नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
|
1 पाठकों को प्रिय 96 पाठक हैं |
सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
सुंदरी : (प्रयत्न से अपने को सुस्थित रखती हुई)
तो और कौन लोग हैं ?
मैत्रेय : अपने ही कुछ कर्मचारी हैं । श्वेतांग, बीजगुप्त और नागदास ।
नंद : (अपने भाव को छिपाने के प्रयत्न में)
ये सब लोग क्या अपने-अपने कार्य पर नहीं हैं ? कार्य पर ही हैं | श्वेतांग को
अभी तुमने आदेश दिया था न । ये सब मिलकर श्यामांग को साथ के कर्मचारियों के
कक्ष में ला रहे हैं।
मैत्रेय : मैं दिन-भर सोचता रहा कि आपसे कहूँ, परंतु कह नहीं पाया।
कामोत्सव का आयोजन यदि आज स्थगित करके कल रखा जा सकता ।
भरा हुआ चषक फिर उठा लेता है। सुंदरी उसकी बात से अपने पर वश खो बैठती है।
सुंदरी : (मदिराकोष्ठ की ओर जाती हुई)
कामोत्सव कामना का उत्सव है, आर्य मैत्रेय ! मैं अपनी आज की कामना कल के लिए
टाल रखू क्यों ? मेरी कामना मेरे अंतर की है। मेरे अंतर में ही उसकी पूर्ति
भी हो सकती है। बाहर का आयोजन उसके लिए उतना महत्त्व नहीं रखता जितना कुछ लोग
समझ रहे हैं।
नंद बढ़कर सुंदरी के पास आ जाता है।
नंद : देखो, इस तरह अव्यवस्थित नहीं होते।
उसका हाथ अपने हाथ में लेना चाहता है, परंतु सुंदरी हाथ छुड़ा लेती है।
सुंदरी : मैं अव्यवस्थित नहीं हूँ। किसी का कोई षड्यंत्र मुझे अव्यवस्थित
नहीं कर सकता ।
नंद : षड्यंत्र ? इसमें षड्यंत्र कोई नहीं है सुंदरी !
सुंदरी : यह षड्यंत्र नहीं तो और क्या है ? और इस षड्यंत्र की प्रेरणा कहाँ
से आई है, यह भी मैं अच्छी तरह जानती हूँ।
सहसा वहाँ से हटकर श्रृंगारकोष्ठ के पास आ जाती है और वहाँ की सामग्री को
इधर-उधर रखने-हटाने लगती है। मैत्रेय पल-भर स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखता
रहता है। फिर भरा हुआ चषक पुनः मदिराकोष्ठ में रख देता है।
|