नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
(चौंककर) आप ? आप कब आए ? अभी-अभी तो मैं ।
नंद : (चषक होंठों के पास ले जाकर)
मैं अभी आया हूँ।
चषक खाली करके यथास्थान रख देता है।
सुदरी : और मैं कितनी देर से प्रतीक्षा कर रही थी सोच रही थी कि शायद...।
नंद : (पास आता हुआ)
क्या सोच रही थी कि नहीं आऊँगा ?
सुंदरी : ऐसी असंभव बात मैं सोच सकती थी ? सोच रही थी कि शायद आखेट में बहुत
दूर निकल गए हैं। डर रही थी कि सब लोग आ चुकेंगे, तो अंत में आनेवाले अतिथि
आप ही न हों।
नंद : (जैसे कुछ और बात सोचता हुआ)
अंत में आनेवाला अतिथि...!
चबूतरे पर जाकर विश्राम की मुद्रा में बैठ जाता है।
मैं जानता था तुम प्रतीक्षा में होगी । इसीलिए (सहसा बात बदलकर) आखेट में
बहुत देर तो नहीं लगी। तुम्हें लगा
कि बहुत देर लगी है ?
नंद : नहीं लगी ? आप संध्या से पहले लौट आने को नहीं कह गए थे ?
पास जाकर पल-भर उसे देखती रहती है।
इतने थके हुए क्यों लग रहे हैं ?
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