उपन्यास के नायक के रूप में उसे अच्छा-खासा महत्त्व और अवसर दिया गया है; कोई और चरित्र, यहाँ तक कि इसका प्रतिनायक ‘नारायणप्पा’ भी इस संदर्भ में इतना भाग्यशाली नहीं है। इसी प्रकार प्रश्ने में कथा के विभिन्न चरित्रों से संबंधित भिन्न-भिन्न बातें बताने के लिए एक प्रतीक के रूप में बाघ प्रकट होता है। उनके स्व-चिंतन काल की कहानी सूर्यना कुदुरे में यही प्रक्रिया एक बहुत ही नाटकीय रूप लेती है; कहानी के अंत तक आधुनिकता और परंपरा का प्रतिनिधित्व करनेवाले चरित्रों-अनंतू और हाडे वेंकट के बीच गंभीर विवाद की स्थिति बनी रहती है। लेकिन अंतत: हाडे वेंकट ही पूरी तरह प्रभावी होता है। यहाँ तक कि अनंतू भी इसे परिवर्तन का सकारात्मक अनुभव मानता है। इस कहानी को हाडे की विजय के रूप में भी पढ़ा जा सकता है, जो आधुनिकतावादियों को खामोश रहने के लिए विवश कर देती है; और यही बात इस कहानी को अत्यधिक गंभीर भी बनाती है। इस सबका अर्थ यह नहीं है कि अन्नतमूर्ति जीवन और इतिहास के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर अनिश्चित रहे हैं; यह सब केवल इतना बताने के लिए है कि उनके लेखन में एक चिन्तक की मूल्यपरक सैद्धान्तिक दृढ़ता और कथाकार की सृजनात्मक संश्लिष्टता के बीच अनेक प्रकार के बहुमुखी संघर्ष विराजमान हैं। पाठक की संवेदनाएँ भी विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होती हैं और अपने भावनात्मक तथा बौद्धिक स्तर पर वह परस्पर विरोधी अध्यर्थों का भी अनुभव करता है। दरअसल, किसी महान् लेखक की शक्ति और सामर्थ्य की उसकी इस क्षमता पर निर्भर करती है, कि वह किसी अनिच्छुक पाठक के भी विश्वास को विचलित कर दे, अविश्वास को नहीं; जैसी कि अंग्रेजी रोमांटिकों की मान्यता है। कहा जा सकता है कि इस आधुनिक प्रतिमान के आधार पर, जहाँ सिद्धान्त और कला में एक अतंहीन संघर्ष चलता रहता है, अनन्तमूर्ति भारत के समकालीन महान् लेखकों में से एक हैं।

वास्तव में अनन्तमूर्ति सही अर्थों में एक आधुनिक लेखक हैं, जो विभिन्न विधागत रूढ़ियों को समाप्त करना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि उनके कथा-साहित्य का ‘गद्य’ उनके ‘पद्य’ के साथ घुलमिलकर एकमेक हो जाना चाहता है। निस्संदेह वे प्रतिभा सम्पन्न यशस्वी कवि भी हैं, लेकिन असंदिग्ध समानताओं और विरोधाभासों को स्पष्ट करती हुई उनकी कविताएँ भी आह्लादक गद्य-सी लगती हैं।

बारहवीं शताब्दी के कन्नड़ के प्रख्यात रहस्यवादी कवि अल्लभ प्रभु ने कहा था-मैंने बाघ के सिर वाले हिरन और हिरन के सिर वाले बाघ को एकरूप देखा है। वास्तव में परस्पर विरोधी तत्त्वों की निरपेक्षता का निराकरण प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय वैचारिक संवेदनशीलता का केन्द्र-बिन्दु रहा है। अंततः वे एक दूसरे में सामाहित हो जाते हैं। अनन्तमूर्ति भी अतिवादियों को रूढ़िवादी और परंपरावादियों को विभ्रंशक प्रगतिशील लगते हैं; जबकि ये सारी विचारधाराएँ उनके भीतर एकाकार होकर उन्हें एक संश्लिष्ट लेखक के रूप में प्रस्तुत करती हैं। और इसी अर्थ में वे कुवेंपु और शिवराम कारंत की महान् परंपरा के उत्तराधिकारी हैं।

