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नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द)

लहरों के राजहंस (सजिल्द)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3763
आईएसबीएन :9788126708512

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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...


सुंदरी : ये दीपक रात-भर जलते रहे ? बुझे नहीं ?
नंद : बुझ गए थे। मैंने अभी फिर जलाए हैं।
सुंदरी : आपने जलाए हैं ? क्यों ? दास-दासियाँ ।
नंद : मैं नहीं चाहता था कि दास-दासियों में से कोई आकर तुम्हारी नींद में बाधा डाले ।
सुंदरी : आप सोए नहीं ?
नंद : सोने की चेष्टा की थी पर नींद नहीं आई।
आकर उसके पास बैठ जाता है।
सुंदरी: क्यों ?
मेरे प्रति मन में बहुत क्रोध था ?
नंद : तुम्हारे प्रति क्रोध ? मेरे मन में ? ऐसा तुम सोच सकती हो ?
सुंदरी : (आँखें मूंदे हुए)
कभी-कभी चाहती हूँ कि सोच सकूँ।।
आँखें खोल लेती है और सीधी बैठ जाती है। सच, आप कभी मुझ पर क्रोध क्यों नहीं करते ? इतनी बार, इतनी तरह के कारण होते हैं, फिर भी ?

नंद खाली चषक को उठाकर देखता है और चबूतरे से उठ पड़ता है।

नंद : सोचता हूँ यह सब सहेज देना ठीक होगा । दास-दासियाँ आकर सबकुछ इस तरह पड़ा हुआ देखेंगी, तो ।
सुंदरी भी चबूतरे से उठ पड़ती है।

सुंदरी : तो क्या होगा ? हमारे अंतरंग जीवन को लेकर उन्हें कुछ भी सोचने का अधिकार नहीं है।

नंद श्रृंगारकोष्ट से भी चषक उठा लेता है और दोनों को ले जाकर मदिराकोष्ट में रख देता है।
औंधे मदिरापात्र से टपकती हुई बूंदों को पल-भर देखता रहता है, फिर उसे सीधा कर देता है। सुंदरी कुछ-एक बिखरी हुई मालाओं को उठाकर चबूतरे पर रखती है।

नंद : कहने का अधिकार न हो, पर सोचने का अधिकार तो किसी को भी रहता ही है।
सुंदरी : यह मदिरापात्र औंधा कैसे हो गया ?
नंद : न जाने कैसे । हो सकता है पुष्पमालाओं की एकाध चोट यह भी खा गया हो।
मत्स्याकार आसन से तकिया उठाकर चबूतरे की ओर ले आता है।

सुंदरी : (उसके पास जाकर)
मुझे सचमुच बहुत खेद है।

नंद सलवटें निकालकर तकिया चबूतरे पर रख देता है।

नंद : किस बात के लिए ?
सुंदरी : रात के अपने व्यवहार के लिए।
नंद : तुम व्यर्थ ही मन में खेद ला रही हो ! तुम उस समय विक्षुब्ध थीं। मैं तुम्हारी मनःस्थिति में होता, तो शायद मैं भी ऐसे ही करता।

सुंदरी : आप ऐसे कभी न करते । मैं आपको जानती नहीं हूँ ?
नंद : जानती हो, तो यह सब किसलिए कह रही हो ?
सुंदरी : ऐसे ही। कहना अच्छा लगता है। कभी-कभी सोचती हूँ कि ।

नंद : क्या सोचती हो ? : कि आप कभी सचमुच मुझसे रुष्ट हो जाएँ, दो-एक रातें मेरे कक्ष में न आएँ, तो कैसे लगेगा ?

नंद : अच्छा लगेगा ?

सुंदरी : अच्छा नहीं लगेगा। फिर भी कभी-कभी चाहती हूँ कि ।

नेपथ्य में प्रभात की शंखध्वनि सुनाई देती है। प्रभात की शंखध्वनि ! आपने सारी रात बिना सोए ही काट दी ?

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