लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द)

लहरों के राजहंस (सजिल्द)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3763
आईएसबीएन :9788126708512

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

96 पाठक हैं

सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...


नंद : उससे क्या होता है ? सोने के लिए इसके बाद और रातें क्या नहीं आएँगी ?

सुंदरी श्रृंगारकोष्ठ के पास जाकर पल-भर दर्पण के सामने खड़ी रहती है।

सुंदरी : सोकर उठने पर अपना चेहरा कैसा लगता है ?
नंद : कैसा लगता है ?
सुंदरी : लगता है जैसे इसमें कांति हो ही नहीं। आपको नहीं लगता ?
नंद : न, मुझे नहीं लगता।
सुंदरी : ये सब कहने की बातें हैं। आप थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाइए। मैं अलका को बुलाकर अपना प्रसाधन कर लूँ।
पास आकर उसे सामने के द्वार की ओर भेज देना चाहती है। जाइए आप जाइए न !
नंद अपने अंदर की अनुभूति से संतुष्ट पल-भर आँख मूंदे रहता है। फिर सामने के द्वार से बाहर गवाक्ष के पास चला जाता है और दोनों बाँहें गवाक्षं पर फैलाकर प्रत्यूष के हलके उजाले को देखने लगता है। सुंदरी दर्पण के पास जाकर
एक-एक करके अपनी पलकों को देखती है। अलका !

दाईं ओर के द्वार से नीहारिका आती है।

नीहारिका : देवि
सुंदरी : नीहारिका ! अलका कहाँ है ?

नीहारिका : वह अभी-अभी बाहर गई है। जाते हुए मुझसे कह गई थी कि आपका कोई आदेश हो, तो मैं |

सुंदरी : परंतु वह गई कहाँ है ?
निहारिका : कह रही थी कि कविराज के कक्ष में उनसे कुछ पूछने जा रही है। श्यामांग रात-भर ।

सुंदरी : (कुछ व्यंग्यपूर्ण स्वर में)
ओह, श्यामांग ! मैं भूल गई थी कि मैंने परिचर्या के लिए उसे पास के कक्ष में बुला लिया है। मुझे शृंगार-प्रसाधन के लिए अलका की सहायता की आवश्यकता थी। तुझसे वह काम नहीं होगा, तू जा।

निहारिका : आप आदेश दें, तो मैं जाकर ।
सुंदरी : नहीं, अलका को उसका उपचार करने दे, मैं अपना प्रसाधन स्वयं कर लूंगी।

निहारिका सिर झुकाकर दाईं ओर के द्वार से चली जाती है। सुंदरी अपने चेहरे को घुमा-फिराकर दर्पण में देखती है, फिर प्रसाधन-सामग्री को सहेजती हुई एक बार नंद की ओर देख लेती है और मुस्करा कर वाल्मीकि की पंक्ति गुनगुनाने लगती है :

 “स राजपुत्रः प्रियया विहीन:
___ शोकेन मोहेन च पीडयमानः ।"

(फिर नंद की ओर देखकर) सुनिए !

नंद गवाक्ष के पास से हटकर उसकी ओर आता है।

सुंदरी : (ध्यान से उसके चेहरे को देखती हुई)
लगता है बाहर जाकर किसी का कुछ खो गया है ।

नंद : मैं दूर जंगल के घने वृक्षों को देख रहा था।

सुंदरी : क्यों ? प्रभात होते ही फिर आखेट का उत्साह जाग आया ?

नंद : नहीं, उस मृग की बात सोच रहा था। सोच रहा था कि वहीं घने वृक्षों की ओट में पड़ा हुआ वह ।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book