भागः एक

जो सामने बैठा था उसके गले में लटके तावीज पर नजर पड़ते ही विश्वनाथ शास्त्री को लगा जैसे उनकी देह में कोई अपदेवता प्रविष्ट हो गया हो। उन्हें यह एक आकस्मिक संकेत-सा लगा। वह सीट पर टाँगें मोड़कर सुखासन में बैठा हुआ था। स्टील की कटोरी से वह अंकुरित मूँग के दाने उपनी उँगलियों से चुन-चुनकर जरा सा होंठ खोलकर धीरे-धीरे अपने मुँह में डालता मुँह चला रहा था। वह उसे एक पकवान की तरह स्वाद ले कर खा रहा था। फर्स्ट क्लास के डिब्बें में फटे कुशनों पर उन दोनों के अतिरिक्त दो लोग और भी थे। पर वह उन सबसे लापरवाह, चलती गाड़ी के बाहर निरंतर दीखते कीकर के ठूँठों और प्यास से काँव-काँव करते कौओं और अपनी ही छाया में पाँव पसारे पड़ी भैसों को देखने में मग्न था। उसने अय्यप्पा का व्रत लिया था, इसलिए काले कुर्ते और काली तहमत के साथ कंधे पर उसने काला कपड़ा डाल रखा था। उस काले कपड़े पर एक सुनहरी जंजीर में जड़ा तावीज दिखाई दे रहा था।

वह खिड़की के ठीक सामने की सीट पर था। विश्वनाथ शास्त्री खिड़के के पास बैठे थे। वे महीने में एक बार हजामत बनवाते थे इसलिए उनके चेहरे पर सफेद खूटियोंवाली दाढ़ी बढ़ आयी थी। कमर पर हरी किनारीवाली सफेद धोती बँधी थी और उसी रंग के किनारीवाला उत्तरीय भी उन्होंने ओढ़ रखा था। उनकी आयु सत्तर के आसपास लगती थी। ये लोग पैंट-शर्ट वाले बाकी लोगों जैसे नहीं लग रहे थे। शास्त्रीजी और अय्यप्पा उस फर्स्ट क्लास के डिब्बे में खास तौर से ध्यान खींच रहे थे।
दोपहर का समय। उन दूसरे यात्रियों ने पिछले स्टेशन पर खाना मँगवाया था। उनमें से एक, जिसने जीन्स पहन रखी थी, मांसाहारी था। मुरझाई तुलसी अपनी चोटी में खोंसे शास्त्रीजी और काले कपड़े वाले अय्यप्पा-भक्त को जुगप्सा न हो, यह सोचकर वह ऊपर की बर्थ पर बैठा, झुका-झुका चोरी से हड्डी चूस रहा था। दूसरे व्यक्ति ने पैन्ट पहन रखी थी और माथे पर कुंकुम भी लगा रखा था। वह मद्रासी रसम, साँभर और सब्जी मिलाकर और मसल-मसालाकर भात के गोले बना अपने मुँह के भीतर उछालता चपर-चपर खा रहा था। शास्त्री जी ने अपनी शुद्ध पोटली से स्टील का डिब्बा बाहर निकाला।
परंतु पसीने से लथपथ शास्त्रीजी काँपने लगे थे, और डिब्बे का ढकना भी खोल नहीं पा रहे थे। उनकी आँखें बार-बार दूर अदृश्य संज्ञा की जकड़ से अपने को छुड़ाने की चेष्टा में उस तावीज को ही देखे जा रही थीं। वह अधेड़ या उससे कुछ कम उम्र का था। उसकी दाढ़ी में एकाध सफेद बाल भी था, बस। उसका मुख नाटकों में राम या कृष्ण के पात्रों जैसा लग रहा था। उसकी लम्बी नाक, बड़ी-बड़ी आँखों का रंग और उन निर्विकार आँखों की मोहकता शास्त्रीजी को एकदम सरोज जैसी ही लग रही थी। शास्त्रीजी व्यग्रता से उसाँसें भरने लगे। वे अपनी भावनाओं को शब्द देने में असमर्थ और अवाक् थे। बाद के दिनों में शास्त्रीजी अनिष्ट निवारण के लिए अनजाने ही अपने मन में उमड़ी उस स्नेह भावना को याद किया करते थे कि किस समय और कैसे वह पैदा हुई।

अंकुरित मूँग चबाता बैठा वह आदमी अपने शरीर पर पड़ती धूप और वर्षा से बेपरवाह तटस्थ बैठी जुगाली करती गाय-सा दीख रहा था। उसकी कटोरी शायद खाली हो चुकी थी। उसकी नजर जब कटोरी पर पड़ी तो शास्त्रीजी अपने को रोक न सके। अपने मन में करूणा की लहर-सी उमड़ती देख वह स्वयं चकित हो गये। उन्होंने अपने डिब्बे का ढकना खोला और बायें हाथ के सहारे सीट पर आगे झुककर उन्होंने डिब्बा उसके आगे कर दिया। ‘लो’ कहना चाहते हुए भी शास्त्रीजी के मुँह से ‘लीजिए’ निकला।
उसकी प्रश्नार्थक दृष्टि से देख शास्त्रीजी की समझ में यह बात आयी कि उसे कन्नड़ नहीं आती। यह कोई और होगा यह सोचकर उन्हें तसल्ली भी हुई। तब लगभग चालीस-पैंतालीस वर्ष पूर्व अपनी लंपटता के जीवन में सीखी अटपटी हिन्दुस्तानी उन्हें याद हो आयी। अय्यप्पा के भक्त दीखनेवाले उस व्यक्ति से उस भाषा में बात करने में उन्हें जरा हिचकिचाहट-सी हुई। लेकिन एक और आश्चर्य उनकी प्रतीक्षा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।

डिब्बे में जो था उसे देखकर, अपनी दाढ़ी में उँगली घुमाता बैठा वह व्यक्ति, बेचैन-सा दिखा। शास्त्रीजी ने खाद्य पदार्थ। उसके आगे किया था, उसे वह देर से पहचान पाया होगा।
उसने काँपते स्वर में कहा, ‘‘कुट्ट....अवलक्की...(कुटा हुआ चिवड़ा)।’’
गुफा से निकले उन शब्दों से शास्त्रीजी रोमांचित हो गये। फिर भी मानो बातचीत शुरू करने की कृत्रिम घनिष्ठता से उन्होंने कहाः
‘‘तो आप इसे जानते हैं। कुट्ट अवलक्की जानते हैं तो आप कभी कन्नड जिले में रहे होंगे। या तो फिर कभी मेरे जैसा कोई आपके पीछे पड़ा होगा। मैं हरिकथा-वाचन में कहा करता हूँ, सुदामा (कुचेल) कन्नड जिले का था। वह अपने बाल सखा के पास निरा चिवड़ा लेकर नहीं, कुटा हुआ चिवड़ा लेकर गया था।’’
शास्त्रीजी ने अपनी विशिष्ट परिचित भाषा में लौटने पर अपने को स्वस्थ अनुभव किया, लेकिन मन में उठी उसी उथल-पुथल से वे संकुचित हो उठे। उसने अपनी आँखों से कुछ ऐसा जताया मानो उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ा। हाथ जोड़कर विनयपूर्वक आँखों से उसने ऐसा कुछ व्यक्त किया कि उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाए। वे आँखें फिर से शास्त्रीजी को चुभने लगीं। तब ‘अच्छा’ कहकर उसने ‘कुटे चिउडे़’ के लिए हाथ फैला दिया। शास्त्रीजी ने बड़े प्यार से जितना उसके हाथ में उड़ेला, उसे उसने मुँह में डाल लिया। उसका स्वाद लेते हुए उसने ऐसे आँखें बन्द कर लीं मानो कुछ और खोजने लगा हो। यह देख शास्त्रीजी के मन में भय और भरोसा दोनों साथ-साथ उभर आये।

इतने में ऊपर अपना मांसाहार समाप्त करके नीचे उतरे सहयात्री ने चिवड़ा चबाते बैठे अय्यप्पा व्रतधारी से धीरे से अंग्रेजी में पूछा, ‘‘क्या आप का नाम जान सकता हूँ ?’’
व्रतधारी ने वह कुशल प्रश्न अनसुना कर दिया। लेकिन जब उसने अपने-आप धीरे-से आँखें खोलीं तो उसकी आँखों में पानी देखकर, शास्त्रीजी ने घबराकर कन्नड में पूछा, ‘‘मिर्च लग गयी क्या’’ फिर उन्होंने हिन्दुस्तानी में वही प्रश्न किया। उसने पहली बार मुस्कराकर पहले की ही तरह सिर हिला दिया।
केबिन से बाहर जाकर हाथ धो आये और अपनी जींस की जेब से रूमाल निकालकर हाथ पोंछते हुए उस जींसवाले ने फिर से जरा विनम्र होकर पूछाः
‘‘आपका नाम पूछ सकता हूँ ?’’
उसने आँखें पोंछकर अपने कपड़ो की ओर इशारा करते हुए केवल ‘स्वामी’ कहा। मानो भावहीन होकर कह रहा हो कि ‘मैं अपना नाम खो चुका हूँ।’
लेकिन जींसवाले ने अपना उत्साह खोया नहीं।

‘‘आप क्या समझते हैं, मैं आपको आपकी इस वेशभूषा में पहचान नहीं सका ? आप दिनकर हैं। टी. वी. की वजह से आप सारे देश में प्रसिद्ध हैं। मेरे भाई के तो आप बड़े हीरो हैं । पूरे एशिया में सारे नेताओं के आपने जो इंटरव्यू लिये हैं, उन्हें किसने नहीं देखा ! आप भगवान वगैरह में विश्वास नहीं करते। यही सोचकर मैं हिचकता हुआ इतनी देर से आपको देख रहा था। सुना है अमिताभ बच्चन भी अय्यप्पा के दर्शन के लिए गया था। मद्रास से जब आप रेल में सवार हुए तभी से मैं सोच रहा था कि जरूर ये कोई परिचित ही है। मद्रास के आसपास सभी मन्दिर आप देख चुके होंगे। आप देहली से चले होंगे। आपको टी. वी. पर देखे एक महीना हो गया। आप पर नज़रें टिकाकर देखते जाना इंपोलाइट होगा, यह सोचकर चुप था। माफ कीजिएगा ! मैं एक डिजाइनर हूँ। कपड़ों का एक्सपोर्ट करता हूँ। मैं बंबई में रहता हूँ। कपड़े खरीदने मद्रास आया था।’’ यह कह कर उसने अपने हाथ आगे बढ़ाया। परन्तु अपनी खोज से खुश जींसधारी अय्यप्पा व्रतधारी के हाथ आगे न बढ़ाने पर निराश नहीं हुआ। वह एक बहुत चटकदार बढ़िया-सी कमीज पहने था और करीने से दाढ़ी बना रखी थी। उसने मुस्कुराते हुए अपने टी. वी. हीरो से बात जारी रखीः
‘‘मेरी बेटी एम. बी. बी. एस में पढ़ती है। उसके लिए आपके ऑटोग्राफ चाहिए। आप बेंगलूर उतरेंगे न, आपके ऑटोग्राफ तभी ले लूँगा।’’ यह निश्चित मानकर की उसे ऑटोग्राफ मिल ही जाएगा, वह सामने वाली सीट पर बैठकर एक इंग्लिश मैगजीन पढ़ने लगा।

शास्त्रीजी खाने का डिब्बा अपने पकड़े-पकड़े उसके संकेत की प्रतीक्षा में उसी की ओर देखा रहे थे। वे इतना तो समझ ही गये थे कि ‘अय्यप्पा’ का व्रत लेने के कारण वह अपना नाम ‘स्वामी’ तो जरूर बता रहा है पर टी. वी. की एक प्रसिद्ध हस्ती। यह जानकर उन्हें अच्छा लगा कि वह चिउड़े में आस्था दिखा रहा है। दूसरी कटोरी से दही निकालकर वे बोलेः
‘‘हाथ धोकर यह खा लीजिए।’’
स्वामी को शास्त्रीजी की बात समझ में नहीं आयी पर उनका आग्रह समझ में आ गया। वह उठकर कंपार्टमेंट का दरवाजा खोलकर बाहर गया। शास्त्री जी को याद आया कि उसमें जो उद्वेग और आवेश पैदा हुआ, उसका कारण किसी अपदेवता का प्रवेश न था। इससे थोड़ी-सी तसल्ली पाकर गले से रूद्राक्ष की माला निकालकर वे जप करने बैठ गये।
कंपार्टमेंट में बैठा चौथा व्यक्ति अपना खाना खाकर पान पर चूना लगाता हुआ शास्त्रीजी से बात करने लगाः
‘‘मुझे पता है, आप प्रसिद्ध कीर्तनकार विश्वनाथ शास्त्री हैं। मैं भी आप की तरफ का ही हूँ। अपने दादा के जमाने में सुपारी का बाग हाथ से निकल जाने के कारण हम लोगों ने गाँव छोड़ दिया था। ‘एडमन’ जहाज की कहानी आपने सुनी होगी। उस कारण और कोई चारा न होने से हम व्यापार में लग गये। हमारा काम है मलेनाड से सुपारी खरीदना और दूसरी जगहों में बेचना। आप शिवहल्लि के स्मार्त हैं तो मैं माध्व हूँ। मैंने आप की हरि कथा सुनी है। आप जब हरि कथा सुनाते हैं तो भगवान श्रीकृष्ण साक्षात् आँखों के सामने आ खड़े होते हैं। आपके दर्शन हमारे लिये सौभाग्य की बात है।’’ यह कहते हुए उसने अपना पान-सुपारी का बटुआ शास्त्रीजी की ओर बढ़ाया।

जप माला हाथ में लिये हुए ही आँखें खोलकर शास्त्रीजी ने कहाः
‘‘अभी मैंने फलाहार नहीं किया है।’’
वह बोला, ‘आपने अपना सारा फलाहार तो उन्हें दे दिया। आपके लिये क्या बचा है। अगले स्टेशन पर इडली मिलेगी, ला दूँ ?’’
‘‘मैं होटल का नहीं खाता। यात्रा के समय जरा-सा चिउड़ा और दही लेता हूँ। उन्हें देने के बाद भी मेरे लिये बचा हुआ है। मैं आपके उपकार के लिए कृतज्ञ हूँ। आपका शुभ नाम जान सकता हूँ ?’’ शास्त्रीजी को अपनी भाषा में लौटना संभव होता देख संतोष हुआ।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book